मनमोहन कुमार आर्य
हम परस्पर जब किसी से मिलते हैं तो परिचय रूप में अपना नाम व अपनी शैक्षिक योग्यता सहित अपने कार्य व व्यवसाय आदि के बारे में अपरिचित व्यक्ति को बताते हैं। हमारा यह परिचय होता तो ठीक है परन्तु इसके अलावा भी हम जो हैं वह एक दूसरे को पता नहीं चल पाता। वह कौन सी बात है जिससे हम प्रायः अनभिज्ञ बने रहते हैं? इस प्रश्न का ठीक उत्तर तो केवल वैदिक धर्म ही दे सकता हैं। इसका कारण है कि इस प्रश्न के युक्तिसंगत एवं व्यवहारिक उत्तर वेद, दर्शन व उपनिषदों आदि में प्राप्त होते हैं। वह उत्तर यह है कि मैं व हमस ब एक चेतन, ज्ञानयुक्त सत्ता हैं जो आत्मिक व शारीरिक बल की सहायता से कर्म कर सकते हैं वा करते हैं। चेतन पदार्थ किसे कहते हैं जो जड़ व निर्जीव न हो। जिस मानव व अन्य प्राणी के शरीर में जीवित अवस्था में संवेदनायें उत्पन्न होती हों चेतन तत्व जीवत्मा की उपस्थिति के कारण होता है। जैसे किसी दुःखी व्यक्ति को देख कर उसके प्रति सहानुभूति होना और उसके दुःखों को दूर करने में सहयोग करने की भावना का होना चेतन जीवात्मायुक्त मनुष्य में ही होता है। चेतन पदार्थ वह होता है जिसको जन्म के बाद व शरीर के बने रहने तक प्रिय-अप्रिय अथवा सुख व दुःख की अनुभूति होती है।
यह तो हम सभी अनुभव करते हैं कि हम चेतन हैं क्योंकि हमें सुख, दुख, सर्दी, गर्मी, अज्ञात वस्तुओं व पदार्थों के प्रति जिज्ञासा, ज्ञान प्राप्ति की इच्छा व जानकर सन्तोष का होना, सफलता में सुख व असफलता में दुःख आदि का होना जैसी बातें अनुभव होती हैं जो कि इतर निर्जीव व जड़ अर्थात् भौतिक पदार्थों में नहीं होती। मिट्टी, पत्थर, जल व अग्नि आदि जड़ व अचेतन पदार्थ हैं इन्हें सुख, दुःख, इच्छा, राग व द्वेष आदि की भावना नहीं होती। ज्ञान का होना भी चेतन जीवात्मा व ईश्वर में ही होता है जड़ व भौतिक पदार्थों में नहीं। इसी प्रकार से मनुष्य जो कर्म करता है वह सब आत्मा की प्रेरणा से मन द्वारा सम्बन्धित इन्द्रियों को प्रेरित करने पर ही सम्भव होते हैं। यदि किसी मनुष्य के शरीर से चेतन जीवात्मा निकल जाता है तो वह शरीर मिट्टी व पाषाण की भांति निष्क्रिय हो जाता है। फिर उसे सुख व दुःख का होना भी बन्द हो जाता है। अतः शरीर में होने वाली क्रियायें बिना जीवात्मा के सम्भव नहीं होती, इसी कारण यह कहा जाता है कि कर्मों का कर्ता शरीर नहीं अपितु शरीरस्थ जीवात्मा होता है।
सभी प्राणियों के शरीरों में एक-एक मुख्य जीवात्मा होता है। यह जीवात्मा की उत्पत्ति कब व कैसे हुई? इसका उत्तर है जीवात्मा अनुत्पन्न व अनादि पदार्थ है। यह कभी उत्पन्न नहीं हुआ अपितु इस सृष्टि व ब्रह्माण्ड में सदा-सर्वदा से है। अतः इसकी उत्पत्ति कैसे हुई, यह प्रश्न निरर्थक है। जीवात्मा संसार में अनादि काल से है इसलिए इसे शाश्वत व सनातन भी कहते हैं। यह भी संसार में नियम है कि जिसकी उत्पत्ति होती है उसका अन्त भी अवश्य होता है। शरीर के जन्म के रूप में मनुष्य की उत्पत्ति होती है अतः इसका विनाश व मृत्यु भी अवश्य होती है। आत्मा शरीर की भांति उत्पन्न नहीं होता अतः यह शरीर में प्रवेश करता और उससे बाहर निकलता तो है परन्तु इसका अस्तित्व नष्ट नहीं होता। यह जन्म से पूर्व की ही तरह मृत्यु के बाद भी इस संसार में वायु व आकाश में ईश्वर के साथ रहता है। आत्मा के अन्य गुण क्या है और मनुष्य का जन्म क्यों होता है? इस पर भी विचार करना समीचीन है। जीवात्मा के अन्य गुणों में यह सत्, अल्पज्ञ, एकदेशी, समीम, अणु परिमाण, सूक्ष्म, अपनी सूक्ष्मता के कारण आंखों से न दीखने वाला, स्पर्श से अनुभव न होने वाला, जन्म-मरण धारण करने वाला, मनुष्य जन्म में स्वतन्त्रता पूर्वक कर्मों को करने वाला तथा ईश्वर की व्यवस्था से उन कर्मों के सुख-दुःख रूपी फल भोगने वाला होता है। संसार में जितनी भी मनुष्य, देव, असुर, नाना पशु व पक्षी एवं कीट-पतंगों की योनियां हैं उन सब योनियों में सब प्राणियों का जीवात्माएक जैसा व एक समान है। मनुष्य जीवन में किए हुए शुभ व अशुभ कर्मों के कारण यह भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेता है। जब जीवात्मा के पाप व पुण्य कर्म बराबर हो जाते हैं वा पुण्य कर्म अधिक होते हैं तो जीवात्मा का मनुष्य के रूप में जन्म होता है। पाप अधिक होते है तो मनुष्य जन्म न होकर नीच पशु, पक्षी, कीट, पतंग तथा स्थावर योनियों में जन्म होता है ऐसा हमारे ऋषि-मुनियों व शास्त्रकारों का मत है जो युक्ति व तर्क के आधार पर भी सिद्ध होता है। अब हम यह विचार करेंगे कि जीवात्मा का मनुष्य रूप में जन्म किन कारणों से, क्यों व किसके द्वारा होता है।
हमने उपर्युक्त पंक्तियों में जीवात्मा के स्वरुप पर विचार करते हुए उसे एक एकदेशी, ससीम, अनादि व नित्य अस्तित्व रखने वाला पाया है। यह जीवात्मा स्वयं कोई शरीर धारण नहीं कर सकता। शरीर धारण करने के लिए उसके निर्माण की एक व्यवस्था है जिसे जीवात्मा अपने ज्ञान व सामर्थ्य के कारण कदापि नहीं कर सकता। संसार में दो चेतन सत्ताओं में एक चेतन सत्ता ईश्वर की भी है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वेश्वर और सृष्टिकर्ता आदि गुणों से युक्त है। यह आप्त काम होने से सदैव सुख व आनन्द की स्थिति में रहता है। ईश्वर में वह सामर्थ्य है कि वह जड़ त्रिगुणात्मक प्रकृति से इस जड़ स्थूल जगत का निर्माण कर सके और उससे मनुष्य आदि प्राणियों के शरीर आदि बनाकर उन्हें ज्ञान देकर उनका पालन कर व करा सके। यह समस्त ब्रह्माण्ड वा सूर्य, चन्द्र एवं पृथिवी आदि ईश्वर के द्वारा ही रचित है। यह सृष्टि ईश्वर ने अपने लिये नहीं अपितु अपनी शाश्वत् प्रजा ‘‘जीवों” के लिए उनके पूर्व कल्प व जन्म के कर्मानुसार सुख-दुःख रुपी फलों को देने के लिए बनाई है। ईश्वर ने इस सृष्टि सहित प्राणियों को विभिन्न योनियों में इस लिए जन्म दिया है क्योंकि यह उसकी सामर्थ्य में है। सभी चेतन सत्तायें मुख्यतः मनुष्य दूसरों के हित के लिए अपनी सामर्थ्य का अधिकाधिक उपयोग करती ही हैं, इसी प्रकार से पूर्ण धर्मात्मा ईश्वर ने सृष्टि की रचना व जीवात्माओं को जन्म देकर परोपकार व जीवात्माओं के हित के कार्य करने का परिचय दिया है। ईश्वर ने सृष्टि क्यों बनाई तो इसका उत्तर है कि अपनी सामर्थ्य का प्रकटीकरण करने और जीवों को पूर्व कल्प वा जन्म के कर्मों के अनुसार सुख-दुःख रूपी फल देने के लिए इस सृष्टि को रचा है। इस प्रकार हमारे सभी प्रश्नों का समाधान हो जाता है। जीवात्मा, परमात्मा व प्रकृति विषयक सभी प्रश्नों व शंकाओं के उत्तर जानने के लिए संसार में सबसे सरलतम उपाय एक ही है और वह है सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन। इससे सभी शंकाओं का निराकरण हो जाता है। संक्षेप में यह भी बता दें कि जीवात्मा का कर्तव्य ईश्वर के स्वरूप को जानकर उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना करना व वैदिक कर्मों को करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करना है। इसका भी विस्तार से वर्णन ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन करने से मिल जाता है।