धरा को शस्यश्यामलां बनाना है

लक्ष्मी जयसवाल अग्रवाल

धधक रहा नभ, तप रही वसुंधरा
जलते वनों का रूप ले रही धरा
चीत्कार करते वृक्ष, सूखी नदियां
दे रहीं चेतावनी तुझे
संभल जा मनुष्य अब भी
फिर से बना मुझे हरा-भरा
रो-रोकर कर रही मैं तुझसे निवेदन
मत बना मुझे इस तरह बंजर
मेरी आर्द्र पुकार सुन हे मनुष्य!
मत कर तू यह जघन्य कृत्य।
नदी, पर्वत, वृक्ष, स्वच्छ पर्यावरण
सम्पदा है ये सब मेरी अमूल्य
अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर
मत कर इन सबका हरण।
एक-एक कटते पेड़, बंजर भूमि
कर रहे हैं तेरी ही साँसें कम
विकास का मत पाल तू भ्रम
कहीं न हो जाए तेरी ही गोद सूनी
मेरी गोद उजाड़कर तू न सुख पाएगा
जल-भोजन-जीवन सबका स्रोत यही हैं
इनको नष्ट करके अपनी पीढ़ियों के लिए
कौन सी अनमोल धरोहर छोड़ जाएगा

मत कर बंद अपनी आँखें और कान
अब भी सुन ले मेरा करुण क्रंदन !
सूखे इस उपवन में बिना हरियाली
तू क्या जीवन के सुख पाएगा
बिना वृक्ष कहाँ से हरियाली जुटाएगा
बिना जल क्या तू जी पाएगा
बिना पहाड़ों के वर्षा-जल-संजीवनी
कहाँ से तू लाएगा ?
इसलिए कहती हूँ मत कर जल व्यर्थ
इसके बिना नहीं जीवन का अर्थ
पेड़ लगा बना धरती को उपवन
पहाड़ों से मत कर छेड़छाड़
वरना महँगी पड़ेगी तुझे प्रकृति से तकरार
आज जो जल रही धरती
तूने ही बीज बोया इसका
अब भी संभल जा
नहीं तो आ जाएगी जीवन में रिक्तता
पर्यावरण संरक्षण का केवल
दिवस नहीं बनाना है
अपनी धरती को फिर एक बार
आभूषणों से सजाना है
अपनी धरा को एक बार फिर
शस्यश्यामलां बनाकर महकाना है।

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