मानव विकास के आइने में भारत

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संदर्भः- मानव विकास सूचकांक 2015 की रिपोर्टः-

प्रमोद भार्गव

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ;यूएनडीपी,  2015 के मानव विकास सूचकांक में भारत पिछली रिपोर्ट की तुलना में एक सीढ़ी जरूर ऊपर चढ़ा है,बावजूद उसकी कुल स्थिति वैश्विक स्तर की तुलना में बहुत नीचे है। जो देश में विषमता की खाई चौड़ी बनाए रखने का पर्याय बना हुई है। मानव की औसत खुशहाली का अंक 0.630 निर्धारित किया गया था,जबकि भारत इस मानक पैमाने में से कुल 0.609 अंक प्राप्त कर पाया। नतीजतन 188 देशों की सूची में भारत 130वें पायदान पर अटक गया है। मानव विकास की बेहतरी से जुड़े ये निष्कर्श मुख्य रूप से तीन बिंदुओं पर केंद्रित होते हैं। एक,आम लोगों का जीवन-यापन,दो,बच्चों,किशोरों और वयस्कों को उपलब्ध शिक्षा के अवसर और तीन,प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आमदनी। साथ ही जीवन को बेहतर बनाने वाले अन्य पहलुओं का मूल्यांकन करते हुए विषमता का आकलन भी किया जाता है। इस रिपोर्ट में विकास बनाम विषमता प्रमुख रूप से उभरी है,जो भारत के पिछड़ने का प्रमुख कारण है। विषमता के इस आइने में देश की महिलाओं की हालत भी संतोषजनक नहीं है।

विकास बनाम विषमता की यह स्थिति शायद इसलिए बनी हुई है,क्योंकि हमारे नीति-नियंताओं ने सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर को एकमात्र विकास का आधार माना हुआ है। लेकिन जब-जब सकल राष्ट्रीय आय,खुशहाली या अर्थव्यवस्था के आकार की बाजाय आम आदमी के जीवन स्तर को बेहतरी की कसौटी के रूप में नापा गया,तब-तब देश की बड़ी आबादी की तस्वीर बदरंग दिखाई दी है। इस विसंगति को संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट हर साल सामने लाती रही है,लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता। यही वजह है कि एक बड़ी आबादी पेट भर भोजन,बेहतर शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं के मानकों पर न केवल पिछड़ रही है,बल्कि इस आबादी का दायरा भी फैलता जा रहा है। इस लिहाज से इस रिपोर्ट को एक ऐसी चेतावनी के रूप में लेने की जरूरत है कि देश की सम्रग प्रगति का केवल जीडीपी के बढ़ते-घटते आंकड़ों के आधार पर आकलन न करते हुए उसे समाज की समृद्धि से जुड़े हरेक मानक स्तर पर परखा जाए।

यूएनडीपी कुछ समय से गरीबी मापने के इसी बहुआयामी सूचकांक को अपना रही है। यह अलग बात है कि इस सूचकांक के निष्कर्शों में भारत फिसड्डी देशों की गिनती में आता है। यूएनडीपी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 53.3 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। जब आधी से ज्यादा आबादी की तस्वीर बद्हाली की सूरत पेश कर रही हो,तब भला,सर्वांगीण,समावेशी और बहुआयामी विकास की छवि कैसे उभर सकती है। हालांकि नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के तत्काल बाद देश से गरीबी को जड़-मूल से खत्म करने का संकल्प जताया था। लेकिन डेढ़ साल के कार्यकाल में हालात बेहतर नहीं हुए। फिलहाल तो सबसे बड़ी चुनौती यह बनी हुई है कि देश में गरीबी मापने का तार्किक पैमाना क्या हो ? जिससे यह तय हो सके कि गरीब कौन है और गरीबों की संख्या कितनी है। पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल में 15 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने का दावा किया था। इसका आधार सुरेश तेंदुलकार के गरीबी नापने के पैमाने को बनाया गया था। तेंदुलकर ने कहा था कि देश की 21 फीसदी आबादी यानी लगभग 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। दरअसल यह सुनियोजित तरीका राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की उस रिपोर्ट को झुठलाने के लिए अपनाया गया था,जिसमें अर्जुन सेन गुप्त ने कहा था कि देश की 37 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है।

2014 में ब्रिटेन के आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों ने भी बहुआयामी गरीबी सूचकांक तैयार किया था। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 53.7 प्रतिशत आबादी गरीब और 28.7 फीसदी जनसंख्या पूरी तरह दरिद्र है। चूंकि इस पैमाने में पेयजल,स्वच्छता,बुनियादी शिक्षा,स्वास्थ्य सेवाओं आदि की उपलब्धता पर भी ध्यान दिया जाता है,इसलिए कहा जा सकता है कि यह गरीबी रेखा तय करने का कहीं बेहतर मानदंड है।

संयुक्त राष्ट्र की इस बार की रिपोर्ट में कार्य और मानव विकास के बीच संबंधों को समझने की कोशिश भी की है। इसलिए नौकरी और रोजगार के दायरे से बाहर निकलकर मानव विकास के सूचकांक को आजीविका,परस्पर व्यक्तियों में लगाव,सामाजिक संबंध समाज सेवा आदि ऐसे कई पहलू शामिल हैं,जिन पर पहली बार ध्यान दिया गया है। क्योंकि मानविकी से जुड़े यही वे प्रमुख विषय हैं,जो मानव जीवन को गरिमा प्रदान करते हैं। इस बार के आकलन में स्त्री-पुरुषों से जुड़ी विषमता को भी सामने लाया गया है। भारत की स्थिति इस दृष्टि से पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी गई गुजरी है। दक्षिण ऐशीयाई देशों में भारत केवल अफगानिस्तान से आगे है। शिक्षा के स्तर पर 27 प्रतिशत बालिग महिलाएं ही माध्यमिक स्तर की शिक्षा हासिल कर पाती हैं। भारतीय संसद में भी महिलाओं की संख्या महज 12.2 फीसदी है। साथ ही करीब 40 फीसदी गरीब बच्चे कुपोषित हैं।

दरअसल मानव विकास सूचकांक के आईने में भारत की जो धूमिल छवि पेश आई है,उसके मूल में पूंजीवादी विस्तार और व्यक्तिगत उपभोग है। जिसके चलते समाज में हर स्तर पर असमानता और विसंगतियों का दायरा बढ़ रहा है। आर्थिक उदारवाद की नीतियां लागू होने के बाद औद्योगिक घरानों के दबाब में सरकारें ऐसे उपाय करती रही हैं,जिससे एक ऐसे वर्ग की आर्थिक ताकत बढ़ जाए जो उपभोक्तावादी वस्तुओं के नए-नए माॅडल खरीदने में सक्षम हो जाए। इसी नजरिए से छठवां वेतनमान लागू किया गया था और अब 2016 में सातवां वेतनमान लागू करने के उपाय किए जा रहे हैं। कुछ समय पहले क्रेडिट स्वीस नामक एजेंसी की वैश्विक समृद्धि रिपोर्ट-2014 आई थी। khush parivarइस रिपोर्ट में मध्य वर्ग के उन लोगों के धन की प्रचुरता का आकलन किया गया था,जिनके पास 10 हजार से एक लाख डाॅलर तक धन है। भारत में इस श्रेणी में 3 करोड़ 14 लाख परिवाए आए हैं। व्यक्ति के रूप में इनकी संख्या 16 करोड़ है। ऐसा ही एक अनुमान नेशनल काउंसिल फाॅर एप्लाइड इकोनाॅमिक रिसर्च ने भी लगाया था। इसके मुताबिक 2016 में भारतीय मध्य वर्ग की आबादी 5 करोड़ 30 लाख परिवार,मसलन 26 करोड़ व्यक्ति हो जाएगी। एनसीएईआर ने मध्य वर्ग में उन लोगों को शामिल किया है,जिनकी वार्षिक आय 3 लाख 40 हजार से 17 लाख रुपए के बीच है। इन रिपोर्टों से सब कुल मिलाकर यह तस्वीर सामने आती है कि ज्यादा से ज्यादा 20 फीसदी आबादी ऐसी है,जिसे मध्यवर्ग में रखा जा सकता है। यही वह मध्य वर्ग है,जिसकी उपभोग व उपभोक्तावादी जीवनशैली के चलते देश की 80 फीसदी आबादी आर्थिक संकट और सामाजिक विशंगतियों से जूझ रही है। यही नहीं अपनी इस दिखावे की जीवन शैली के चलते यही वह आबादी है,जिसमें ह्रदय रोग,लकवा,मधुमेह,रक्तचाप,कैंसर,दमा और हड्डी रोग पनप रहे हैं। हारवर्ड स्कूल आॅफ पब्लिक हेल्थ द्वारा किए अध्ययन के अनुसार इन रोगों से आबादी को छुटकारा दिलाने के लिए भारत की अर्थव्यस्था पर 2012 से 2030 की अवधि में 6.2 अरब डाॅलर बोझ पड़ने वाला है। युवा देश के बीमार होने की यह भयावह तस्वीर आर्थिक विषमता की खतरनाक उपज है। शायद इसीलिए भारत खुशहाली से जुड़ी सूचकांक रिपोर्ट में भी पिछड़ रहा है। खुशहाली के मानकों पर लेगटम इ्रंस्टिट्यूट की रिपोर्ट में 142 देशों की सूची में भारत 106वें पायदान पर है। मसलन देश में चंद लोगों की आर्थिक समृद्धि के बावजूद अधिकतम आबादी से खुशहाली दूर है। बहरहाल मानव विकास सूचकांक की ताजा रिपोर्ट और अन्य अध्ययन रिपोर्टों से साफ होता है कि देश में आर्थिक समृद्धि और गरीबी दोनों ही खतरनाक साबित हो रहे हैं। जिनके पास आधुनिक वस्तुओं के उपभोग के लायक क्रयशक्ति है,वे लाइलाज बीमारियों के चलते मानसिक रूप से तनावग्रस्त हैं और जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं,उनका मानव विकास की दौड़ में पिछड़ना तो स्वाभाविक है ही। इन पहलुओं पर विचार करते हुए हमारे नीति-निर्माताओं को जरूरत है कि वे समतावादी विकास की अवधारणा को अमल में लाएं,जिससे उच्च व मध्य वर्ग की समृद्धि में बंटवारा हो,नतीजतन निचले,गरीब और वंचित तबकों की आमदनी में इजाफा हो।

 

 

3 COMMENTS

  1. अगर आपलोग सचमुच भारत के सर्वांगीण विकास में अभिरुचि रखते हैं या आपको हमारे विकास की दिशा में आवश्यक परिवर्तन करने की आवश्यकता महसूस होती है,तो आपलोगों से मेरा निवेदन है कि आपलोग इस आलेख को पढ़िए और अपना बहुमूल्य सुझाव दीजिये.
    मेरा अपना विचार यह है कि हमें अपने विकास की दिशा में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है, नहीं तो हम जी.डी.पी. बढ़ाते हुए भी असली विकास में फिस्सडी हीं रहेंगे.इसके लिए मैं अपनी विभिन्न टिप्पणियों द्वारा सुझाव भी देता रहा हूँ.

  2. क्या यह वही आइना नहीं है,जो मैं बार बार दिखाता रहा हूँ?

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