– पीयूष पंत
मुझे अच्छी तरह याद है साठ के दशक के अंतिम चरण में बंगाल के नक्सलबाड़ी से उठी क्रांति के बिगुल की गूंज 80 के दशक तक सुनाई देती रही। ग़रीब व शोषित किसानों के इस क्रांतिकारी आंदोलन ने अचानक चारू मजूमदार, कानू सान्याल, जंगल संथाल और नागभूषण पटनायक जैसे चमत्कारी जन नेताओं को सामने ला दिया था। आज़ादी के बाद पहली बार। हां, आज़ादी के पहले ज़रूर भगत सिंह ऐसा नाम था जो वाकई जनता का नायक था। बहरहाल, नक्सलबाड़ी के आंदोलन के इन नेताओं की चर्चा घर-घर होने लगी। कुछ इन्हें दहशत की नज़र से देखते तो वहीं कुछ लोग इन जन नेताओं को पूजने लगे। चारू मजूमदार और कानू सान्याल तो सत्तर के दशक के युवाओं के नायक बन गए या ये कहें कि उसी तरह के ‘आइकन’ बन गये जैसे आज की पीढ़ी के लिए सचिन तेंदुलकर और अमिताभ बच्चन हैं। कॉलेज की कैंटीन हो, विश्वविद्यालय का परिसर हो या फिर कॉफी हाउस की गरम-गरम कॉफी और उससे भी ज्यादा गरम बहसें – सभी जगह भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के इन अगुवाओं की ही चर्चा चला करती थी।
नक्सलबाड़ी आंदोलन ने संसदीय लोकतंत्र के ढांचे केतहत महफूस सामंती व्यवस्था के शोषण के खि़लाफ़ किसानों और ग़रीब खेतिहर मज़दूरों द्वारा सशस्त्र संघर्ष की इबारत लिख दी थी। मुद्दा वही था भू-स्वामी से भूमिहीन बना देने का। महंगे उत्पादन संसाधनों के चलते छोटे किसानों को अपनी ज़मीनें बड़े किसानों के पास गिरवी रखनी पड़तीं और बाद में पैसा न चुका पाने पर जमीनें बेच देने पर मजबूर हो जाना पड़ता। इस तरह भूस्वामी से भूमिहीन बना किसान अगर उगाही पर जमीन लेता तो उसे तीन-चौथाई फसल तक की कीमत किराये के तौर पर बड़े किसान को देनी पड़ती।
आज भी आदिवासी इलाक़ों में मुद्दा वही है जमीन का। तब बड़े किसान छोटे किसानों की जमीनों को हथिया रहे थे और तत्कालीन सरकारें कुछ नहीं कर रही थीं। आज खुद सरकारें आदिवासियों और किसानों की जमीनें देशी उद्योग घरानों और विदेशी कंपनियों को भेंट देने के लिए छीन रही हैं। अगर कोई उन्हें इस जुल्म से बचाकर उनकी अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित कर रहा है तो वे हैं धुर-वामपंथी विचारधारा को मानने वाले पढ़े-लिखे लोग। आज ज्य़ादातर इन्हें माओवादी कहा जाता है, तब उन्हें नक्सली कह कर ज्य़ादा बुलाया जाता था।इस विचारधारा का विश्वास माओत्से तुंग द्वारा प्रतिपादित ‘जनयुद्ध’ में है। माओवादी संसदीय लोकतंत्र के रास्ते को भटकाव मानते हैं। देखा जाये तो भारत के संसदीय लोकतंत्र के पिछले 62 सालों के अनुभव से भी यह साफ हो जाता है कि इस दौरान जहां किसानों, मजदूरों की हालत बदतर हुई है, वहीं राजनेताओं और पूंजीपतियों के बैंक बैंलेंस दिन दूनी रात चौगुनी रतार से बढ़े हैं।
ऐसे में पीड़ित व शोषित जनता के पास विकल्प क्या बचता है? वैसे भी 62 वर्षों तक संसदीय लोकतंत्र में गहन आस्था रखने और चुनाव सरीखी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी कर के भी उन्हें हासिल क्या हुआ है? जलालत, भुखमरी, अपने जल-जंगल-जमीन से बेदखली!
स्वतंत्रता से पहले एक एक चौथाई लोग व्यवस्था परिवर्तन चाहते थे जिन्हें लोग क्रन्तिकारी कहते थे. साथ सत्तर के दशक मैं दस प्रतिशत लोग व्यस्था या सत्ता परिवर्तन चाहते थे जिन्हें लोग नक्सल वादी कहते थे और आज हजार मैं एक व्यक्ति (लगभग ०.एक प्रतिशत से भी कम) अव्यवस्था, आतंक, गरीबी भुखमरी के खिलाफ लिखते बोलते है उन्हें लोग पागल कहते है. आज लोगो की विचारधाराएँ धारानाये सोच, अभिव्यक्ति और नजरिया बदल गया है या कहे बदलवाया गया है जिसमे हमारी शिक्षा व्यवस्था का बहुत बड़ा हाथ है.