-संजय पराते-
छत्तीसगढ़ के मीडिया जगत में शुभ्रांशु चौधरी एक जाना-पहचाना नाम है। खासतौर से आदिवासी क्षेत्रों और दण्डकारण्य (बस्तर) से संबंधित रिपोर्टिंग के लिए। एक निर्भीक पत्रकार के रुप में उन्होंने यहां के अंदरूनी इलाकों के कई दौरे किये हैं, माओवादी नेताओं और ग्रामीण आदिवासियों से बातचीत की है और यह सब करते हुए वे हमेशा पुलिस प्रशासन के निशाने पर रहे हैं। हालांकि लिंगा कोड़ोपी की गति को वे प्राप्त नहीं हुए हैं। एक सजग पत्रकार के रुप में उन्होंने चौकन्नी दृष्टि से इन क्षेत्रों की स्थितियों का अध्ययन किया है और इस अध्ययन के निश्कर्शों से उन्होंने किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया। वर्तमान मीडिया जिसका शिकार है। ताड़मेटला गांव के प्रकरण को, जिसमें सलवा जुडूम समर्थकों ने तीन सौ से अधिक घर जला दिये थे, हत्यायें और बलात्कार किये थे, उन्होंने ही उजागर किया था। काफी शोर-शराबे और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद अब सीबीआई इस मामले की जांच कर रही है।
दण्डकारण्य के आदिवासियों के लिए समर्पित ‘लेट्स कॉल हिम वासु’ का अनुवाद उनकी पत्नी स्मिता चौधरी ने हिन्दी में ‘उसका नाम वासु नहीं’ के नाम से किया है। ‘पेंगुइन बुक्स’ द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक को उपन्यास की रोचकता के साथ पढ़ा जा सकता है और माओवादी दुनिया का कुछ हद तक साक्षात्कार किया जा सकता है।
पिछले वर्ष दिसम्बर में इस पुस्तक का अंग्रेजी व हिन्दी संस्करण प्रकाशित हुआ था। प्रकाशन पूर्व ही यह पुस्तक विवादों के घेरे में आ गयी थी। नक्सलियों से बातचीत के जरिये शुभ्रांशु ने विनायक सेन का संबंध माओवादियों के साथ बताने की कोशिश की है। यह एक ऐसा राजनैतिक तथ्य है, जो मुझ जैसे राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए बहुत ही जाना-पहचाना है। शुभ्रांशु का शहरी संपर्क अनिल उन्हें बताता है, ‘‘ मैं यह तो नहीं कहूंगा कि विनायक दा (इस शब्द में नक्सलियों का पूरा सम्मान विनायक सेन के लिए झलकता है) पार्टी के लिए काम करते थे। लेकिन हां, जीत गुहा नियोगी जरूर सदस्य थे। जीत संभवतः पार्टी में काफी ऊंचे पद पर थे- एरिया कमेटी सदस्य। मेरी समझ से जीत और मुक्ति ने पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है।’’ इस प्रकार विनायक सेन के साथ ही शंकर गुहा नियोगी के पुत्र-पुत्री जीत व मुक्ति भी ‘कुछ हां, कुछ ना’ के रुप में नक्सली कनेक्षन के रुप में सामने आते हैं। अनिल के अनुसार उड़ीसा के शीर्ष माओवादी नेता सव्यसाची पांडा ने विनायक सेन को नारायण सान्याल की जमानत के लिए पैसे भिजवाये थे। वैसे सव्यसाची पांडा अब माओवादी पार्टी छोड़ चुके हैं।
कुछ तथ्य ऐसे होते हैं, जो बहुत ही जाने-पहचाने होते हैं, लेकिन सबूतों की नींव पर स्थापित करना कठिन होता हैं। विनायक सेन या शंकर गुहा नियोगी की नक्सलवादियों/माओवादियों से हमदर्दी किसी से छिपी हुयी नहीं है। ये ठीक वैसा ही तथ्य है, जैसा कि यह तथ्य कि आज बस्तर के बहुत से अधिकारियों, ठेकेदारों व राजनेताओं से माओवादी ‘चौथ’ वसूल करते हैं। ‘एस्सार’ से पैसे वसूलने की बात तो माओवादियों ने शुभ्रांशु से स्वीकार ही की है। बहरहाल, इन अपुष्ट संबंधों के आधार पर विनायक सेन पर जनसुरक्षा कानून, जो निश्चित ही एक दमनकारी कानून है, लगाया गया। उन्हें आजीवन कारावास की सजा हुई है और सुप्रीम कोर्ट से जमानत पाकर हाईकोर्ट में वे केस लड़ रहे हैं। विनायक सेन की अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के साथ संपर्कों को देखते हुए ऐसे अपुष्ट तथ्यों पर विवाद तो उठना ही था, लेकिन इसी विवाद ने शायद इस पुस्तक को जनचर्चा में ला दिया।
इस किताब के बारे में माओवादियों की राय ‘‘ यह किताब ढेर सारे झूठों, बहुत से अर्धसत्यों और थोड़े-बहुत तथ्यों का पुलिंदा भर है। तथ्यों को भी उन्होंने काफी हद तक तोड़-मरोड़कर ही पेश किया है। उसमें दिये गये कई अंष सफेद झूठ तो है हीं, खासकर डॉक्टर विनायक सेन प्रकरण पर, जीत और मुक्ति के साथ हमारी पार्टी के कथित संबंधों के बारे में और एस्सार कम्पनी से पैसा लेने के मामले में- इन तीनों मुद्दों पर उन्होंने जो कुछ लिखा, उनका हमारी कमेटी कड़े शब्दों में खंडन करती है। हमें लगता है कि इस तरह वही आदमी लिख सकता है, जो जनवादी और क्रांतिकारी आंदोलनों को और उन आंदोलनों के शुभचिंतकों को नुकसान पहुंचाना चाहता है, जो उन आंदोलनों का दमन कर रही राजसत्ता के पक्ष में खड़ा रहना चाहता हो।’’ (गुड्सा उसेंडी की प्रेस विज्ञप्ति), तो गुड्सा उसेंडी भी दबी जुबान से ही सही, यह स्वीकार कर रहे हैं कि विनायक सेन, जीत व मुक्ति गुहा नियोगी व एस्सार आदि- नक्सलवादी आंदोलन के ‘षुभचिंतक’ हैं, जिन्हें किसी भी प्रकार से नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिये। विनायक सेन पीयूसीएल से जुड़े हैं और जहां तक मेरी जानकारी है, पीयूसीएल के नक्सल-झुकाव के कारण ही माकपा कार्यकर्ता इस संगठन से अलग हुए थे।
पूरी पुस्तक विभिन्न नक्सली नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत पर आधारित है। चूंकि यह बातचीत एक अंडरग्राउण्ड आंदोलन की कहानी कहती है, इस बातचीत से उभरे तथ्यों की संपूर्ण पुष्टि संभव नहीं है। पुस्तक पढ़कर कुछ कहानियों को आप ‘गप्प’ मान सकते हैं, कुछ तथ्यों को ‘अतिशयोक्तिपूर्ण’, तो कुछ वार्तालापों को ‘मनगढ़ंत’– लेकिन इन्हीं सबसे मिलकर ‘उपन्यास-की-सी रोचकता’ का निर्माण होता है और आप पूरी पुस्तक को एक बार में ही गल्प की तरह पढ़ सकते हैं। जो लोग राजनीति से जुड़े हैं और आदिवासियों की वर्तमान जीवन-स्थितियों के प्रति जागरुक हैं, वे शुभ्रांशु से बहुत हद तक सहमत हो सकते हैं। लेकिन जो लोग राजनीति से दूर हैं और माओेवाद-नक्सलवाद को एक उत्सुकता भरी नजरों से ही देखते हैं, वे लोग भी षुभ्रांषु के साथ ‘‘ ‘नक्सल समस्या’ की वजहों को समझने का प्रयत्न कर सकते हैं।’’
एक असमान युद्ध
कुछ चीजें आकाश की तरह साफ हैं। एनएमडीसी बैलाडीला से 6500 करोड़ रुपये से अधिक का कर-पूर्व मुनाफा हर साल कमाती है। 1968-69 में सरकार हर दिन बैलाडीला से 1.60 करोड़ रुपये कमाती थी- सालाना 584 करोड़ रुपये। लेकिन तब के मध्यप्रदेश के संयुक्त बस्तर जैसे बड़े जिले पर सिंचाई में खर्च किया जाता था मात्र 28 लाख रुपये! एनएमडीसी के विकास ने बैलाडीला क्षेत्र के आदिवासी गांवों को बिजली-सड़क-स्कूल या अस्पताल तो नहीं दिया, लेकिन उनकी स्वच्छ नदियों को ‘लाल नदियों’ में जरुर बदल दिया। 1970 में नेशनल लेबर इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन से पता चला कि पानी के प्रदूषण के साथ ही कृषि के नुकसान के कारण भुखमरी का खतरा भी बढ़ गया है और प्रति व्यक्ति धान और कोदो का उपयोग पूर्वापेक्षा एक तिहाई ही रह गया है, (रामशरण जोशी का अध्ययन)। इस प्रकार आदिवासियों का समूचा सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन ही खतरे में पड़ गया है। बैलाडीला के उस पार के आदिवासियों के लिए इस पार के एनएमडीसी के विकास में सहभागिता आज भी वर्जित है।
तो यह प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने का खेल चल रहा है, जो केवल आदिवासियों के पास ही है और वे इसे ‘इस पार’ के लोगों को देने के लिए तैयार नहीं हैं। इसीलिए इंद्रावती के इस पार के लोगों के लिए नदी के उस पार का इलाका ‘पाकिस्तान’ है- दुश्मनों का इलाका। इस दुश्मन को खदेड़ने के लिए हर तरह की जंग जायज है। फौज-फाटे और हथियारों से लैस इस पार की प्रभुत्वशाली ताकतें उस पार के लोगों के गांव-घर जला रही है, हत्यायें और बलात्कार कर रही हैं और हवाई हमलों की योजनायें भी बनाती रहती हैं। इस पार का विकास उस पार के लोगों के विनाष व विस्थापन की कहानी है। इस पार का विकास उस पार के लोगों की बलि चढ़ाता है। इस असमान युद्ध में आदिवासियों के पास केवल तीर-धनुश है। यह युद्ध क्या ऐतिहासिक आर्य-अनार्य युद्ध की याद नहीं दिलाता? लेकिन क्या आर्य हमेशा विजयी होंगे और अनार्य पराजित? क्या यही नियति है??
एक असमान युद्ध होने के बावजूद उस पार की नियति निश्चित नहीं है, क्योंकि समाज बहुत आगे बढ़ चुका है, अपनी दासता और सामंती बेड़ियों को तोड़कर। पूंजीवाद साम्राज्यवाद से भी आगे निकल रहा हैं तो अनार्यों के बीच एक ‘माओवाद’ आ बैठा है। यह ‘माओवाद’ पूंजीवाद के उन्हीं पहरुओं से हथियार छीनकर अपने को सषस्त्र कर रहा है, जो पूंजीवाद की रक्षा और अनार्यों (आदिवासियों) के दमन के लिए लगाये गये हैं। बस्तर के चालीस प्रतिशत हिस्से में उनकी तूती बोलती है और वे ‘देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा’ हैं।
दण्डकारण्य में विस्तार
दण्डकारण्य मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र व उड़ीसा के सीमावर्ती जंगलों से मिलकर बनता है जो एक लाख वर्ग किलोमीटर का विशाल वन क्षेत्र है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से नक्सलवादियों के अलग होने और नक्सलबाड़ी आंदोलन के पराभव के बाद नक्सलवाद कई गुटों में बंट गया। इन गुटों का विलय और पुनः विभाजन इतिहास के स्थापित तथ्य हैं। आठवें दषक में आंध्र में कोंडापल्ली सीतारमैया के नेतृत्व में सीपीआई (एमएल)-क्रांति कार्य कर रही थी जिसे आपातकाल के बाद के दौर में बहुत से झटके सहन करने पड़े। अतः दण्डकारण्य का चुनाव सुरक्षित क्षेत्र के रुप में किया गया था, जहां नक्सलवादी पनाह ले सकें। स्पश्ट है कि नक्सलवादियों का दण्डकारण्य में आगमन आदिवासियों की मुक्ति के उद्देश्य से नहीं हुआ था।
वर्श 1980 में सात-सात लोगों के सात दलों को के एस ने प्रषिक्षित करके दण्डकारण्य भेजा- बकौल कोसा वाया षुभ्रांषु- ‘‘तीन दल वारंगल से चले, दो करीमनगर से और दो आदिलाबाद से।’’ (पृष्ठ 88). भोपालपटनम से उन्होंने बस्तर में प्रवेश किया, जैसा कि 1795 में ब्रिटिष कप्तान ब्लंट ने यहीं से बस्तर में घुसने की असफल कोषिष की थी। तब गोंडों ने उन्हें मार भगाया था। ब्लंट असफल हुए, लेकिन नक्सलवादी सफल रहे। कोसा को छोड़ इनमें से सभी या तो मारे गये या गिरफ्तार हुये। उन्होंने इन राज्यों के सीमावर्ती गांवों से काम शुरू किया और पुलिस से बचने/पुलिस को छकाने राज्यों की सीमा पार आवाजाही करते रहे। वर्ष 1981 में उन्होंने बस्तर में सशस्त्र कैंप किया जिसमें एक भूतपूर्व सैनिक ने ट्रेनिंग दी। माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी), सीपीआई (एमएल)-पार्टी यूनिटी, बिहार व तमिलनाडु से भी एक-एक व्यक्ति ने इसमें हिस्सा लिया। इस प्रकार पीपुल्स वार ने अन्य माओवादी गुटों/दलों के साथ भी संबंध स्थापित किये। इसी वर्श उन्होंने तेंदूपत्ता संग्रहण की दरों को बढ़वाने में सफलता पाई और आदिवासियों का विश्वास जीता। वन विभाग के कर्मचारियों द्वारा आदिवासियों के दमन व षोशण को उन्होंने मुद्दा बनाया। वर्श 1982 में किष्टाराम में एक जन-अदालत में पहली बार एक फॉरेस्ट रेंजर श्रीवास्तव को पीटा गया। वर्श 1987 में लिट्टे के एक सदस्य ने उन्हें पहला व्यवस्थित सैन्य प्रषिक्षण दिया, जिसमें गणपति व रामजी सहित चालीस नेता शामिल हुये। यहीं उन्होंने एम्बुष व लैंडमाइन के बारे में जाना। गणपति बाद में केएस के बाद महासचिव बने। उन्हीं के नेतृत्व में मार्च 1991 में बस्तर प्लेनम हुआ, जिसमें राज्य पर हमला करने का निर्णय लिया गया। इस निर्णय के बाद 21 मई, 1991 को कांकेर में पहली बार बारुदी सुरंग का प्रयोग किया गया, जिसका प्रचार उसी दिन राजीव गांधी की हत्या के कारण दब गया। इसी समय तब के बस्तर के एसपी विष्वरंजन के नेतृत्व में जन जागरण अभियान आरंभ हुआ। कांग्रेस, भाजपा और सीपीआई- तीनों इसमें षामिल हुये। इसका सबसे ज्यादा नुकसान सीपीआई को उठाना पड़ा। बस्तर प्लेनम नक्सलियों के लिये टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। जन जागरण में पुलिस की जोर-जबरदस्ती ने आदिवासियों को नक्सलवादियों की ओर धकेल दिया। 1991 में उनके पास 40 पूर्णकालिक कार्यकर्ता थे। इस अभियान के बाद वे 80 हो गये। वर्श 2000 तक उनकी संख्या बढ़कर 800 हो गयी। 1996 में महेन्द्र कर्मा के नेतृत्व में एक बार फिर जन जागरण अभियान षुरू हुआ जो कि कुछ हफ्तों बाद ही फिर बैठ गया, लेकिन नक्सलियों की ताकत बढ़ गयी और उन्होंने पचास से अधिक गांवों में ‘जनताना सरकार’ स्थापित कर दी। वर्श 2004 में पीपुल्स वार और एमसीसी के विलय से सीपीआई (माओवादी) की स्थापना हुयी। इस विलय से बस्तर में माओवादियों की ताकत और बढ़ गयी और आज दण्डकारण्य में माओवादियों की दस सषस्त्र डिवीजनें काम कर रही हैं।
वर्श 2004 में ही माओवादियों ने अपनी सांस्कृतिक इकाई गठित की, जिसमें आज 6-7 हजार कार्यकर्ता हैं। इन्होंने तीन वर्षों में ही 350 से अधिक गीत व कवितायें तैयार किये हैं। वर्ष 2007 में माओवादियों की नवीं कांग्रेस हुयी जिसमें उन्होंने विस्थापन और आदिवासी अस्मिता के मुद्दे पर जन आंदोलन खड़ा करने का निर्णय लिया। (अध्याय 4,5,6)
सलवा जुडूम
माओवादियों के इस निर्णय का वर्ष 2005 के सलवा जुडूम से सीधा संबंध है, हालांकि शुभ्रांशु का शोध कहता है कि सलवा जुडूम का आरंभ 2003 में ही हो गया था। इसकी योजना भी तभी बनी थी, जब लालकृश्ण आडवाणी गृहमंत्री के पद पर थे। यह एक कठोर सच्चाई है कि उदारीकरणजनित प्राकृतिक संपदा की लूट को आसान बनाने के लिए छत्तीसगढ़ राज्य को जन्म दिया गया था। अब जरूरी था कि आदिवासियों को उनकी भूमि से विस्थापित किया जाये। इसके लिए उन्हें माओवोदी या माओवादी समर्थक बताकर उन्हें खदेड़ना ज्यादा आसान था। नक्सल विरोधियों ने 19 जून, 2005 को और फिर महेन्द्र कर्मा व बीजापुर एसपी डी.एल. मनहर के नेतृत्व में 1 जुलाई को कोतरापाल नामक गांव पर हमला किया, घरों को आग लगाई गयी व लोगों की हत्यायें की गयीं। (बाद में हत्यारे मनहर की पदोन्नति राज्य मानवाधिकार आयोग(!) में हो गई, ठीक वैसे ही जैसे सोनी सोरी के यौनांगों में पत्थर भरने वाले अधिकारी को राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाजा गया!!) जुलाई, 2005 में नागा बटालियनें बुलायी गयीं और अगस्त में ‘ऑपरेषन ग्रीन हंट’ षुरु हुआ। इसके बाद की कहानी दोनों ओर से हिंसा और प्रतिहिंसा, हमलों और प्रति हमलों, आरोप और प्रत्यारोपों की कहानी है। सैंकड़ों गांवों पर हमले हुये, सैंकड़ों गांव जलाये गये, हजारों घरों को आग लगायी गयी, लगभग हजार लोग मार डाले गये और दर्जनों आदिवासी महिलायें बलात्कार का षिकार हुयीं। कुल मिलाकर 60 हजार लोग विस्थापित हुये और सैंकड़ों गांव खाली। हजारों को अपनी आजीविका से हाथ धोना पड़ा। बकौल षुभ्रांषु–‘‘षिक्षा, स्वास्थ्य और सस्ता राषन सब कुछ एक हथियार की तरह इस्तेमाल हुआ।’’ (पृश्ठ 143) उनके अनुसार-‘‘दंतेवाड़ा और बीजापुर जिलों की आबादी 7 लाख के आसपास थी। सलवा जुडूम षिविरों में सरकारी दावों के अनुसार अधिक से अधिक 57 हजार लोग रहते थे, जो कि इस आबादी का 10 प्रतिषत से कम हिस्सा है। लेकिन 90 प्रतिषत राषन का सामान कैम्पों में भेजा जा रहा है। (कोंटा ब्लॉक में) तो 85 प्रतिशत से अधिक दुकानें बंद कर दी गयीं। कुल 5100 क्ंिवटल अनाज सेंक्षन हुआ जिसमें से 4500 क्ंिवटल (85 प्रतिषत) कैम्पों में भेज दिया गया।कोंटा ब्लॉक में सलवा जुडूम षुरू होने के बाद 338 विद्यालय बंद कर दिये गये।’’ स्पष्ट है कि ये सरकारी कैंप आदिवासियों की दैन्यता, लाचारगी, बदहाली के प्रतीक तो बने ही, भ्रष्टाचार के सबसे बड़े अड्डों में भी तब्दील हो गये। जिन सरकारों का ये संवैधानिक कर्तव्य होता है कि नागरिकों को उनके घर-गांव में सुरक्षा दें, उस सरकार ने दक्षिण बस्तर के आदिवासियों को बेघर बार करने का काम किया, उनकी निर्मम हत्याओं में अपना ‘योगदान’ दिया। इस आदिवासी विरोधी कुकृत्य का ही फल है कि वर्श 2011 की जनगणना में छत्तीसगढ़ में बस्तर में आदिवासियों की संख्या में सवा प्रतिषत की गिरावट दर्ज की गयी है। हजारों आदिवासी आज भी लापता हैं। सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका में सलवा जुडूम पर ‘‘548 हत्याओं व 99 बलात्कारों’’ का आरोप लगाया गया है, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का दल उन्हीं एसपीओ के साथ गांवों में जाता है, जिन्होंने आदिवासी लड़कियों के साथ बलात्कार किया था। तो सलवा जुडूम अत्याचारों की निश्पक्ष जांच आज भी संभव नहीं है। बीज पंडुम के त्यौहार पर सारकेगुड़ा गांव में एकत्रित लोगों का नक्सलवादी कहकर फर्जी मुठभेड़ में एक साल पहले जनसंहार किया गया, इस साल 17 मई को एड़समेटा में ही यही घटना दोहराई गयी। पहले की घटना की न्यायिक जांच आज भी चल रही है, उसी जज को ही इस मुठभेड़ की जांच भी थमा दी गयी है। ऐसी जांचें अनंत काल तक चलती हैं और नतीजा कुछ खास नहीं आता। षुभ्रांषु अपनी इस उपन्यासनुमा पुस्तक के जरिये राज्य प्रायोजित सलवा जुडूम की भयावहता को पूरी षिद्दत के साथ पेष करने में सफल रहे हैं। वे इसके पहले भी रायपुर के सांध्य दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ में अपने स्तंभ ‘बासी मा उफान’ के जरिये इन घटनाओं की सच्चाई सामने लाते रहे हैं। कहा जाता है कि तत्कालीन डीजीपी विश्वरंजन के दबाव में इस स्तंभ को संपादक ने बंद किया था। माओवादियों के कठिन वन्य जीवन व उसकी चुनौतियों को भी उन्होंने सही तरीके से प्रस्तुत किया है। लेकिन क्या यह कठिन जीवन क्रांति की सफलता का प्रतीक है?
माओवादी दुनिया की पड़ताल
षुभ्रांषु के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षण माओवादी पार्टी के महासचिव गणपति से मिलना रहा होगा। 1998 में नारायण सान्याल की पार्टी यूनिटी के साथ और फिर 2004 में एमसीसी के साथ विलय के बाद माओवादी पार्टी की सांगठनिक ताकत और प्रभाव क्षेत्र में काफी इजाफा हुआ, तो गणपति की इसमें विषेश भूमिका थी। वे माओवादी पार्टी की रणनीति और कार्यनीति के मुख्य निर्धारक हैं। उनसे साक्षात्कार पर शुभ्रांशु की टिप्पणी है–‘‘मुझे क्या मालूम था कि आने वाले दिन मेरी यात्रा का सबसे निराशाजनक समय होगा। उन्होंने पूरा समय दिया। लेकिन काफी कुरेदने के बावजूद गणपति ने मेरे लगभग किसी भी प्रष्न का उत्तर नहीं दिया। उनसे कुछ भी सच जैसा बुलवाने की मेरी कोशिश व्यर्थ रही। वे सच्चे राजनेता हैं और मुझे लगा कि उनके सपने सपने ही रह जायेंगे, अगर वे वास्तविकता से इतनी दूर रहे।’’(पृष्ठ,202-203)
‘माओवादी दुनिया की पड़ताल’ में षुभ्रांषु की सबसे बड़ी असफलता यही है कि वे गणपति से कोई सार्थक बात नहीं कर पाये। वे भी उनसे हुयी बातचीत का विस्तृत ब्यौरा पाठकों को देने से कन्नी काट गये-’’वे सविस्तार बोलते, लेकिन सब कुछ इतनी व्यवहार कुशलता से प्रस्तुत करते कि मैं किसी निर्णय पर पहुंच नहीं पाता।’’ माओवादी व्यवहार शुभ्रांशु की पत्रकारीय कुषलता पर भारी पड़ा। गणपति के बारे में शुभ्रांशु की राय–‘‘ वर्दी में उनकी उम्र कम दिखती थी, लगभग 40 वर्ष, लेकिन मैं जानता था कि वे 60 वर्ष के तो होंगे ही। उनकी आंखें निष्चित रुप से उम्रदराज थीं, मानो सपने देखते थक गयी हों और हताशा के पहले इधर-उधर खोज रही हों कि कुछ मिल जाये।’’ (पृष्ठ 202) लेकिन न गणपति को कुछ मिला, न शुभ्रांशु को, तो फिर पाठकों को ही क्या मिलना था? तीनों के सपने धरे रह गये। माओवादी दुनिया की यही सबसे बड़ी असफलता है। शुभ्रांशु महसूस करते हैं–‘‘वासु की राजनीति लोगों की हत्या करवाती है, यह मुझे ठीक नहीं लगता।’’ (पृश्ठ 218) इसी ‘पड़ताल’ के मद्देनजर शुभ्रांशु के बारे में गुड्सा उसेंडी की टिप्पणी है–‘‘लेकिन अफसोस की बात यह है कि अपनी किताब में माओवादियों के साथ सात साल संपर्क रखने का दावा करने वाले शुभ्रांशु ने हमारे आंदोलन को गहराई से समझने की कभी गंभीर कोषिष की ही नहीं।’’
यह सही है कि शुभ्रांशु माओवादी आंदोलन की दशा-दिशा का कोई आकलन नहीं कर पाये। वे यह बताने में भी असफल रहे हैं कि सैन्यवादी रणनीति पर अति निर्भरता से उन्हें क्या हासिल हुआ या क्या अब माओवादियों के पास कोई सम्यक कार्यनीति है? षुभ्रांषु सात सालों तक नक्सलियों/माओवादियों के सतत् संपर्क में रहे हैं। वे चाहते तो बहुत से असुविधाजनक सवालों से पर्दा उठा सकते थे। मसलन यही कि क्या कारण है कि चुनाव बहिश्कार के बावजूद उनके प्रभाव क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत बढ़ता ही रहा है या क्यों ऐसे आह्वान के बावजूद उनकी पार्टी के अलग-अलग नेताओं का अलग-अलग रुझान रहा है और एक ही चुनाव क्षेत्र में अलग-अलग नेता इस या उस पूंजीवादी पार्टी का साथ देते रहे हैं?
भारत में नक्सली कार्यप्रणाली हमेषा बहस के केन्द्र में रही है। इस बहस में प्रमुखतः तीन प्रवृत्तियां हावी हैंः
1. वर्तमान राजसत्ता, उसकी भ्रष्टाचार में लिप्तता तथा बुनियादी जन समस्याओं को हल करने में उसकी विफलता और जनआंदोलनों के दमन की साक्षी आम जनता का एक बड़ा हिस्सा नक्सलियों की ओर इस आषा से देखता है कि देश की तमाम समस्याओं का हल ‘बंदूक’ में निहित हैं।
2. इस देश की राजनीति में प्रभावशाली गैर-वामपंथी ताकतें नक्सलियों की बर्बर हिंसा की आड़ में, नक्सलियों के कुचलने के नाम पर संगठित वामपंथ के नेतृत्व वाले जन आंदोलनों और उनके कार्यकर्ताओं पर सुनियोजित हमले करती हैं। वे संगठित वामपंथ को ही ‘नक्सलियों’ के रुप में बदनाम कर या नक्सलवाद का जनक बताकर अपने राजनैतिक लक्ष्यों को साधने की कोशिश करते हैं। इसमें कांग्रेस व भाजपा दोनों शामिल हैं।
3. उपरोक्त दोनों प्रवृत्तियों से अलग मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में संगठित वामपंथ का दृष्टिकोण है, जो न केवल नक्सली हिंसा को खारिज करता है, बल्कि यह मानता है कि देश में लोकतंत्र व मेहनतकशों की राजनीति के विकास के लिए नक्सलवाद के रुप में यह अतिवामपंथिता निष्चित रुप से घातक है और इस कारण नक्सलियों के हिंसक कारगुजारियों का राजनैतिक, वैचारिक तथा प्रषासनिक स्तर पर मुकाबला करते हुये, पिछड़े इलाकों में मानव विकास सूचकांक को ऊपर उठाने वाले विकास कार्यों को प्राथमिकता देते हुए उसे आम जनता से अलग-थलग करना जरूरी है।
अंतर्राष्ट्रीय अनुभव व भारतीय माओवादी लेटिन अमेरिकी देशों में अतिवामपंथी आंदोलनों का अनुभव नुकसानदेह रहा है। लेटिन अमेरिकी देशों में आज जो वामपंथी उभार दिख रहा है, वो गुरिल्ला रास्तों से नहीं, बल्कि जन-राजनीति पर आधारित जन आंदोलनों, जन विश्वास और जन संगठनों के निर्माण तथा पूंजीवादी राजनैतिक संस्थाओं के कुषल उपयोग का नतीजा है। नेपाल का अनुभव भी ‘सशस्त्र संघर्ष’ की अवधारणा को ठुकराता है। लेकिन भारतीय माओवादी आज भी अपनी दशकों पुरानी अवधारणाओं से चिपके हुए हैं और भारतीय परिस्थितियों को क्रांति-पूर्व चीन की परिस्थितियों के समकक्ष मानते हुए सशस्त्र क्रांति को ही भारतीय क्रांति का मार्ग मानते हैं। जबकि माओं के इस आंकलन को वे बिल्कुल भुला देते हैं–‘‘(सशस्त्र) संघर्श पर जोर देने का यह मतलब नहीं है कि संघर्ष के अन्य रुपों को छोड़ दें, बल्कि सशस्त्र संघर्ष तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक संघर्श के अन्य रुपों के साथ इसका समन्वय न किया जाये।’’ (माओः चीनी क्रांति और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी)
इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि जहां शुरूआत में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने नक्सली आंदोलन का समर्थन किया था, वहीं बाद में उसने नक्सलियों की इस बात के लिए आलोचना की कि वह जन कार्य और जन संघर्षों की अनदेखी करते हुए राजनैतिक तथा संगठनात्मक मुद्दों का सैन्य रणनीति के साथ घालमेल कर रही है तथा विचारहीन रक्तपात और हत्यायों का आयोजन कर रही है। इस संबंध में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने 1970-71 में एक नोट नक्सल प्रमुख चारू मजुमदार को भी भिजवाया था, लेकिन उन्होंने इस आलोचना को दबा दिया था। बाद में 14 जुलाई, 1972 को अपनी पत्नी को जेल से लिखे पत्र में उन्होंने स्वीकार किया था कि नक्सली आंदोलन में वैयक्तिक हत्या पर जोर देना ‘भटकाव’ था।
भाकपा (माओवादी) का पार्टी कार्यक्रम ‘राजनीतिक सत्ता को सषस्त्र संघर्श द्वारा हथियाने’ को अपना प्रमुख और बुनियादी कार्य मानता है। आज के भारतीय माओवादियों का यह कार्यक्रम अपने पूर्ववर्ती नक्सलियों के कार्यक्रम से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं है। पीडब्ल्यूजी और एमसीसी के विलय से बनी भाकपा (माओवादी) का माओवाद से कुछ भी लेना-देना नहीं है और वह माओ के व्यवहार को विकृत रुप में पेश करती है।
सशस्त्र क्रांति पर आधारित नक्सलियों की गलत रणनीति का नतीजा उनके तथाकथित आधार क्षेत्रों में आदिवासियों को भुगतना पड़ रहा है, जो मासूम और निर्दोष होने के बावजूद नक्सली हिंसा और राजकीय दमन के दो पाटों के बीच पिस रहे हैं। सत्ता केन्द्र पर बैठे लोगों को डराने के लिए वे छोटे कर्मचारियों, छोटे राजनैतिक कार्यकर्ताओं एवं निर्दोश ग्रामीणों को पुलिस मुखबिर बताकर हत्या कर रहे हैं। माओवादी जन अदालतों में आज यही हो रहा है। इस रणनीति का स्पष्ट संदेश है- ‘जो हमारे साथ नहीं है, वे वर्ग षत्रु हैं।’ इस रणनीति से आतंक तो फैल सकता है, क्रांति नहीं हो सकती। बड़े जमींदार, पूंजीपति, खनन माफिया, जंगल ठेकेदार, कार्पोरेट क्षेत्र व पूंजीवादी राजनेता- ये सभी उनके वित्त पोषण का कार्य कर रहे हैं। इस तरह से अति वामपंथ बुर्जुआ पूंजीवादी राजनीति का सहयोगी बन जाता है। माओवादियों का बजट अनुमानतः 50 करोड़ रुपयों से अधिक का है। आम जनता से इसका कितना हिस्सा इकट्ठा होता है? शुभ्रांशु की किताब इस बात का खुलासा नहीं करती कि नक्सलियों के सिद्धांत व व्यवहार के बीच, कथनी-करनी के बीच कितना गहरा अंतर है? दरअसल शुभ्रांशु अपनी लेखन शैली में माओवादियों के पक्ष में झुके ही नजर आते हैं। फिर उनसे ऐसी कठोर छानबीन की अपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसी अपेक्षा कम्युनिस्ट राजनीति को सैद्धांतिक धरातल पर जानने-समझने की जरुरत भी रखती है, जिससे शुभ्रांशु कमोबेश दूर ही हैं। वैसे भी कोई पत्रकार सर्वज्ञानी नहीं होता।
माओवादियों की नजर में अब शुभ्रांशु खलनायक हैं, जो दमनकारी ‘राजसत्ता के पक्ष’ में खड़े हैं। भारतीय माओवादियों की ‘नयी जनवादी क्रांति’ के पास ‘असहमति’ की कोई गुंजाइश नहीं है और जो ‘सहमत नहीं होंगे, मारे जायेंगे!’ (कवि राजेश जोशी से क्षमा याचना सहित) अपनी आधी-अधूरी पड़ताल से ही षुभ्रांषु आज उनके निशाने पर हैं। शुभ्रांशु के इस साहस के लिए ही यह पुस्तक जरुर पढ़ी जानी चाहिए।
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कुछ विदेशी सरकारे अपने राज्यकोष से माओवादीयों को सहयोग करती है, यह भारत में भले स्पस्ट ना दिखाई दे लेकिन नेपाल में हम यह स्पस्ट देख सकते है की स्केंडएवीयन देश माओवादीयों को भरपूर आर्थिक एवं वैचारिक सहयोग करते है. एक अर्थ में आआपा पार्टी का उदय भी उन्ही शक्ति राष्ट्रों ने माओवाद के विकल्प अथवा सहयोगी के रूप में किया है ऐसा स्पस्ट भान होता है.