गणित गजब लेकिन सियासत अजब!

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      वाह रे सियासत तेरा रूप निराला तेरी गणित अजब और सियासत गजब। आजकल उत्तर प्रदेश की धरती पर सियासत का चित्र बड़ी ही सरलता के साथ देखा जा सकता। क्योंकि उत्तर प्रदेश की धरती पर सियासी शंखनाद हो चुका। सभी सियासतदान अपने-अपने हुनर आजमा रहें हैं। क्योंकि सत्ता की चेष्टा और कुर्सी का सुख भला कौन नेता नहीं भोगना चाहेगा बस इसी क्रम में अब नई-नई रूप रेखा गढ़ी जानी आरम्भ हो चुकी है। जिसमें कोई घोषणाएं कर रहा है तो कोई भविष्य की रूप रेखा की योजना का चित्र झोले में टांगकर जनता के बीच घूम रहा है। जिसे जनता भी बड़े ध्यानपूर्वक सभी सियासी फार्मूलों को निहार रही है।

      मजे की बात तो यह कि आज के राजनेता किसी वैज्ञानिक से कम नहीं हैं। क्योंकि वह अनेकों प्रकार की खोज करते रहते हैं। सियासत की प्रयोगशाला में ऐसे-ऐसे वैज्ञानिकों का उदय हो गया है जोकि प्रयोगशाला में बैठकर भरपूर प्रयोग करते हैं। अब यह प्रयोग कितना सफल होगा यह अलग बात है। परन्तु प्रयोगशाला के वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में बनाए गए जादूई मुद्दों को सियासी युद्ध के मैदान में झोंकने के लिए आतुर रहते हैं। तथा मौका पाते ही लपकर झोंक देते हैं। बाकी काम क्षमता पर निर्भर करता है। यदि मुद्दा रूपी उपकरण जोरदार होगा तो वह अपनी क्षमता के अनुसार विरोधियों की रणनीति को धाराशायी करेगा। अन्यथा फुस हो जाएगा।

      मैं प्रयोगशाला शब्द का प्रयोग क्यों कर रहा हूँ यह समझने की जरूरत है। क्योंकि प्रयोगशाला तथा धरातल में आकाश एवं पृथ्वी से भी अधिक दूरी है। प्रयोगशाला में गढ़े गए मुद्दे धरातल पूरी तरह टिक पाएं यह बड़ा सवाल है। क्योंकि सियासत के धरातल तथा प्रयोगशाला की रूप रेखा एक दूसरे के ठीक विपरीत है। क्योंकि वैज्ञानिकीय व्यवस्था जोकि प्रयोगशाला के बंद कमरों की रूप रेखा पर आधारित होती है वहीं सियासत की दुनिया धरालत पर पूरी तरह से आधारित होती है। क्योंकि सियासत का सरोकार आम जनता से सीधा-सीधा होता है। जिसमें जनता के मुद्दें उसकी मूल समस्या से जुड़े होते हैं। अब अगर जनता से मत अपने पक्ष में लेना है तो जनता को अपने ओर आकर्षित करना होगा। अब यह आकर्षण का केन्द्र प्रयोगशाला वाले वैज्ञानिक पर निर्भर करता है वह किन-किन मानकों को आधार मानकर सियासत की रुप रंग एवं आधार को समझ पाया है। क्योंकि सियासत के क्षेत्र में अधिकतर वैज्ञानिक फेल हो जाते हैं। इसका बहुत बड़ा कारण है। इस क्षेत्र का मूल कारण यह है कि इस सियासी ज्ञान की कोई भी थ्योरी लिखित रूप में नहीं होती। न ही किसी प्रकार का कोई फार्मूला निर्धारित होता है जिसके पढ़ लेने से अथवा रट लेने से कोई भी सियासतदान सियासी वैज्ञानिक सफलता की सीढ़ीयों पर चढ़ जाए ऐसा कदापि नहीं है। इसीलिए अधिकतर बंद कमरों वाले लोग सियासत के क्षेत्र में फेल हो जाते हैं।      यदि कोई राजनेता प्रयोगशाला रूपी बंद कमरों से बाहर निकलकर धरातल की पगडंडियों पर गतिमान होता है तो वह जनता के वास्तविक मुद्दों से भलिभाँति अवगत हो पाता है। क्योंकि राजनिति की पुस्तक पढ़कर तथा पॉलिटिकल साईन्स में डिग्री प्राप्त कर लेने से कोई भी राजनेता नहीं बन सकता। यह सत्य है। राजनीति में यदि सफल होना है तो बंद कमरों से बाहर निकलना होगा। बड़ी-बड़ी गाड़ियों से नीचे उतरना होगा। संकरी गलियों की ओर गतिमान होना पड़ेगा। क्योंकि सत्ता की चमक-धमक एवं चकाचौंध का रास्ता उन बंद गलियों से हो करके ही गुजरता है जहाँ तक गाड़ियों की पहुँच संभव ही नहीं है। सत्ता की ऊँची कुर्सी का पैर गरीब-वंचित तथा मजदूर वर्ग पर ही टिका होता है जहाँ तक प्रयोगशाला रूपी राजनेता सीधे नहीं पहुँच पाते।

      उत्तर प्रदेश के चुनाव में एक नया मुद्दा बहुत ही चरम पर इस बार नजर आने वाला है वह यह कि इस बार कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में महिलाओं को टिकट प्रदान करने में 40 प्रतिशत की भागीदारी का खाका तैयार किया है। अब देखना यह है कि क्या यह खाका कुछ रंग रूप दिखाएगा अथवा एक सगूफा ही साबित होगा। यह तो समय ही बताएगा कि उत्तर प्रदेश की जनता इस फार्मूले को किस प्रकार से लेती है। क्योंकि यह उत्तर प्रदेश है। यहाँ कि राजनीति दूसरे प्रदेशों की राजनीति से पूरी तरह से भिन्न है। क्योंकि महिला समर्थन की रूप रेखा बिहार की धरती पर नितीश कुमार ने भी अपनाई थी जोकि शराब बंदी के रूप में थी जोकि सफल रही। बिहार की राजनीति में महिला मतदाता को साधने के लिए नितीश कुमार ने महिला मतदाता कार्ड खेला था। उसके बाद बंगाल की धरती पर भी यह कार्ड खेला गया। जिसमें तृणमूल तथा भाजपा के बीच महिला मतदाता को साधने का प्रयास किया गया जिसकी रस्साकशी बंगाल चुनाव में खूब देखने को मिली। जिसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा बंगाल की धरती पर नंबर दो कि पार्टी बनने मे कामयाब रही और तृणमूल कांग्रेस सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने में सफल रही। परन्तु बिहार तथा बंगाल से उत्तर प्रदेश का वातावरण पूरी तरह से भिन्न है।

      उत्तर प्रदेश की राजनीति को यदि बारीक नजरों से समझने एवं परखने का प्रयास किया जाए तो कई  चित्र उभर कर सामने आते हैं। जोकि अन्य राज्यों से उत्तर प्रदेश को अलग करते हुए दिखाई देते हैं। खास करके उत्तर प्रदेश का चुनाव जाति आधारित धुरी पर होने की आशंका बहुत अधिक होती है क्योंकि राजनेताओं के द्वारा इस प्रकार से मुद्दों को गढ़ कर तैयार किया जाता है जिससे कि चुनाव जातीय धुरी पर जाकर टिक जाता है। खास करके जब कि इस बार का चुनाव तो और नए प्रयोग से गुजरेगा तो इस बार महिला मतदाता क्या अपने आपको को इस ज्वलन्त वातावरण से अलग कर पाएंगी…? यह बड़ा सवाल है।

      क्योंकि जातीय धुरी पर आधारित चुनाव से महिलाओं का अलग क्षेत्र में जाकर मतदान करना अपने आपमें किसी बड़े बदलाव से कम नहीं होगा। जोकि एक नए संघर्ष का रूप होगा। तो क्या महिला मतदाता अपने परिवारिक पुरुष से इतर जाकर अपनी अलग राय एवं पहचान बना पाएंगी…? यह बड़ा सवाल है। क्योंकि उत्तर प्रदेश की सियासी हकीकत यह है कि यह प्रदेश अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र है। अन्य प्रदेश के अनुपात में यहाँ कि महिलाएं अपने आपको पुरुषों से अलग नहीं ले जाती। यह किसी से भी छिपा हुआ नहीं है।

      दूसरा बिन्दु यह है कि जब चुनाव जातीय आधार पर आधारित हो जाएगा जोकि नेताओं के द्वारा गढ़कर तैयार किया जाएगा जिसमें सियासी हवाएं गर्म की जाएंगी। यह किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। खास करके उत्तर प्रदेश के राजनेता इसमें खूब माहिर हैं। तो क्या उस गर्म हवाओं से महिला मतदाता अपने आपको अलग रख पाने की क्षमता में होगी…? यह भी एक बड़ा सवाल होगा जोकि आने वाले समय में दिखाई देगा।

      तीसरा बिन्दु यह है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में अधिकतर महिला फिर चाहे वह प्रत्यासी हो अथवा मतदाता अपने आपसे अकेले स्वतन्त्र रूप से फैसला कितना ले पाती है यह भी किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। जब इस प्रकार की रूप रेखा जिस प्रदेश की होगी वहाँ पर महिला प्रत्यासी अधिक मात्रा में उतारकर क्या कोई बड़ा बदलाव हो पाएगा इसके ठोस दृश्य नहीं दिखाई देते। क्योंकि जब तक महिला अपने आपमें डिसीजन मेकर न हो तब तक सियासत की दुनिया में यह कह पाना अपने आपमें पूरी तरह से सही नही होगा।

      अर्थात कांग्रेस का यह चुनावी दाँव कि महिला प्रत्यासियों को इस बार 40 प्रतिशत की साझेदारी दी जाएगी यह एक नया प्रयोग होगा। क्योंकि उत्तर प्रदेश का चुनावी वातावरण इस दिशा में चलता हुआ नहीं दिखाई दे रहा। अभी चुनाव तो दूर है जोकि आने वाले नए वर्ष में होगा लेकिन उसकी बानगी अभी से दिखाई देने लगी है। जिस चुनाव में जिन्ना और जैम जैसे मुद्दे सियासी बोतल से बाहर खींचकर लाए जाएंगे तो उस चुनाव की रूप रेखा को समझ लेना चाहिए। प्रदेश के राजनेता इस चुनाव को किस क्षेत्र में ले जाना चाहते हैं। यह पूरी तरह से साफ है। इसलिए कांग्रेस के द्वारा यह दाँव जोकि महिला उम्मीदवार को 40 प्रतिशत की भागीदारी के रूप में लेकर आना यह अपने आपमें एक प्रयोगशाला वाला मुद्दा दिखाई दे रहा है न कि धरातल पर स्थापित होने वाला मुद्दा। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस ने एक नई और अच्छी शुरुआत की है जिसकी उत्तर प्रदेश की धरती को जरूरत है। लेकिन फिलहाल यह मुद्दा आने वाले चुनाव में जमीन पर टिकता हुआ नहीं दिखाई दे रहा। क्योंकि चुनाव का दृश्य स्पष्ट रुप से दिखाई दे रहा है।

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