मूर्तियाँ ढकने से माया मजबूत ही होगी

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 विनायक शर्मा

आचार्य रजनीश “ओशो” की किसी पुस्तक में बताया गया है कि मानव के स्वभाव के साथ उत्सुकता जुडी हुई है। इसलिए जिसको जितना दबाओगे या छुपाओगे उसकी ओर उत्सुकता उतनी ही बढती जायेगी। किसी चौराहे पर यदि चारों ओर से पर्दा लगा कर यह लिख दिया जाये कि ” इसके अन्दर एक चित्र है, जिसको देखना मना है “। तो आप-पास रहने वाले सभी जन चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, नौजवान हों या वृद्ध, उसको देखने का प्रयत्न अवश्य ही करेंगे, कोई दिन में मौका ढूँढेगा झांकने का तो कोई अंधेरी रात में आकर झांकने का प्रयास करेगा। और तो और तमाम शहर में उसकी चर्चा होगी। इसी प्रकार हाथियों और मायावती की मूर्तियों को ढकने से मायावती और उनकी पार्टी को और अधिक प्रचार मिलेगा चुनाव में, पता नहीं किस दल की शिकायत पर चुनाव आयोग ने यह फैसला दिया है। नीति कहती है कि हटा सकते हो तो हटा दो अन्यथा पूर्णतया अनदेखा कर दो। ऐसी ही नीति अपनाते हुए कांग्रेस की आंख की किरकरी बन गये दिल्ली के कनाटप्लेस के मध्य में चल रहे एक प्रसिद्द काफी हॉउस को आपातकाल में उखाड़ कर वहाँ एक बड़ा सा फौवारा बना दिया गया था। आज लोग उस काफी हॉउस को भूल चुके हैं। हाँ, हमारे जैसे लोग जिन्होंने २३ पैसे की कॉफी वहाँ पी है अवश्य ही उसे याद करते हैं।

कई दिनों से चल रही चर्चा पर मुख्य चुनाव आयुक्त ने अंततः पटाक्षेप करते हुए उत्तर प्रदेश में उद्यानों और चौराहों पर मायावती की सरकार द्वारा स्थापित की गई हाथियों और मायावती की मूर्तियों को ढकने के आदेश जारी कर ही दिए। चुनाव आयोग के इस आदेश का भाजपा, कांग्रेस, सपा और कई अन्य दलों ने स्वागत किया है। ४ फरवरी से २८ फरवरी तक ७ चरणों में संपन्न होने जा रहे प्रदेश के चौकोने चुनावी संघर्ष में सभी दल चौतरफा मार झेल रहे है, तो ऐसे माहोल में चुनाव आयोग के इस फैसले पर अन्य दलों के प्रसन्नता का प्रकटीकरण स्वाभाविक ही है। चुनाव आयोग के इस निर्णय के औचित्य पर सवाल खड़े करना हमारा काम तो नहीं है, परन्तु बहुजन समाज के नेता सतीश चन्द्र मिश्रा महामंत्री द्वारा इस फैसले के विरोद्ध में दी गई प्रतिक्रिया पर चर्चा तो अवश्य ही की जा सकती है। बसपा के मिश्रा का यह कथन कि दलों के चुनाव चिन्ह व नेताओं के इस प्रकार के प्रतीकात्मक चिन्ह तो सभी स्थानों पर मिल जायेंगे, तो क्या उन्हें भी तोडा या ढका जायेगा ? उन्होंने भाजपा, सपा व कांग्रेस के चुनाव चिन्हों का नाम लेते हुए चुनाव आयोग से पूछा कि क्या यह चिन्ह व मूर्तियाँ भी तोडी या ढकी जायेंगी ? निष्पक्ष रूप से यदि गौर किया जाये तो किसी हद तक बसपा के विरोद्ध में दम लगता है। वैसे तो मुख्य चुनाव आयुक्त ने सरकारी खर्चे पर लगी मूर्तियों के विषय में ही अपना आदेश सुनाया है। देखा जाये तो राज्य के तमाम चौराहों पर बने फौवारों पर कमल के फूल बने हुए है या कमल के फूल पर फौवारे बने हुए है। इन सभी का निर्माण वहाँ की नगर पालिकाओं ने करवाया है जो कि सरकारी खर्चा ही तो है। राजनैतिक दलों के नेताओं की मूर्तियाँ या उनके नाम पर रास्तों या चौराहों का नाम तो सारे देश में ही है। चंडीगढ़ प्रशासन का चिन्ह भी हाथ ही है। इन सब पर चुनाव आयोग क्या फैसला देगा ? दलों के चुनाव चिन्हों पर इसी प्रकार के आरोप और शिकायतें पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के फूल पर भी अन्य दलों ने लगाये थे। इतना ही नहीं उन्होंने तो चैनलों पर चलने वाले धार्मिक धारावाहिक जिसमें ब्रह्मा जी कमल पर बैठे या किसी भी दृश्य जिसमें कमल का फूल दिखाया जा रहा था, को बंद करने की मांग की थी। चुनाव आयोग के वर्तमान फैसले पर केवल शरद यादव ने ही सवाल उठाये है अन्य किसी भी दल ने नहीं। हाँ कुछ कानूनविध अवश्य ही इसे कानून सम्मत नहीं मानते।

पार्कों और उद्यानों में लगी मूर्तियों को ढकने का काम जहाँ अभी प्रारम्भ ही हुआ है वहीँ इसकी चर्चा देश भर में होने लगी है। पार्क के अन्दर स्थापित मूर्ति किसी को चुनावी लाभ दे सके या न दे सके, परन्तु ढकी हुई मूर्तीयाँ पार्क से बाहर अवश्य ही चर्चा का विषय बन सभी का ध्यान आकर्षित करने में सफल होगी। पार्कों में लगी सूंड उठाये हाथियों की मूर्तियाँ चुनाव में किसी भी प्रकार से प्रचार में सहायक नहीं हो सकती थी। हाँ, इन मूर्तियों को ढकने के कार्य से मीडिया और आम जनमानस में जिस ढंग से प्रचार हो रहा है उसका लाभ अवश्य ही मायावती की बहुजन समाज पार्टी को चुनाव में मिलेगा यह दावे से कहा जा सकता है। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी माया सरकार को पलटवार करने और अपने समर्थकों को यह सन्देश देने कि बहुजन समाज के साथ अन्याय हो रहा है, मूर्ति ढकने की घटना अवश्य ही बहुत सहायक होगी। आपातकाल में कांग्रेस की सरकार ने समाचार पत्रों पर भी सेंसर लगा दिया था। समाचार पत्र छपने से पूर्व उनको सरकार के अधिकारी पढ़ते थे और सरकार द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार अमान्य समाचारों को निकाल दिया जाता था। कुछ समय पश्चात् कुछ समाचार पत्रों ने हटाये गए समाचारों का स्थान खाली छोड़ने का कार्य प्रारम्भ कर दिया जिससे आम जनता को समझ में आने लगा कि इस रिक्त स्थान पर लगा समाचार सरकार द्वारा हटाया गया है। फिर देश का जन सामान्य सभी समाचार पत्रों को जांचने लग गया कि कौन सा समाचार पत्र सरकार के विरुद्ध लिखता है और सरकार वह समाचार हटवा देती है। उत्तर भारत में इस कार्य में शायद पंजाब केसरी ही प्रथम स्थान पर रहा जिसके चलते आज वह पहली पसंद का समाचार पत्र बना हुआ है। हो सकता है कि अब मूर्तियों की शिकायत करनेवाले पछता भी रहे हों।

चुनाव आयोग का यह फैसला उचित है या नहीं इस पर चर्चा करना हमारा लक्ष्य नहीं है। हम तो मात्र यह आंकलन करना चाहते हैं कि इस आदेश से किस को लाभ होगा और किस को हानि ? बसपा के नेता सतीश मिश्रा सर्वोच्च न्यायालय के एक बढ़े वकील हैं, उन्होंने तो कमल, हाथ और साईकिल चुनाव चिन्ह पर भी सवाल खड़े किये हैं। फूल ढकने से तो आम जनता को कोई परेशानी नहीं होने वाली, साईकिल ढकने से केवल कुछ दिनों की परेशानी होगी, परन्तु यदि हाथ जो मानव का एक बहुत ही अहम् अंग है, को ही ढकने या बांधने के आदेश दे दिए गए, तो जरा सोचिये परिस्थिति कितनी शोचनीय हो जायेगी ? सारा उत्तर प्रदेश २८ फरवरी तक शोले का ठाकुर ( संजीव कुमार ) बन जायेगा और उसके साथ कोई राम लाल भी नहीं हो होगा जो…..!

हम तो अखिल भारतीय मानव दल नाम की एक राजनैतिक पार्टी बना ” पुरुष बुत” के चुनाव चिन्ह पर अगला २०१४ का लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं। ऐसी परिस्थिति में तमाम देश के पुरुषों को ही बुर्के में रहना पदग गया चुनाव सम्पन्न होने तक, तो….?

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संपादक, साप्ताहिक " अमर ज्वाला " परिचय : लेखन का शौक बचपन से ही था. बचपन से ही बहुत से समाचार पत्रों और पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं में लेख व कवितायेँ आदि प्रकाशित होते रहते थे. दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा के दौरान युववाणी और दूरदर्शन आदि के विभिन्न कार्यक्रमों और परिचर्चाओं में भाग लेने व बहुत कुछ सीखने का सुअवसर प्राप्त हुआ. विगत पांच वर्षों से पत्रकारिता और लेखन कार्यों के अतिरिक्त राष्ट्रीय स्तर के अनेक सामाजिक संगठनों में पदभार संभाल रहे हैं. वर्तमान में मंडी, हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित होने वाले एक साप्ताहिक समाचार पत्र में संपादक का कार्यभार. ३० नवम्बर २०११ को हुए हिमाचल में रेणुका और नालागढ़ के उपचुनाव के नतीजों का स्पष्ट पूर्वानुमान १ दिसंबर को अपने सम्पादकीय में करने वाले हिमाचल के अकेले पत्रकार.

2 COMMENTS

  1. पता नहीं। मायावती को मत देनेवाले, हाथियों को ढकने ना ढकने की सूक्ष्म सोचवाले, नहीं मानता। उनको शायद कम ही. अंतर पड सकता है।
    उसे मत देनेवाले, उसी को मत देंगे।
    यदि मायावती को व्यक्तिगत रूपसे सताया जाता, तो अंतर की सम्भावना मानता हूं।
    आपने जो ओशोका सिद्धान्त बताया, वह सच तब है, जब मतदाता, उसे एक अन्याय हुआ हो, ऐसा माने।
    दूर बैठे, मेरी सोच में, विशेष कोई अंतर नहीं पडेगा।
    मैं कुछ हिचकिचाहट के साथ ही, यह कह रहा हूं।
    आप –“भौमिक वास्तविकता” मुझ से अधिक ही जानते हैं।

  2. आपका विश्लेषण बहुत अच्छा है.यह सही है कि मूर्तियों को ढंकने से मायावती को लाभ होने जा रहा है,पर कनाट प्लेस के बीच में बने फौवारेका जो उदहारण आपने दिया है,वह मुझे गलत लगता है.जहां तक मुझे याद आता है,कनाट प्लेस के बीच के इस फौवारे का निर्माण १९६७ और ७२ के बीच हुआ था,जब दिल्ली (दिल्ली उस समय राज्य नहीं बना था)पर भारतीय जन संघ का शासन था.भारतीय जन संघ का उस समय का नारा था,जब हम दिल्ली में स्वच्छ शासन दे सकते हैं तो अन्य राज्यों में क्यों नहीं?

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