माया के जाल में मायावती

प्रमोद भार्गव

उत्तर प्रदेश  में अपनी बची-खुची साख बचाने में जुटी बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती को

नसीमुद्दीन सिद्दीकी को करारा झटका दिया है। बसपा से निष्कासित नेता सिद्दीकी पार्टी के संस्थापक कांशीराम के साथी होने के साथ मुस्लिम चेहरा भी थे। दलित-मुस्लिम समीकरण को एक समय जमीन पर उतारने में भी उनकी अहम् भूमिका रही है। अब निष्कासन के बाद सिद्दीकी कह रहे हैं कि मायावती ने उनसे 50 करोड़ रुपए की मांग की थी। मांग पूरी न होने पर दूध में पड़ी मख्खी की तरह मुझे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। उन्होंने लगाए आरोपों को प्रमाणित करने के लिए वे आॅडियो टेप भी प्रेस वार्ता में प्रस्तुत किए, जिनमें मायावती और सिद्दीकी के बीच लेन-देन का वार्तालाप दर्ज है। हालांकि मायावती पर टिकट बेचने के आरोप पहले भी लगते रहे है। जब विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बसपा के कद्दावर नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने अचानक पार्टी छोड़ी थी, तब उन्होंने भी मायावती पर टिकट बेचने के आरोप लगाए थे। हालांकि मौर्य ने बतौर प्रमाण कोई साक्ष्य प्रेस को नहीं दिए थे। बहरहाल दलित चेतना के आंदोलन से जुड़ी रही एक पार्टी का इस तरह से छीजते जाना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। पार्टी में  चल रही अंतर्कलह और बिखराव इस बात का भी संकेत है कि मायावती पार्टी की बुनियादी सामाजिक न्याय की अवधारणा पर खरी उतरने में नाकाम साबित हो रही हैं।

सवर्ण नेतृत्व को दरकिनार कर दलित और पिछड़ा नेतृत्व तीन  दशक पहले इसलिए उभरा था, जिससे लंबे समय तक केंद्र व उत्तर प्रदेश  समेत अन्य राज्यों की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय के जो लक्ष्य पूरे नहीं कर पाई थीं, वे पूरे हों। सामंती, बाहूबली और जातिवादी कुच्रक टूटें। किंतु ये लक्ष्य तो पूरे हुए नहीं, उल्टे सामाजिक शैक्षिक और आर्थिक विशमता उत्तोत्तर बढ़ती चली गई। सामाजिक न्याय के पैरोकारों का मकसद धन लेकर टिकट बेचने और आपराधिक पृष्ठभूमि के बाहुबलियों को अपने दल में विलय तक सिमट कर रह गए। राजनीति के ऐसे संक्रमण काल में जब विपक्ष को अपनी शक्ति और एकजुटता दिखाते हुए भाजपा से लड़ने की जरूरत अनुभव हो रही है, तब एक के बाद एक विपक्षी दल अंदरूनी व पारिवारिक संकट से जूझते दिखाई दे रहे हैं। सपा और द्रमुक ने पारिवारिक कलह के चलते अपनी साख लगभग खो दी हैं। बिहार में लालू और नीतिष के बीच जो गठबंधन जीत का सबब बना था, वही अब लालू के परिजनों के लिए राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई लड़ने को बेताब दिख रहा है। हालांकि चारा घोटाले का मामला फिर से सुप्रीम कोर्ट द्वारा जीवंत कर दिए जाने के बाद एकाएक यह लड़ाई थम सी गई है, लेकिन अवसर मिलते ही लालू के वंशज इसे फिर हवा देने लग जाएंगे। नेतृत्व संकट से जूझ रही कांग्रेस का तो पहले से ही बुरा हाल है।

बसपा को वजूद में लाने से पहले कांशीराम ने लंबे समय तक दलितों के हितों की मुहिम डीएस-4 के जरिए लड़ी थी। इसीलिए तब बसपा के कार्यकर्ता इस नारे की हुंकार भरा करते थे, ‘ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर चोर, बाकी सारे डीएस-फोर।‘ इसी डीएस-4 का सांगठनिक ढांचा खड़ा करने के वक्त बसपा की बुनियाद पड़ी और पूरे हिंदी क्षेत्र में बसपा की सरंचना तैयार किए जाने की कोशिशें ईमानदारी से शुरू हुईं। कांशीराम के वैचारिक दर्शन में डाॅ भीमराव अंबेडकर से आगे जाने की सोच तो थी ही दलित और वंचितों को करिष्माई अंदाज में लुभाने की प्रभावशाली शक्ति भी थी। यही वजह थी कि बसपा दलित संगठन के रूप में मजबूती से स्थापित हुई, लेकिन कालांतर में मायावती की पद व धनलोलुपता ने बसपा के बुनियादी ढांचे में विभिन्न जातिवादी बेमेल प्रयोगों का तड़का लगाकर उसके मूल सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ ही कर डाला। इसी फाॅर्मूले को अंजाम देने के लिए मायावती ने 2007 के विधानसभा चुनाव में दलित और ब्राह्मणों का गठजोड़ करके उत्तरप्रदेश  का सिंहासन जीत लिया था। लेकिन 2012 आते-आते ब्राह्मण व अन्य सवर्ण जातियों के साथ मुसलमानों का भी मायावती की कार्य-संस्कृति से मोहभंग हांे गया। नतीजतन सपा ने सत्ता की बाजी जीत ली थी। हालांकि मायावती अपने बेमेल गठबंधनों के चलते उत्तर प्रदेश  में 4 बार सरकार बना चुकने के साथ पार्टी को अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करने में सफल रहे है। लेकिन मोदी लहर के आते ही बेमेल गठबंधनों का दौर खत्म हो गया और बसपा दुर्गति के दौर से गुजरने लग गई। नतीजतन 2014 के लोकसभा चुनाव में वह एक भी सीट नहीं जीत पाई। उत्तर प्रदेश  में अपने ही दल के बूते बहुमत की सरकार बना चुकी बसपा को 2017 के विधानसभा चुनाव में महज 19 सीटों पर बमुश्किल जीत मिल पाई। मायावती ने इस हार का ठींकरा ईवीएम मशीनों पर फोड़कर संतोष कर लिया। तीसरे स्थान पर खिसकी बसपा के पास अब इतनी भी सीटें नहीं है, कि वह अपने किसी नेता को विधान परिषद् या राज्य सभा में भेज सके। साफ है, जब मायावती की राज्यसभा की सदस्यता का कार्यकाल पूरा हो जाएगा, तब वे स्वयं इस ऊपरी सदन में फिर से प्रवेश नहीं कर पाएंगी।

मायावती ने सिद्दीकी के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए, उन पर ही पलटवार कर दिया है। सिद्दीकी को टैपिंग ब्लैकमेलर कहते हुए उन पर चंदे की बड़ी धनराशि डकार जाने का आरोप लगाया है। धन उगाहने वाला शख्स कहते हुए, मायावती ने सिद्दीकी को उत्तर प्रदेश  में बसपा की हार के लिए भी जिम्मेबार ठहरा दिया है। जबकि सिद्दीकी 1983 में कांशीराम ने जब बसपा की बुनियाद रखी थी, तभी से बसपा के भरोसेमंद कार्यकार्ता रहे हैं।  अलबत्ता इस शुरूआत में कांशीराम ने दलित समाज को गोलबंद करके जिस बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था, उसे कांशीराम के जिंदा रहते हुए ही मायावती ने अपने कब्जे में ले लिया था। इसके बाद न तो मायावती ने पार्टी का संगठनात्मक ढांचा खड़ा होने दिया और न ही किसी नए नेता को इतनी ताकत दी कि वह मायावती के बरक्ष ताकतवर नेता बन जाएं। इसलिए पार्टी के भीतर जो भी कुछ हो रहा है, उसमें हैरानी जैसी कोई बात नहीं है। एकतंत्री नेतृत्व वाले इसी दोष के चलते क्षेत्रीय दल न तो अखिल भारतीय दल बन पाए और न ही एक समय बाद क्षेत्रीय दल रह पाए। वंशीलाल, अजीत सिंह, जयललिता, असम गण परिषद् के भृगु फूकन और अब आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल इसी हश्र का शिकार होते दिख रहे हैं।

सिद्दीकी अब सफाई चाहे जितनी दे लें, बसपा के अच्छे दौर में उन पर भी मायावती के लिए धन की वसूली करने और काले धन का हिसाब-किताब रखने व उसे गलत तरीके से सफेद करने के आरोप लगते रहे हैं। अब सिद्दीकी उनके पास मायावती से बातचीत की जिन डेढ़ सौ आॅडियो टेपों के रहस्योदघाटन करके भूचाल लाने की बात कर रहे हैं, उस भूचाल की चपेट में आने से वे स्वयं भी दूध के धुले रह जाएं, नामुमकिन है ? हालांकि मायावती की तो यह कार्यसंस्कृति ही रही है कि उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं का जब जैसा चाहा इस्तेमाल किया और जब कोई नेता कानून के शिकंजे में फंस गया तो उसे तत्काल पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। किंतु अब नरेंद्र मोदी के केंद्रीय सत्ता में काबिज होने के बाद राजनीति का चाल और चरित्र बदल रहा है। अब महज जातीय और सांप्रदायिक समीकरणों के बूते राजनीति करना मुश्किल है ? मतदाताओं का जाति, धर्म और क्षेत्रीय भावनाओं से मोहभंग हो रहा है। इस लिहाज से अब वही दल और नेता राजनीति की मुख्य धारा में रह पाएंगे, जो अपने तौर-तरीके पूरी तरह बदल लेंगे। कांग्रेस जो राष्ट्रीय पार्टी हैं, उसका दायरा लगातार इसीलिए सिमट रहा है, क्योंकि वह न तो चेहरा बदलने को तैयार है और न ही तौर-तरीके ? राजनीति में आ रहे बदलाव इस बात के भी संकेत है कि अब दलों को संगठन के स्तर पर मजबूत होने के साथ नैतिक दृष्टि से भी मजबूती दिखानी होगी।

 

 

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