मीडिया का संकीर्णतावादी चरित्र

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डॉ. ज्योति सिडाना

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है क्योंकि सार्वजनिक जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने के एक साधन के रूप में तथा देश के लोकतान्त्रिक चरित्र का प्रचार-प्रसार करने में मीडिया की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है. यह एक तथ्य है कि मीडिया समाज के सभी सदस्यों को सूचना देता है, जागरूक बनाता है और लोकतान्त्रिक मूल्यों का विस्तार करता है या कहे कि नागरिकों को सशक्त बनाता है. राजनीति, अर्थव्यवस्था, खेल जगत, सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष इत्यादि जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिनकी गतिविधियों से मीडिया समाज के लोगों को अवगत नहीं कराता. मीडिया न केवल लोगों के मन-मस्तिष्क को आकार देने में अहम् भूमिका निभाता है बल्कि सरकार व नागरिकों के मध्य एक मध्यस्थ की भूमिका भी निभाता है. इतिहास साक्षी है कि ब्रिटिश भारत में भारतियों में उत्साह और देश भक्ति जगाने में तत्कालीन मीडिया ने जो भूमिका निभाई उसका कोई सानी नहीं है. एक तरफ गाँधी, नेहरु, पटेल, अम्बेडकर जैसे तत्कालीन नेताओं ने और दूसरी तरफ गणेश शंकर विद्यार्थी, अम्बिका प्रसाद, लक्षमन नारायण, जे.डी. दास जैसे अनगिनत पत्रकारों ने अपने लेखों के माध्यम से देश को आजादी दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

पर आज मीडिया के एक बड़े भाग की भूमिका संदेह के घेरे में है. एक समय था जब बुद्धिजीवियों के विचारों को, उनकी राय को केंद्र में रखकर नीति निर्माण या सत्ता का संचालन किया जाता था. उस देश या राष्ट्र को सर्वाधिक शक्तिशाली माना जाता था जहाँ हर क्षेत्र में बुद्धिजीवियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी. परन्तु आज बुद्धिजीवी वर्ग हाशिए पर नजर आने लगा है आखिर क्यों? इस पर एक व्यापक बहस की जरुरत है. आज पत्रकारिता और पत्रकार दोनों  की परिभाषा बदल चुकी है, उनके उद्देश्य और भूमिका भी बदल चुके हैं. आज कौन-सी खबर महत्वपूर्ण बनेगी और कौन सी हाशिए पर रहेगी सब कुछ पत्रकार तय करते हैं समाज या राष्ट्र के लिए उस खबर का कितना महत्त्व है इसका कोई अर्थ नहीं है. यहाँ तक कि ख़बरों की सत्यता-असत्यता को भी जांचना मुश्किल होता जा रहा है. उदाहरण के लिए रिया, कंगना, सुशांत के मुद्दे एक लम्बे समय से मीडिया की सुर्ख़ियों में छाए हुए हैं दूसरी तरफ देश में कोरोना से बढता संक्रमण, कितने लोग या विद्यार्थी आत्महत्या कर रहे हैं, लॉकडाउन में कितने लोगो की नौकरी चली गयी या उनके वेतन में कटौती कर दी गई, बेरोजगारी की समस्या, स्वास्थ्य के मुद्दे, आर्थिक असमानता में वृद्धि, अनेक सार्वजानिक संस्थानों का निजीकरण, शिक्षा जगत की उपेक्षा इत्यादि ऐसे मुद्दे हैं जिन पर मीडिया और सरकार दोनो ही खामोश है. ये मुद्दे मीडिया के एक बड़े भाग के लिए कभी चर्चा के विषय नहीं बनते और न वे इन पर कोई सवाल उठाते हैं. क्योंकि उसके लिए तो सुशांत, कंगना, ड्रग माफिया, रिया चक्रवर्ती ही महत्वपूर्ण है बाकी सारे मुद्दे गैर-जरुरी हैं. 

मीडिया में 24*7 घंटे इस तरह की ख़बरों का दिखाया जाना उनकी भूमिका को संदेह के घेरे में ले आता है. किसी सेलिब्रिटी या हीरो या हीरोइन ने क्या खाया, क्या पहना, वो किसके साथ कहाँ घूमने गया, किसका किसके साथ अफेयर चल रहा है, किसके साथ ब्रेक-अप हुआ इत्यादि. ये मुद्दे इतने महत्वपूर्ण कब से और क्यों हो गए? किसी के निजी जीवन को सार्वजानिक करने की विभिन्न चैनल्स पर जैसे होड़ सी लग गयी है क्या यह निजता के अधिकार (राइट टू प्राइवेसी) का उल्लंघन नहीं है? आखिर ऐसा करने के पीछे इनका क्या उद्देश्य हो सकता है? समझ से परे है. आपको नहीं लगता कि इस तरह के प्रस्तुतीकरण से लोगों की सांस्कृतिक समझ ख़त्म हो रही है और हर जगह अदृश्य किस्म की आक्रामकता पनप रही है जो लोकतान्त्रिक समाज के लिए खतरा भी है और चुनौती भी.  

एक लोकतान्त्रिक देश में मीडिया की क्या भूमिका होनी चाहिए ? अब इस मुद्दे पर चिंतन करने में और देर नहीं की जानी चाहिए. यही वो मीडिया था जिसने स्वाधीनता के समय प्रभावी भूमिका निभाई थी. एक निर्भीक, इमानदार, प्रतिबद्ध, चेतनशील मीडिया जो वास्तव में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ था. समाज के हर अच्छे-बुरे पक्ष से लोगों को परिचित करवाना, लोगों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजग करना, बिना किसी डर के सच को उजागर करना, राज्य/सरकार और नागरिक के मध्य सेतु के रूप में काम करना जिसका अहम् लक्ष्य होता था आज उनकी संख्या बहुत ही कम है. अब आलोचनात्मक मुद्दे उठाने वाले लोग या सवाल उठाने वाले लोग देश द्रोही घोषित कर दिए जाते हैं संभवतः  ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि अधिकांश मीडिया का कॉर्पोरेटीकरण हो गया है. पेड न्यूज़ का दौर शुरू हो गया है जहाँ पैसे देकर आप कुछ भी छपवा सकते हैं या दिखा सकते हैं और कुछ भी छपने या दिखाने से रोक सकते हैं. सत्य की व्याख्या अधिकांश रिपोर्टर अपने तरीके से करने लगे हैं, बहस के दौरान चिल्लाना सत्य के प्रस्तुतीकरण का प्रतीक बनता जा रहा है, विभिन्न चैनलों पर अपशब्द, आक्रामकता, समुदाय विशेष एवं धर्म विशेष के प्रति पूर्वाग्रहों/घृणा की अभिव्यक्ति आम बात हो गयी है. हाल ही में एक चैनल पर ‘बिंदास बोल’ कार्यक्रम के प्रोमो में सरकारी सेवाओं में मुस्लिमों की घुसपैठ का बड़ा खुलासा करने का दावा किया. जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिक्रिया करते हुए कहा कि ‘मीडिया को किसी भी एक पूरे समुदाय को निशाना बनाने की अनुमति नहीं है’. बोलने की आजादी का मतलब यह कतई नहीं है कि मीडिया किसी भी समुदाय विशेष को कटघरे में खड़ा करके हिंसक गतिविधियों को फ़ैलाने का काम करे. मीडिया की यह गतिविधि उनकी संकीर्णतावादी मानसिकता को व्यक्त करती है. लेकिन इस कार्यक्रम द्वारा केवल एक समूह विशेष को ही निशाना नहीं बनाया गया बल्कि संघ लोक सेवा आयोग जैसी संस्था की कार्यप्रणाली और  विश्वसनीयता पर भी प्रश्न चिह्न लगा दिया है. जो आज तक के इतिहास में कभी नहीं हुआ और यह एक खतरनाक कदम है. इस तरह से मीडिया का एक हिस्सा लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और साझा संस्कृतिक विरासत पर आक्रमण कर रहा है और समाज में विभाजन की संभावनाओं को उत्पन्न कर रहा है.

सूचना क्रांति के बाद से ‘सूचना समाज’ के युग का प्रारंभ हुआ और संभवतः इसी को ध्यान में रखकर सुभाष धुलिया ने अपनी एक पुस्तक में लिखा कि आज देश की कुल श्रम शक्ति का एक बड़ा हिस्सा सूचना उद्योग में कार्यरत है. इस समाज में वस्तुओं के स्थान पर  सूचनाओं का उत्पादन, विनिमय, वितरण व संचालन किया जा रहा है. और उसी का परिणाम है कि हर क्षेत्र में सूचनाओं की इतनी भरमार हो गयी है कि सही और गलत में अंतर करना मुश्किल हो गया है. प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक कार्ल मार्क्स का तर्क आज भी प्रासंगिक जान पड़ता है कि किसी भी देश की आर्थिक प्रणाली वहां के राज्य, मीडिया, शिक्षा, राजनीति और धर्म को निर्धारित करती है. और आज भी वही तो हो रहा है मीडिया के एक बड़े भाग को आर्थिक शक्तिया ही निर्धारित करने लगी हैं और वही मीडिया समाज की अन्य इकाइयों को नियंत्रित करने में लगा है. इसीलिए यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आज का अधिकांश मीडिया नागरिकों के प्रति नहीं बल्कि पूंजीपतियों/आर्थिक शक्तियों के प्रति जवाबदेह नजर आता है. लोकतंत्र के प्रति उसमे कोई आस्था नजर नहीं आती अब. यही तो पूंजीवाद के खतरे हैं. क्योंकि पूंजीवादी यही तो चाहते हैं कि वर्तमान में देश में उत्पन्न संकटों और विषमताओं पर कोई ध्यान न दे, कोई सवाल खड़ा न करे बल्कि उन मुद्दों के प्रति उदासीन या तटस्थ बना रहे. आज की स्थिति पर कटाक्ष करते हुए फ़्रांसिसी लेखिका विवियन फोरेर्स्ते कहती हैं कि आज मुख्य प्रश्न ‘उपयोगी’ होना नहीं बल्कि ‘लाभकारी’ होना है. यानि आप उपयोगी हैं या नहीं कोई फर्क नहीं पड़ता पर आपका लाभकारी होना आपकी उपयोगिता को तय करता है. उनका यह भी मानना है कि आज जब शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में बुद्धिजीवियों की सबसे ज्यादा जरुरत है तो इन पर किए जाने वाले व्यय में कटौती की जा रही है या इनकी उपेक्षा की जा रही है. जबकि दोनों ही सेवाएं एक कल्याणकारी और मजबूत लोकतंत्र के लिए अपरिहार्य संस्थाएं हैं. मीडिया इन सेवाओं में छुपी कमियों और दुर्घटनाओं को तो उजागर करता है लेकिन इनके पीछे छिपे कारण या राज्य द्वारा इनकी उपेक्षा पर चर्चा नहीं करता क्यों? 24 घंटे चलने वाले कार्यक्रमों ने अनेक विषयों पर अपने दर्शकों को व्यापक सूचनाओं का विश्व तो दिया है पर दूसरी तरफ सूचनाओं से वैचारिक पक्ष, तर्कसंगतता और समाज पर उनके प्रभाव से सम्बंधित पक्ष गायब हैं. अब कॉर्पोरेट मीडिया यह तय करने लगा है कि दर्शक/श्रोता क्या देखे, क्या सुने क्या पढ़े. मीडिया की यह भूमिका समाज में बंधक मस्तिष्क (कैप्टिव माइंड) को ही तो उत्पन्न करेगी. जबकि किसी भी देश के समावेशी विकास और लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए आवश्यक है कि मीडिया बिना किसी पूर्वग्रहों के  नागरिकों के समक्ष प्रत्येक विषय पर खुली बहस करने और नीति निर्माण की प्रक्रिया में बुद्धिजीवियों की सभागिता का पक्षधर होने की भूमिका निभाए. गाँधी जी भी यही कहते थे कि एक सच्चा लोकतंत्र तभी स्थापित हो सकता है जब सत्ता के गलियारों में आम आदमी की आवाज पहुँच सके. और इसमें कोई संदेह नहीं कि मीडिया से इसी भूमिका की अपेक्षा की भी जाती है.    

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