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प्रवक्ता स्वतंत्र अभिव्यक्ति का मंच भी है और मिशन भी

शादाब जफर’’शादाब’’ 

pravaktaप्रवक्ता पर भाई विजय कुमार जी का एक लेख तथाकथित नसीहत देने के इरादे से लिखा हुआ पढने का अवसर प्राप्त हुआ। विजय कुमार जी गुड़ तो खाना चाहते है पर गुलगुलों से भी परहेज रखना चाहते हैं। पत्र के आरम्भ में जो उन्होंने अपना परिचय दिया और बाद में अपने जेल के साथी कैबिनेट मंत्रियों का जो जिक्र किया शायद उस की जरूरत ही नहीं थी। भाई विजय कुमार जी का प्रवक्ता के संपादक को बेमतलब का संपादक बताने का क्या इरादा है मेरे समझ से परे की बात है। वहीं ये कहना कि प्रवक्ता में जो जैसा लिख देता है प्रवक्ता उसे वैसा ही प्रकाशित कर देता है वहीं उनका ये भी कहना कि प्रवक्ता अभिव्यक्ति का एक अच्छा मंच है उन्होंने एक मिसाल भी दी कि आपातकाल में जब वो जेल में थे तो जेल में एक ढूला होता था जिस पर हम भाषण देने का अभ्यास करते थे। प्रवक्ता भी विचारों का ऐसा ही ढूला है जहां हर व्यक्ति अपनी बात कह सकता है। जो लोग लेखन या पत्रकारिता में आगे बढना चाहते है उनके अभ्यास के लिये ये स्थान अच्छा है।

लेखक के लेख की दशा और दिशा समझने में दिमाग पर बहुत जोर देना पड़ रहा है। शायद विजय कुमार जी फिर से अपने बीस पच्चीस साल पुराने पत्रकारिता के दिनों में प्रवक्ता को लौटाना चाहते है जब छोटे से छोटे पत्र की एक बुरी आदत होती थी कि वो समाचार और लेख का चयन अपनी मर्जी और फायदे के हिसाब से करता था। कुछ नामचीन लेखक ही समाचार पत्रों के लेखो के लिये फिट होते थे। एक आम स्वतंत्र पत्रकार अैर उस के लेख या व्यक्तिगत उस की राय को किसी छोटे बडे समाचार पत्र में अपने विचार संपादक की इजाजत के बगैर रखने का अधिकार नही था।

सब से पहले में भाई विजय कुमार जी से सिर्फ ये पूछना चाहता हूं कि क्या प्रवक्ता पर जो लेखक हैं उनकी लेखनी में कभी उनको बचपना, बिखराव नजर आया। क्या किसी लेखक के लेख में खुशवंत जी, कुलदीप नय्यर, बलबीर पुंज आदि लेखकों के कलम की आग से कम आग नजर आई। दूसरी बात संपादक का मतलब क्या लेखों में काटछाट करना ही होता है जो लेखों में काटछाट करता है क्या वो ही संपादक कहलाने के लायक है। आखिर ये कैसी सोच और कैसा अनुभव है मेरे लेखक साथी का, अगर लेखक के विचारों को बकरे की तरह काटछाट दिया गया तो फिर अभिव्यक्ति की आजादी और मूल लेख, लेखक के विचार लेख में कहा रहे। फिर तो संपादक की अपनी मर्जी का लेख हो गया। जो उस के हिसाब से उस के पत्र पत्रिका में शामिल हो गया। आदरणीय भाई संजीव सिंहा जी का बेपनाह सहयोग आभार की उन्होंने प्रवक्ता पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा को मरने नहीं दिया। लेखक को संजीव का ये गुण अगर अवगुण लग रहा है तो मुझे विजय कुमार जी के ऊपर तरस आ रहा है। प्रवक्ता के पांच वर्ष पूरे होने पर देहली के कांस्टिट्यूशन क्लब में अगर लेखक होते तो यकीनन प्रवक्ता की पांच साल की छोटी उम्र और 300 से अधिक देश विदेश के लोगो के साथ ही वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव जी, एन.के.सिंह जी जयदीप कर्णिक, जगदीश उपासने, जैसे दिग्गज देश के पत्रकारो का एक दूसरे के प्रति समर्पण देखते ही बन रहा था। प्रवक्ता का मंच या प्रवक्ता परिवार को यू तोड़ने इतना आसान नहीं जितना लेखक ने समझा है। प्रवक्ता के संपादक संजीव सिन्‍हा जी बहुत ही संयम और उच्च साफ सुथरे विचारो के मालिक है और ये ही गुण हम लोगों में भी धीरे-धीरे संजीव भाई के सम्पर्क में रहने से आ गये है। प्रवक्ता आज एक ऐसा ढूला बनकर तैयार हो गया है जिस पर आने वाले वक्त का एक नया भारत और भारतीय पत्रकारिता का एक इतिहास जल्द लिखा जायेगा……………क्योंकि प्रवक्ता स्वतंत्र अभिव्यक्ति का मंच भी है और मिशन भी।