कविता साहित्‍य

चलती फिरती जेल या अँधा-इंसाफ़ ?

डॉ. मधुसूदन

चार चार बेगमों का, हक  मर्दों को.
और चलती-फिरती जेल,*बेगम को .

मूँद कर आँख  इक रोज़ बेगम बन जा.
पहन कर बुरका ज़रा संसद* हो आ.

अण्डे* से  बाहर निकल कर देख.
आँखों से, हरा चष्मा उतार कर देख.
(अण्डा= दकियानूसी रुढियाँ)

बुरका नहीं, है ये,  चलती फिरती जेल है;

हिम्मत  है,  चंद  रोज़  पहन के देख!

माँ बहनों को, इतना  भी क्यों सताया?
मर्द, तेरा  इन्साफ़ है, अधूरा देख.

किसे कहें? किस  कठ पुतली से  कहें?
वो, ही जो नीलाम करती है वोटों को ?
{ मुल्ला मौलवी और सुधार के विरोधी )

कब की  पहुँच चुकी  है, चाँद तक ये दुनिया .
तू इक्किसवी सदी में ,  झाँक कर तो देख.

कब तक रहें कुढते ?छठवी सदीमें सडते?
दुनिया से  ले के पंगा, कब तक रहेंगे  लडते?

कानून की  हे देवी, सचमुच  तू अंधी होगी;
पट्टी  गर खोल  दोगी  तो ? त्यागपत्र  दोगी.

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( चलती-फिरती-जेल*= बुरका. )
(संसद* = राजनीतिज्ञों का अड्डा)

(अण्डा= दकियानूसी रुढियाँ)
खाडी देशों से आयी एक महिला के
अनुरोध पर कविता.
उस ने यहाँ बुरका त्यज दिया.
सूचना:किसी के द्वेष से प्रेरित नहीं यह कविता.