फिल्‍मकार मुजफ्फर अली से मनीष कुमार जैसल की बातचीत

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हिन्दीdownload (4) फिल्म जगत में मुजफ्फर अली एक लब्ध-प्रतिष्ठित व्यक्तित्व हैं. एक संवेदनशील और सरोकारी फिल्म निर्देशक के रूप में उन्होने तीन दशक से ज्यादा का वक्त भारतीय सिनेमा को दिया है. साथ ही अपनी विशिष्ट पहचान भी अर्जित की है. सन १९४४ में लखनऊ के एक राजसी परिवार में जन्मे मुजफ्फर की तालीम और तरबियत लखनऊ में ही हुई. इसी वजह से लखनऊ के प्राचीन वैभव एवं समकालीन मूल्यों को उन्होने बेहद करीब से जाना समझा. इसी समझ ने उनके फिल्मों को एक चमत्कारी मौलिकता से नवाज़ा. उनकी बनाई अधिकांश फिल्मों में लखनऊ हमें किसी पात्र की तरह नज़र आता है. जब कभी लखनऊ की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों की बात होती है मन में पहली छवि मुजफ्फर अली की ही उभरती है. उनकी सबसे पहली फिल्म गमन, उनकी हस्ताक्षर फिल्म उमराव जान और उनकी एक अप्रदर्शित फिल्म अंजुमन इन सभी फिल्मों में लखनऊ अपनी मज़बूत मौजूदगी दर्ज़ करवाता है. हालांकि मुजफ्फर के फिल्म जगत में पदार्पण से पहले भी लखनऊ की पृष्ठभूमि पर चौदहवीं का चांद, पालकी, मेरे महबूब और बहू बेगम जैसी कई बड़ी फिल्में बनी हैं लेकिन लखनऊ के समाज का जैसा प्रभावी चित्रण मुजफ्फर अली की फिल्मों विशेषकर गमन, उमराव जान और अंजुमन में किया गया वैसा अन्यत्र कहीं संभव नहीं हो सका. गमन में रोज़ी रोटी की तलाश में अपने वतन लखनऊ और परिवार से दूर हुए एक निम्न-मध्य वर्गीय आदमी की पीड़ा है लखनऊ बार बार वापस बुलाता है लेकिन बड़े शहर का खूनी पंजा हुए वापस नहीं आने देता. उमराव जान नवाबी के दौर वाले लखनऊ को दिखाती है जिसमें फैज़ाबाद की एक साधारण लड़की अमीरन के लखनऊ की मशहूर तवायफ उमराव जान अदा बनने की दर्द भरी दास्तान है. तीसरी फिल्म अंजुमन लखनऊ के मध्य वर्गीय जीवन का जीवन्त चित्रण करती है. चिकन कारीगरों के शोषण संघर्ष और जीवन को दिखाती ये फिल्म हालांकि आधिकारिक तौर पर रिलीज नहीं हो सकी थी लेकिन आज भी लखनऊ और लखनऊ के बाहर लखनऊ के आम जनजीवन को समझने के लिए सबसे खूबसूरत फिल्म है. इसी संदर्भ मे महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के फिल्म अध्ययन विभाग मे मेरे द्वारा एम फिल शोध प्रबंध के लिए किए साक्षात्कार के लिए मशहूर फिल्म निर्देशक मुजफ्फर अली ने ना सिर्फ मुझे मुंबई बुलाकर कीमती वक्त दिया बल्कि मुझे लखनवी मोहब्बत से भी महकाया |

पेश हैं उनसे बातचीत के कुछ अंश …….. 

 

o आपकी फिल्मों मे लखनऊ की उपस्थिति का क्या कारण हैं ?

o मुजफ्फर अली: साहित्य मे लखनऊ को सबने पढ़ा और समझा होगा पर जब हम बात फिल्मों की करते हैं तो बंगाल और केरल के सिनेमा मे आपको वहाँ की संस्कृति और समाज देखने को मिलता हैं, पर उत्तर प्रदेश की संस्कृति को किसी फ़िल्मकार ने नहीं दिखाया, तो हमने लखनऊ और पूरे अवध को जहाँ बहुत कम सिनेमा दिखाई देता हैं उसे चुना |

o आपकी फिल्मों मे अगर लखनऊ को एक पात्र की तरह देखा जाए तो क्या आप इससे सहमत होंगे ?

o मुजफ्फर अली:- हाँ बिलकुल- बिलकुल

o लखनऊ के अलग अलग कालखंडो को आपने काफी खूबसूरती से व्यक्त किया हैं | आपने 1978 से 1989 तक फिल्मे बनाई तो क्या आपको तब के लखनऊ और अब इस लखनऊ मे किस तरह का फर्क नजर आता है ?

o हमने अपनी फिल्मों मे अलग अलग दौर के लखनऊ के बिगड़ने की दास्तां दिखाई है, लखनऊ के लुटने की दास्ताँ दिखाई हैं, और रही बात अगर आज के लखनऊ की हैं तो जाहिर है कि अब इतना सब कुछ बदल गया हैं की नतीजा हम सब के सामने हैं |

o उमराव जान मे शायरी और लखनवी संस्कृति का बखूबी प्रयोग क्या आपके जीवन से भी जुड़ा कोई हिस्सा हैं ?

o मुजफ्फर अली:- हाँ मेरे जीवन से तो जुड़ा हुआ तो है, क्योकि मैं खुद अवध की संस्कृति मे पला बढ़ा हूँ तो फिल्म मे मैंने शेरो-शायरी का इस्तेमाल किया है क्योकि शायरी रूह की चीज होती हैं और किसी के दिल पर राज करने का यह सबसे उम्दा माध्यम हैं और रूह की शायरी करने वालों को ही मैं अपना गुरु मानता हूँ |

o मनीष: फिल्मों मे आपने क्षेत्रीय बोली का भी प्रयोग किया हैं इस बारे मे आप हमे कुछ बताए ?

o मुजफ्फर अली: क्योकि जुबान जो है वह हर जगह की अलग हैं, इसीलिए आप जहाँ की फिल्म है आप वहाँ की ही तो दिखाएंगे और उसके लिए आपको वहाँ की जुबान, सच्चाई और कहानी तो दिखानी ही पड़ेगी |

o क्या आपकी तीनों फिल्मों मे स्वर्गीय फारूख शेख के होने का भी लखनवी तहजीब या उस समाज का होना दर्शाता हैं?

o मुजफ्फर अली:- हाँ उन दिनो के दौर और फिल्मो के किरदार की दृष्टि से वो मेल खाते थे और वो अपने किरदार मे डूब जैसे जाते थे उनका संवाद और उनकी एक्टिंग भी लखनवी तहजीब से काफी मेल खाती थी |

o फिल्म गमन के काफी किरदारो ने काफी अच्छी अवधी बोली हैं क्या उसका कोई कारण ?

o मुजफ्फर अली :- हाँ ‘गमन’ मे काफी किरदार अवध के कोटवारा गाँव के निवासी ही हैं तो उस भाषा बोली को उनसे अच्छा कोई और शायद ही कोई न बोल पाता तो मैंने उनको फिल्म मे लिया |

o आपकी तीनों फिल्मे सिर्फ मुस्लिम समुदाय के जनजीवन,मुद्दो और समस्याओ को उजागर करती हैं ?

o मुजफ्फर अली :- नहीं नहीं हमारी फिल्मे मुस्लिम ही नहीं बल्कि हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रमाण हैं |

o मनीष: लेकिन सर फिल्म गमन मे गुलाम तो मुस्लिम हैं और फिल्म उसी को मुख्य रूप से दर्शाती हुई चलती हैं |

o मुजफ्फर अली: पर दूसरी तरफ गुलाम का दोस्त वो ……. लल्लू लाल तिवारी की भी तो दास्तां को मैंने दिखाया की वो किस तरह से अपना घर छोड़ कर बंबई जाता हैं ,वो तो हिन्दू हैं

o मनीष: बिलकुल सर, लेंकिन फिल्म अंजुमन मे आपने चिकन कारीगरों की दशा दिखाई की वो किस तरह से अपना जीवन बसर करते हैं और फिर किस तरह की उन्हे तकलीफ़े झेलनी पड़ती हैं जबकि लगभग कारीगर मुस्लिम हैं ?

o मुजफ्फर अली: हाँ भले ही वो मुस्लिम चिकन कारीगरों की कहानी हैं पर अंजुमन को रास्ता दिखने वाली तो वो डाक्टर हिन्दू थी और जो फिल्म मे काफी अहम किरदार निभाती हैं |

o आप स्वयं इतने रिहासती और व्यक्ति थे तो आपने अंजुमन जैसी फिल्म जो चिकन कारीगरों की स्थिति वयाँ करती हैं, तो क्या इसे आपने अपने जीवन मे खुद ही जिया था या आपने इसे देखा ?

o मुजफ्फर अली:- हसते हुए, नहीं मैंने खुद जीवन मे तो ऐसे पल नहीं जिये परंतु चिकन के कारीगरों का दर्द जरूर महसूस किया उसी दर्द के खातिर इस फिल्म का निर्माण हो सका |

o अंजुमन के आधिकारिक तौर पर रिलीज न होने का कोई मुख्य कारण आप बता सकते हैं ?

o मुजफ्फर अली:- नहीं फिल्म विदेशो मे रिलीज हुई और पसंद भी की गयी,

o मनीष: पर भारत मे इसके रिलीज न होने का कारण ?

o मुजफ्फर अली : हाँ भारत मे नहीं हो सकी, फाइनेंसर नहीं चाहते थे की अपने यहाँ हो तो नहीं हुई पर बाहर लोगो ने पसंद की |

o मनीष: सर आपने फिल्म गमन मे आपने मख्दूम की एक गजल “आपकी याद आती रही रात भर” अपनी फिल्म मे रखा और उसे छाया गांगुली से गवाया तो क्या उस दौर मे नए गीतकार को गवाया जाना भी कोई आपका एक प्रयास था |

o मुजफ्फर अली : नहीं वो उन दिनो की नयी आवाज थी,जो मेरी फिल्म की जरूरत भी थी, तो मैंने उन्हे लिया |

o मनीष: सर चर्चा मे था की आपने अंजुमन फिल्म मे आपने शबाना आजमी से भी एक गीत गवाया, और गाने को आपने काफी और गीतकारो से भी गवाया क्या ये सच हैं ?

o मुजफ्फर अली : नहीं नहीं, इस गीत के लिए मैने शबाना जी को ही चुना और सिर्फ उनसे ही गवाया |

o आप स्वयं सत्यजीत राय के साथ एक विज्ञापन एजेंसी मे कार्य करते थे तो क्या आपने उनके सिनेमा से भी कोई सीख ली ?

o मुजफ्फर अली :- हाँ मैं तो उसी कंपनी मे उन्ही के साथ काम करता था तो उनसे फिल्मे बनाने की प्रेरणा ली की कैसे फिल्म के विषय को हैंडल किया जाय और किस विषय को समाज मे आईना बना कर दिखाये |

o उमराव जान बनाने से पहले आपने लगभग 10 सालो तक इस पर काम किया, और इसी बीच आपने गमन बना ली थी तो क्या आपको लगता हैं की गमन मे आपने जल्दी की या उमराव जान के हिट होने का यही कारण हैं की आज सभी के दिलो मे राज कर रही हैं ये फिल्म ?

o मुजफ्फर अली :- नहीं मैंने गमन पहले बनाई पर उमराव जान पर काम बहुत पहले से ही कर रहा था, उसकी कहानी, पटकथा को बेहतर से बेहतर करके उस पर फिल्म बनाने की योजना ही फिल्म की सफलता हैं |

o फैशन डिजाइनिंग, स्कैचिंग,और संगीत से आपका बहुत गहरा नाता रहा हैं तो क्या आपने इन तीनों का अपनी फिल्मों मे भी स्वयं प्रयोग किया या किसी की मदद ली?

o मुजफ्फर अली :- जी हाँ गमन मे मैंने खुद ही स्कैचिंग की और संगीत के प्रयोग के लिए मैंने सूफी संगीत को वरीयता दी जो उन दिनो के समाज के लिए बेहतर प्रयोग था और मेरा लगाव भी|

o आपकी नज़र मे लखनऊ की संस्कृति की मुख्य विशेषता क्या हैं?

o मुजफ्फर अली: अदब और गंगा जमुनी तहजीब लखनऊ को जीवंतता प्रदान करता है |

o फिल्मों के माध्यम से आपने क्यो लखनऊ की संस्कृति को सामने लाना जरूरी समझा?

o मुजफ्फर अली:- मुझे लगता हैं की फिल्मे बिना मकसद के नहीं बननी चाहिए, हर फिल्म का कोई न कोई उद्देश्य जरूर होना चाहिए, फिल्मे बनाने वाले या बनवाने वाले के दिमाग मे यह साफ होना चाहिए की वो फिल्म को क्यो बना रहा हैं और हमारी फिल्मों का उद्देश्य गंगा जमुनी तहजीब और वहाँ के समाज को दुनिया के सामने दिखने का एक प्रयास हैं,मैं साहित्य का भी सहारा ले सकता था पर समाज पर जितना असर सिनेमा का होता हैं उसके कही ज्यादा शायरी का होता हैं तो मैंने अपने सिनेमा मे शायरी को प्राथमिकता दी |

o सर आप आने वाले दिनो मे कोई फिल्म बना रहे हैं या किसी फिल्म पर काम कर रहे है?

o मुजफ्फर अली: हसते हुए : इसी के लिए तो मुंबई आया हूँ, हाँ मैं लखनऊ की ही संस्कृति पर बन रही एक फिल्म के गाने की रिकार्डिंग का काम कर रहा हूँ |

o मनीष : सर फिल्म का नाम ?

o मुजफ्फर अली : रश्क

o मनीष : सर आप रूमी पर फिल्म बना रहे थे ?

o मुजफ्फर अली : हाँ वो अभी बंद कर दी हैं इस फिल्म के बाद शायद शुरू करू | हालांकि मैं रूमी पर जो फिल्म बना रहा था उसकी 24 पटकथा लिख चुका हूँ और अंतर्राष्ट्रीय परामर्शदाता को भेजता हूँ और उधर से भी मुझे अपनी राय भेजते हैं फिर उसी राय पर मैं अपनी पटकथा को फिर से लिखता हूँ, और जब तक बेहतर नतीजे पर नहीं पहुंचता तब तक पटकथा पर ही काम करूंगा, इसीलिए इस फिल्म पर थोड़ा वक़्त लग रहा है |

o मनीष : सर आप कश्मीर पर फिल्म बना रहे थे ?

o मुजफ्फर अली : धीरे से मुसकुराते हुए, हाँ वो भी साइड मे चल रही हैं |

शोध विषय के साक्षात्कार के दौरान महान निर्देशक मुजफ्फर अली से बात कर शोध के उद्देश्य को पूरा करने मे काफी मदद मिली और नयी जानकारियाँ भी प्राप्त हुई , इसके लिए हम मुजफ्फर अली जी के आभारी रहेंगे |

मनीष कुमार जैसल

एम॰ फिल॰ नाट्य कला एवं फिल्म अध्ययन विभाग

म॰ गा॰ अ॰ हि॰ वि॰

वर्धा, महाराष्ट्र

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