मेरी माँ अपने जन्म की कहानी सुनाती थी– लोगों ने पूछा- क्या हुआ दाई ने कहा- बेटी। पूछनेवाले ने कहा- कोई बात नहीं , बेटी भी तो दुर्लभ थी। तभी उसका नाम दुर्लभ रख दिया गया।
मेरी माँ पढ़ना लिखना नहीं जानती थी पर अपना नाम दुर्लभ देवी बांग्ला में हमलोगों के जिद्द करने पर उसने लिखा था.। हमलोग चकित हो गए थे। बचपन में मासे गुरुजी की पाठशाला में वह पढ़ी थी।गिनती वह कोड़ी तक कर लेती थी। उसका कोड़ी हमारा बीस था।
हमारे पिता स्कूल शिक्षक थे। पहली तारीख को अपना वेतन लाकर माँ को दे देते। जब जरूरत होती, माँ से माँगते। माँ अक्सर कहती, पैसे नहीं हैं। पिताजी नाराज होते। जोर जोर से नाराजगी जाहिर करते। माँ चुप रहती, कभी कभार आँसू बहाती। मुँह से कुछ नहीं कहती. रस्साकसी के अन्त में कभी कभार पाँच की माँग पर दो रुपए निकालती,। पिताजी उतना ही ले लेते। माँ हमसे कहती– इनका क्रोध!, साग में हल्दी क्यों नहीं दिया?
पिताजी के साथ माँ का श्रम-विभाजन स्पष्ट था। पूरा वेतन मां के हाथ देकर व्यवस्था की ओर से वे निश्चिन्त रहते थे। जब जब जरुरत समझते माँ के पास बेझिझक फरमा देते। माँ उससे ही घर चलाती, बचत भी करती। नुनदा, हमारे बड़े भाई, उसके सहायक की भूमिका मे रहा करते। पिताजी के द्वारा निरुत्साहित किए जाने के बावजूद उसने जोड़ जोड़कर बचाए गए पैसों की पूँजी के भरोसे घर बनवाने का काम शुरु कर दिया था।
मैं अपनी माँ में किताबी माँ को नहीं पाकर निराश हो जाता था, एक बार उससे कहा भी था कि माँ तो ऐसी होती है, वैसी होती है, और तुम तो बिलकुल अलग हो। वह शायद कुछ समझ नहीं पाई थी। उसे दुख भी हुआ हो ऐसा भी जाहिर नहीं लगा। हम उससे कभी नहीं कह पाए कि तुम सर्वसहा हो। वह कभी कभी अपने बारे में कहती थी, “सीता का जनम खोह में ही बीता”
तब में भागलपुर में इण्टरमिडिएट में पढ़ता था। छुट्रियों में घर आया था .शाम का वक्त था। सामान पटक कर मित्रों में अड्डेबाजी के लिए निकलने लगा। माँ बरामदे पर बैठी थी। मुझसे बोली– मेरे पास बैठो। मैंने कहा- क्या काम है. उसने कहा, तुम्हारा मुँह देखूँ. मैंने उसके सामने बैठ गया और झल्लाते हुए बोला- देख लो। वह कुछ नहीं बोली बस निहारती रही। मैं फिर निकल गया।
मैंने कॉलेज में साइन्स की पढ़ाई में नामांकन कराया था। नामांकन के बाद जब घर आया तो माँ ने पूछा कि क्या तुम वही पढ़ाई करोगे जो झलकू कर रहा रहा था। झलकू मेरे मँझले भाई थे जिनका आईएससी की पढ़ाई करते वक्त दस साल पहले मेनिन्जाइटिस की बीमारी से देहान्त हो गया था। यह हमारे परिवार के लिए असहनीय घटना थी। मेरे हाँ कहने पर वह चिन्ता में पड़ गई थी। बोली थी, झलकू ने कहा था, घण्टे भर खड़ा होकर पढ़ाई करना पड़ता है। तुम तो उससे भी दुबले हो। मेरे उस भैया का देहान्त इण्टर के प्रथम वर्ष में ही हो गया था। वह डरी हुई थी, अपने को असहाय महसूस कर रही थी।
नौकरी शुरु करने के बाद एक बार जब घर आया था, मालूम हुआ कि माँ ने बताया कि उसकी तबियत कुछअधिक ही बिगड़ गई थी। उस समय उसने कहा था कि मेरी मृत्यु होगी तो तुमको और ऊषा (हमारी बहन) तार से ही मालूम होगा। तुमलोग तो बाद ही में आओगे।मैंने सुन लिया था। हुआ भी वही।
प्रयाग में कुम्भ का मेला लगा था. देवघर से औरते जाने के लिए प्रस्तुत हो रही थीं. माँ के पास भी उसको प्रेरित करने आ रही तीं. मआं का मन भी अस्थिर हो रहा था। पिताजी ने उसको बहलाया– अभी तुम्हारे बेटे पढ़ रहे हैं। यह बड़ा कुम्भ है। ये पाँच भाई पढ़ लेंगे. कमाने लगेंगे तो हम दोनो हर साल दूर दूर के एक एक तीर्थ किया करेंगे। अभी तो इनकी पढ़ाई ही तुम्हारा तीर्थ है। माँ मान गई थी। समाज के दबाव से बचने के लिए गाँव पर चली गई.।
एक बार सुल्तानगंज से जल लेकर पैदल आने की उसकी कामना पूरी हुई थी। हमारे मँझले भाई श्री श्यामानन्दजी के साथ और सेवा की वजह से यह सम्भव हुआ था। वह कहती थी- कि बुतरुः श्यामानन्दजी ) रोज रात मेरे पाँवों में तेल मालिश कर देता था।