मजबूरी का नाम नवजोत सिंह सिद्धू

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navjotपंजाब में आम आदमी पार्टी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार मिल गया है. नवजोत सिंह सिद्धू आप के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. उनके इस्तीफे ने सभी को हैरान कर दिया, लेकिन सबसे ज्यादा परेशान बीजेपी के नेता दिखे जिनसे कुछ बोलते ही नहीं बना. लेकिन पंजाब में बीजेपी कार्यकर्ताओं का तो दिल ही बैठ गया. जिन लोगों ने नवजोत सिंह सिद्धू को क्रिकेट के मैदान में खेलते देखा है वो यह जानते हैं कि सिद्धू फ्रंट-फुट ड्राइव यानि कदम आगे बढ़ कर छक्का लगाने में माहिर थे. सिद्धू के पैरों की हरकत से ही पता चल जाता था कि “ खटैक… और ये लगा छक्का !! बीजेपी नवजोत सिंह सिद्धू की राजनीतिक पदचाप को समझ न सकी और सिद्धू ने एक जबरदस्त फ्रंट-फुट ड्राइव दे मारा. एक ही झटके में, नवजोत सिंह सिद्धू ने पंजाब के मुख्यमंत्री की कुर्सी की अग्रिम बुकिंग कर दी है. यह भविष्यवाणी नहीं है. जमीनी हकीकत है कि नवजोत सिंह सिद्धू के आने से पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत सुनिश्चित हो गई है. लेकिन सवाल यह है कि केजरीवाल इस बात के लिए राजी क्यों हुए और सिद्धू ने बीजेपी छोड़ने का फैसला क्यों किया?

सबसे पहले आम आदमी पार्टी की मजबूरी को समझते हैं. 2019 में केजरीवाल प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. इसके लिए 2019 से पहले आप का पंजाब, गोवा या गुजरात में से किसी एक राज्य में चुनाव जीतना जरूरी है. अन्यथा वह सिर्फ दिल्ली के नेता ही माने जाएंगे और प्रधानमंत्री पद की रेस से स्वत: बाहर हो जाएंगे. केजरीवाल को यह बात अच्छी तरह पता है कि इन तीन राज्यों में से सिर्फ पंजाब में वह चुनाव जीतने की स्थिति में हैं. केजरीवाल जानते हैं कि पंजाब ही एकमात्र राज्य है जिसे जीतकर वह 2019 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन सकते हैं. फिलहाल, पंजाब की स्थिति आप के अनुकूल है और वहां वह चुनाव जीतने की स्थिति में है. लेकिन पंजाब का मुख्यमंत्री कौन होगा? यह एक समस्या उनके सामने पैदा हो गई. पंजाब में आम आदमी पार्टी के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं था जिसे लोगों के सामने भावी मुख्यमंत्री के रूप पेश किया जा सके. इस स्थिति से निपटने के लिए सारी तैयारी हो चुकी थी. केजरीवाल स्वयं पंजाब के मुख्यमंत्री बनने वाले थे. दिल्ली की तरह जनता की मांग और जनता की राय का हवाला देकर केजरीवाल के नाम को मीडिया के जरिए उछाला जाता और केजरीवाल पंजाब चले गए होते. यही वजह है कि कुछ दिन पहले नवजोत सिंह सिद्धू ने जब आम आदमी पार्टी में शामिल होने और मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने की शर्त केजरीवाल के सामने रखी तो उन्होंने मना कर दिया था. लेकिन पिछले कुछ दिनों में पार्टी के अंदर और पार्टी के बाहर जिस तरह की समस्याएं पैदा हुईं उससे सिद्धू का रास्ता साफ हो गया.

पंजाब में कोई गैर-सिख भी मुख्यमंत्री बन सकता है यह बात किसी के गले नहीं उतर रही थी. आम आदमी पार्टी को यह लग रहा था कि जीत सुनिश्चित करने के लिए उन्हें किसी सिख चेहरे की जरूरत होगी. लेकिन जब केजरीवाल स्वयं पंजाब आने को तैयार हो गए तो यह सवाल खत्म हो गया था. लेकिन इस बीच नेताओं के बड़बोलेपन की वजह से आम आदमी पार्टी धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप से घिर गई. एक तरफ गलत बयान और गलत तस्वीर छपी, दूसरी तरफ केजरीवाल ने माफ़ी नहीं मांगूंगा जैसे बयान दिए. इस कारण आम आदमी पार्टी इस विवाद में बुरी तरह फंस गई. आम आदमी पार्टी और केजरीवाल को इस विवाद में बुरी तरह घेरने में कांग्रेस और अकाली दल ने कोई कोर -कसर नहीं छोड़ी. मीडिया में भी यह मामला छाया रहा. इस वजह से केजरीवाल और उनके सहयोगी दबाव में आ गए. इसके अलावा पंजाब में कुंडली मारकर बैठे दिल्ली के नेताओं के खिलाफ में पार्टी के अंदर विरोध शुरु हो गया. पंजाब के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने सार्वजनिक रूप से यह कहना शुरु कर दिया था कि यदि सारा काम दिल्ली के नेता ही करेंगे तो पंजाब में संगठन की क्या जरूरत है. स्थानीय नेताओं ने खुल कर यह भी कहना शुरु कर दिया कि दिल्लीवालों को पंजाब के बारे में क्या पता है? स्थानीय कार्यकर्ताओं को यह लगने लगा था कि दिल्ली से आए नेता अपनी नेतागिरी चमकाने के चक्कर में स्थानीय लोगों को आगे नहीं बढ़ने दे रहे हैं. मीडिया में भी दिल्ली के नेताओं के नाम और तस्वीरें छप रही थीं.

इसके अलावा दिल्ली के नेताओं के व्यवहार और बर्ताव से भी स्थानीय नेता नाराज चल रहे थे. मतलब यह कि पंजाब की आप-यूनिट में दिल्ली से आए नेताओं का विरोध होना शुरु हो गया था. आशीष खेतान की गलत बयानी की वजह से पार्टी विरोधियों के निशाने पर तो थी ही, ऐसे में पार्टी के अंदर भी कोहराम मच गया. जब केजरीवाल स्वर्ण मंदिर में क्षमा-याचना स्वरूप जूठन साफ करने पहुंचे, तो वहां भी गलती कर बैठे. कैमरे में यह साफ साफ कैद हो गया कि केजरीवाल पहले से साफ प्लेटों को ही साफ कर रहे थे. इस बात पर जब मीडिया में कहानी शुरू हुई और हरसिमरत कौर ने जब इस मामले को लेकर हमला किया तो केजरीवाल टूट गए. उन्हें समझ में आ गया कि पंजाब में अब उनकी दाल नहीं गलने वाली, उन्हें एक सिख नेता चाहिए. इसी वजह से नवजोत सिंह सिद्धू से दोबारा बात हुई. सिद्धू की शर्त को मंजूर किया गया. बातचीत में यह भी तय हो गया कि वो राज्यसभा से और उनकी पत्नी पंजाब सरकार से इस्तीफा देंगी. आम आदमी पार्टी के पास नेता नहीं था और सिद्धू के पास पार्टी नहीं थी. ये दोनों मजबूरियां सिद्धू के लिए अवसर में बदल गईं. अब वह आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतरेंगे.

जहां तक बात भारतीय जनता पार्टी है तो सिद्धू के बाहर जाते ही पंजाब में पार्टी धम्म से नीचे गिर गई. नवजोत सिंह सिद्धू को बीजेपी से ज्यादा अकाली दल से समस्या है. सिद्धू और उनकी पत्नी का मानना है कि बीजेपी को अकाली दल से रिश्ते तोड़ लेना चाहिए. दरअसल, सच्चाई यह है कि बीजेपी का हर कार्यकर्ता भी यही चाहता है लेकिन जिस तरह सिद्धू की बात पार्टी आलाकमान तक नहीं पहुंच रही थी उसी तरह कार्यकर्ताओं की बात भी कोई नहीं सुन रहा है. लोकसभा चुनाव में नवजोत सिंह सिद्धू का टिकट काटकर अरुण जेटली को दिया गया था. इस वजह से भी वह नाराज चल रहे थे. जब बीजेपी को यह लगा कि सिद्धू आम आदमी पार्टी में शामिल हो सकते हैं तो उन्हें राज्यसभा भेजा गया. लेकिन, अब जब पंजाब में चुनाव होने वाले हैं और उन्हें यह विश्वास हो गया कि बीजेपी आलाकमान अकाली दल से अलग होने का निर्णय नहीं लेगा तो उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया.
पंजाब की लड़ाई अब सीधे-सीधे बादल परिवार बनाम नवजोत सिद्धू में तब्दील हो गई है. कांग्रेस की स्थिति ठीक दिल्ली जैसी हो गई है. पंजाब चुनाव में प्रशांत किशोर की साख भी दांव पर लगी है. बीजेपी को अकाली दल की दोस्ती मंहगी पड़ने वाली है. पंजाब में बीजेपी ने सिर्फ नवजोत सिंह सिद्धू को नहीं खोया बल्कि कई समर्थकों का विश्वास भी खोया है.

3 COMMENTS

  1. यह डॉक्टर मनीष कुमार का अपना विश्लेषण है,इसपर इस मैं ज्यादा नहीं बोलना चाहता,पर डॉक्टर मनीष कुमार का यह कहना कि श्री नवजोत सिंह सिध्धू के रूप में आआप को पंजाब में मुख्य मंत्री का चेहरा मिल गया है,मुझे दूर की कौड़ी लगता है.

  2. मेरे पास अभी समय नहीं है लेकिन सामान्य विषय होने पर मैं अपनी निम्नलिखित टिप्पणी जो एक अंग्रेजी समाचारपत्र के लिए लिखी गई है, उसे यहाँ प्रस्तुत करता हूँ|

    It is more a question of overall quality of leadership in India, the leadership that favorably impacts every sphere of Indian society. A strong leadership and its influence in education and industry generates and supports visionary and transformational leadership in government to the advantage of the citizens. But in India, citizens willingly or unknowingly p a r t I c I p a t e in an inherently flawed system that was imposed on them soon after the so called independence. I have, since then, seen and felt it emerge as the only system the gullible masses have accepted as if it was part of their destiny with no questions ever asked! System is the crowd-management. You may call it the absolute rule of the game. Those who oppose it or do not go along willingly are p u n I s h e d.

    Bhagwant Mann is only an ordinary element in that unique system because of his “charismatic leadership” as a comedian to gather crowds for the “absolute ruler” of the vast country such as ours with its strength in number and resources at its service. Don’t blame Bhagwant Mann in the “The land of elected criminals” as described by Tavleen Singh.

    Unless the Indian masses p a r t I c I p a t e and support PM Narendra Modi’s nationalist government as a new experiment in nationalism through Hindutva, favored in practice all around the developed world, they stand no chance in b r e a k I n g their destiny of being crowd-managed by the anti-India elements in politics and beyond.

  3. भा ज पा को अपनी इस गलती का अंजाम भुगतना ही पड़ेगा , लेकिन सिध्दू के लिए भी इतना आसान नहीं होगा , अकाली इतनी सरलता से घुटने टेकने वाले नहीं है ,सरकार बनने के बाद भी परेशानियां आएँगी , भा ज पा के लिए एन डी ए को तोड़ने के इल्जाम से बचने के लिए अकालियों को साथ रखना मज़बूरी था , , समय रहते इस विषय पर ढंग से नीति बनाने की जरुरत थी लेकिन अमित शाह व मोदी यू पी पर ही आँखे गड़ाए रहे व यहाँ नुक्सान करा बैठे

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