आखिर अच्छे दिन ऐसे ही तो नहीं आ जाएंगे, क्यों ?

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-मिलन सिन्हा-
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लोकसभा चुनाव के गहमागहमी के बाद एक बार फिर तेल का वही पुराना किस्सा प्रारम्भ हो गया है, रसोई गैस के रियायती सिलेंडर के नौ-बारह वाली कथा भी साथ में चलने लगी है। बताने की जरूरत नहीं है कि तेल के दाम में बढ़ोतरी का व्यापक प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आम लोगों के उपयोग की सभी चीजों एवं सेवाओं पर पड़ना लाजिमी है। लेकिन क्या बड़े-बड़े वादों के साथ चुनाव जीत कर संसद व विधान मंडल में जानेवाले हमारे प्रतिनिधि-प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक को वाकई आम जनता को होने वाली परेशानी से कोई खास मतलब है, जिन्हें जनता के ही पैसे से असीमित तेल खर्च करने की आजादी इस आजाद गणतंत्र में सहज प्राप्त है? यह सचमुच विचारणीय विषय है, विशेषकर आज के सन्दर्भ में जब कि देश की जनता ने एक ऐसी सरकार को केन्द्र में सत्तारूढ़ किया है जिसने यह स्पष्ट भरोसा दिया है कि ‘अच्छे दिन आनेवाले हैं।’

मंत्रियों, बड़े नेताओं व अधिकारिओं के काफिले के साथ दौड़ती मोटर गाड़ियों को देखें तो आपको तेल सहित करदाताओं के पैसे से जुटाए अन्य संसाधनों के अपव्यय का सहज अंदाजा हो जाएगा। बड़े स्कूल, कॉलेज, मॉल, सिनेमा हॉल, सब्जी बाजार आदि के पास आपको यथासमय रहने का मौका मिलने पर स्वतः पता चल जाता है कि मंत्रियों, नेताओं, अधिकारियों के द्वारा सरकारी वाहनों का कितना और कैसा दुरुपयोग शुद्ध निजी कार्यों के लिए किया जाता है, जिस पर हजारों करोड़ रूपया साल दर साल खर्च होता है।

ज्ञातव्य है कि भारत में सिर्फ यात्री वाहनों की संख्या चार करोड़ से ज्यादा है। हर साल देश में 110 लाख वाहन का उत्पादन होता है। भारत विश्व के दस बड़े वाहन उत्पादक देशों में से एक है। लेकिन विडंबना है कि देश में खनिज तेल जरूरत की तुलना में मात्र 20% है, अर्थात देश के कुल तेल खपत का 80 % आयात से पूरा किया जाता है, जिस पर वित्त वर्ष 2012 -13 में 164 बिलियन डालर (यानी करीब 10 लाख करोड़ रूपया) चुकाना पड़ा था जिसके चलते हमारा करंट अकाउंट डेफिसिट (चालू खाता घाटा) और बढ़ गया। गंभीर विषय यह है कि देश में तेल पर चलनेवाले वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है; सड़कें छोटी पड़ती जा रही हैं; जाम के स्थिति आम हो गई है; वायु प्रदूषण बढ़ता जा रहा है; देश की राजधानी विश्व के कुछ सबसे बड़े प्रदूषित शहरों में शामिल हो गया है; बच्चे, बूढ़े सभी भीड़ भरे सड़कों पर हलकान हो रहे हैं; सड़क दुर्घटनाओं की संख्या भी निरंतर बढती जा रही है और इन सबका दुष्प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था से लेकर आम लोगों के सेहत पर पड़ रहा है।

कहने का सीधा अभिप्राय यह है कि बिना वक्त गंवाए देशभर के सरकारी महकमे में तेल के खपत को अत्यधिक कम किया जाना निहायत जरूरी है जिसकी शुरुआत केंद्र एवं राज्यों के मंत्रियों और अधिकारियों द्वारा निजी कार्यों के लिए सरकारी वाहन का उपयोग बंद करने से हो। इससे एक सार्थक सन्देश आम लोगों तक जाएगा। देश के प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्य मंत्रियों को अपने अपने काफिले में कम से कम गाड़ियों को शामिल करने का निर्णय स्वयं लेना चाहिए जिससे खर्च में कटौती हो। हां, इसके साथ-साथ अन्य अनेक ज्ञात उपाय तेल के दुरुपयोग को रोकने और खपत को कम करने के दिशा में किये जाने के जरूरत तो है ही। आखिर अच्छे दिन ऐसे ही तो नहीं आ जाएंगे, क्यों ?

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