‘अच्छे दिनों’ की शुरुआत आम जनता से या मीसा बंदियों से?

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-तनवीर जाफ़री-
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‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ जैसा लोकलुभावना नारा जनता को देकर सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार अच्छे दिनों की शुरुआत आम जनता को दिए जाने वाले किसी लोकहितकारी तोहफे से करने के बजाए आपातकाल में जेल भेजे गए बंदियों से करने की योजना बना रही है। गोया आम आदमी की ख़ून-पसीने की गाढ़ी कमाई का पैसा नेताओं व अन्य मीसा बंदियों को पेंशन के रूप में दिए जाने पर विचार किया जा रहा है। इमरजेंसी के दौरान गिरफ़तार किए गए ऐसे बंदियों को पेंशन स्वरूप न केवल आर्थिक मानदेय दिए जाने पर केंद्र सरकार ‘ग़ौर करा’ रही है बल्कि इन बंदियों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बराबर का दर्जा दिए जाने पर भी विचार किया जा रहा है। सवाल यह है कि क्या 1975-77 के मध्य देश में लगी इमरजेंसी के दौरान गिरफ़तार किए गए लोगों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के समतुल्य समझा जा सकता है? और उन्हें स्वतंत्रता सेनानी के समतुल्य होने के बहाने से आर्थिक सहायता दिए जाने की कोशिश को न्यायोचित ठहराया जा सकता है? क्या यह जनता की मेहनत की कमाई का सदुपयोग माना जाएगा?

सर्वविदित है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली और अंतिम बार तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी के शासन काल में 39 वर्ष पूर्व 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा की गई थी। इसे 21 मार्च 1977 को अर्थात् लगभग 19 महीनों के बाद हटाया गया था। प्रधानमंत्री की सलाह पर तत्कालीन राष्ट्रपति फ़खरूद्दीन अली अहमद ने इस आशय का एक अध्यादेश जारी किया था जिसमें बताया गया था कि किस प्रकार से इस समय राष्ट्र खतरे में है। आम लोगों के तमाम मौलिक अधिकार छीन लिए गए थे तथा मीडिया परा सेंसरशिप लागू हो गई थी। कहने को तो यह सबकुछ देश में फैली राजनैतिक अस्थिरता, देश में बढ़ती जा रही अराजकता तथा पड़ोसी देश पाकिस्तान से होने वाले खतरों के नाम पर किया जा रहा था। परंतु वास्तव में आपातकाल लगाए जाने की बुनियाद उस समय पड़ चुकी थी जबकि इंदिरा गांधी 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राज नारायण द्वारा दायर एक मुक़दमे में पराजित हो गई थीं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले के बाद हालांकि उच्चतम न्यायालय ने उन्हें राहत अवश्य दे दी थी परंतु विपक्षी दलों द्वारा इंदिरा गांधी पर त्यागपत्र दिए जाने का दबाव बढ़ता जा रहा था। 25 जून 1975 अर्थात् जिस दिन से आपातकाल लागू करने की घोषणा की गई। ठीक उसी दिन से समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने पूरे देश के राज्य मुख्यालयों पर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र की मांग को लेकर प्रतिदिन लगातार प्रदर्शन किए जाने का आह्वान किया था। परंतु इंदिरा गांधी ने अपने विरोधियों को कुचलने की ठानते हुए संविधान की धारा 352 में दिए गए प्रधानमंत्री के विशेषाधिकारों का प्रयोग करते हुए देश में आपातकाल की घोषणा कर दी तथा पूरे देश में बड़े पैमाने पर अपने विरोधियों को गिरफ्तार कर उन्हें जेल में डाल दिया।

देश में पहली बार लगी इस इमरजेंसी से फ़िल्म निर्माता तथा लेखक भी स्वयं को दूर नहीं रख सके। नोबल पुरस्कार विजेता वीएस नायपाल ने ‘इंडिया ए वुंडेड कंट्री’ नामक पुस्तक लिख डाली तो सलमान रुश्दी ने मिडनाईट चिल्ड्रन लिखकर भारत में लगी एमरजेंसी का जि़क्र किया। इसी प्रकार क़िस्सा कुर्सी का,आंधी तथा नसबंदी जैसी फ़िल्मों में आपातकाल की छाप दिखाई दी। प्राय: चारों ओर से इंदिरा गांधी को तानाशाह, सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाकर रखने की प्रवृति रखने वाली महिला तथा लोकतंत्र की हत्यारी बताने की कोशिश की जाने लगी। ज़ाहिर है आपातकाल विरोधी इस प्रचार ने इंदिरा गांधी को एक तानाशाह के रूप में देश के समक्ष प्रचारित किया जिसका परिणाम 1977 में हुए आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भुगतना पड़ा। उस समय देश में पहली बार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार सत्ता में आई। परंतु इसी तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है जिसे छुपाने तथा उसपर पर्दा डालने की कोशिश की जाती रही है। भले ही इंदिरा गांधी ने स्वयं को सत्ता में रखने के लिए देश में इमरजेंसी क्यों न लगाई हो परंतु 1975 व उससे पहले के उन वर्षों को क्या भुलाया जा सकता है जबकि पूरे देश में कांग्रेस विरोधी राजनैतिक दलों द्वारा अपने मौलिक अधिकारों के प्रयोग की आड़ में जगह-जगह उद्योग-धंधे ठप्प कराए जा रहे थे? रेल के चक्के जाम किए जा रहे थे। लोकतंत्र के नाम पर होने वाले धरने-प्रदर्शन हिंसा का रूप लेने लगे थे। क्या सरकारी तो क्या ग़ैर सरकारी कार्यालय हर जगह धरने-प्रदर्शन, भूख-हड़ताल का नज़ारा देखने को मिलता था। और हद तो उस समय हो गई जबकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद दूसरे सबसे बड़े राजनैतिक नेता की हत्या भी उसी दौरान हुई जबकि 3 जनवरी 1975 को तत्कालीन केंद्रीय रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा को समस्तीपुर में एक जनसभा के दौरान उनकी स्टेज के नीचे बम रखकर उड़ा दिया गया था। देश में किसी केंद्रीय मंत्री की इस प्रकार से की गई यह पहली हत्या थी।

इन बिगड़ते हालात के मध्य देश में आपातकाल लागू कर दिया गया। आपातकाल की घोषणा होने के फ़ौरन बाद ही निश्चित रूप से कांग्रेस विरोधियों पर ज़ुल्म के पहाड़ टूटने लगे। कोई पकड़ा गया तो कोई लुकछिप कर इधर-उधर भागता फिरा। परंतु देश की आम जतना का इस इमरजेंसी के दौरान जो अनुभव रहा वह कांग्रेस का विरोध करने वाले अथवा आपातकाल के भुक्तभोगी लोगों से कुछ अलग ही था। आपातकाल के दौरान पूरे देश में रेलगाडिय़ां तथा बसें समय से चलने लगी थीं। सरकारी कार्यालायों में कर्मचारियों की पूरी उपस्थिति निर्धारति समय पर होने लगी थी। उद्योग-धन्धे पूरे देश में सुचारू रूप से चलने लगे थे। धरने-प्रदर्शन,हड़ताल आदि समाप्त हो गए थे। देश में आपराधिक गतिविधियों का ग्राफ़ काफ़ी नीचे चला गया था। सुरक्षाकर्मी पूरे देश में मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी अंजाम देने लगे थे। रिश्वतखोरी, जमाखोरी, चोरबाज़ारी, कालाबाज़ारी, मिलावटख़ोरी सब कुछ नियंत्रित हो गया था। गोया जनता अच्छे दिनों की शुरुआत उन्हीं दिनों में महसूस करने लगी थी। परंतु कांग्रेस विरोधी दलों ने एकजुट होकर इंदिरा गांधी को लोकतंत्र का हत्यारा व तानाशाह प्रचारित कर उन्हें सत्ता से हटा तो ज़रूर दिया मगर मात्र ढाई वर्षों के बाद वही लोकतंत्र की कथित हत्यारी 1979 में पुन: इसी देश की जनता द्वारा निर्वाचित कर सत्ता में वापस भी आ गई।

ऐसे में सवाल यहउठता है कि क्या आपातकाल के दौरान गिरफ्तार किए गए लोगों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जैसा सम्मान दिया जाना मुनासिब है? और साथ साथ जनता के पैसों से उन बंदियों को पेंशन स्वरूप धनराशि दी जानी चाहिए? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक राज्यसभा सदस्य द्वारा इस संबंध में लिखे गए एक पत्र के उत्तर में यह कहा है कि मैं इस मामले पर ‘गौर करवा रहा हूं’। गोया केंद्र सरकार के स्तर पर अब ऐसा निर्णय लिए जाने की संभावना बन रही है। यहां यह बताना ज़रूरी है कि नरेंद्र मोदी अपने गुजरात राज्य में पहले ही मीसाबंदियों को पेंशन देने की व्यवस्था शुरु कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त भाजपा शासित राज्यों मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में भी ऐसे बंदियों को पेंशन दी जा रही है।

राजस्थान, उत्तरांचल तथा हिमाचल प्रदेश में भी भाजपा के शासनकाल में आपातकाल बंदियों को मानदेय दिए जाने की व्यवस्था की गई थी जिसे राज्य में कांग्रेस सरकार आने के बाद समाप्त कर दिया गया था। अब मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने राजस्थान में पुन: यह पेंशन शुरु करने का इरादा ज़ाहिर किया है। तमिलनाडू व पंजाब में भी मीसाबंदियों को भत्ता दिया जा रहा है। बिहार में जेपी सम्मान निधि के नाम से इमरजेंसी के बंदियों को मानदेय दिए जाने की व्यवस्था है तो उत्तर प्रदेश में ऐसे बंदियों को तीन हज़ार रुपये प्रतिमाह ‘लोकतंत्र रक्षक सेनानियों’ के नाम पर देना शुरू किया गया है। गोया राजनैतिक दलों द्वारा जनता के ख़ून-पसीने की गाढ़ी कमाई को दोनों हाथों से अपनी ‘राजनैतिक बिरादरी’ के ऊपर लुटाया जा रहा है। रही-सही कसर संभवत: केंद्र की मोदी सरकार पूरी करने जा रही है। गोया आम लोगों से ‘अच्छे दिन’ लाने का जो वादा किया गया था उसकी शुरुआत आम लोगों से करने के बजाए कांग्रेस का विरोध करने वाले राजनैतिक दलों व उनसे संबंधित आपातकाल के बंदियों से किए जाने की संभावना है।

गोया उस प्रसिद्ध कहावत को चरितार्थ किया जा रहा है जिसमें कहा गया है कि अंधा बांटे रेवड़ियां फिर-फिर अपनों को। यानी अच्छे दिनों की सौगात अपने सहयोगी व कांग्रेस के विरोधियों के लिए? और जिस आम जनता व मतदाता से ‘अच्छे दिनों’ का वादा किया गया था उनके हिस्से में बढ़ा हुआ रेल किराया, डीज़ल व पेट्रोल के मूल्यों में वृद्धि, प्रतिमाह दस रुपये गैस सिंलेंडर के मूल्य बढ़ाए जाने की योजना, चीनी के बढ़ते मूल्य,मंहगाई कम करने के नाम पर मात्र बैठकों का दिखावा? क्या यही है आम जनता के लिए अच्छे दिनों की सौगात? कितना अच्छा होता यदि मीसा बंदियों पर आम जनता का पैसा लुटाए जाने की योजना पर ‘ग़ौर करवाने’ के बजाए किसी ऐसी योजना पर मोदी जी ‘ग़ौर करवाते’ जिससे बेराज़गारों, ग़रीबों, किसानों तथा छात्रों व युवाओं को अच्छे दिन आने का आभास होता।

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