राष्ट्रीय बोध

‘बंसल’ और अश्विनी को बचाने वाले मनमोहन जी देखो, तुम्हें तुम्हारे पूर्वज देखते हैं स्वर्ग से

फिर एक हकीकत धार्मिक उन्माद के कारण फांसी चढ़ गया है। सरबजीत हमारे बीच नही हैं, अब उनकी शहादत की यादें हमारे बीच हैं, और बहुत देर तक रहेंगी। पंजाब सरकार ने आज के इस ‘हकीकत’ को ‘शहीद’ की उपाधि देने में कोई देर नही की। यह अच्छी बात हो सकती है, लेकिन शहीद की बहन की बात पर यदि गौर करें तो यह बात भी अपने आप में वजनदार है कि इतने लोग (जितने सरबजीत की अंतिम यात्रा में सम्मिलित हुए थे) यदि सरबजीत को छुड़ाने के लिए उठ खड़ होते तो आज सरबजीत सिंह जिंदा होते। हम अपने सरबजीत को जंग के लिए अकेले छोड़े रहे और जब वह नही रहे तो उनके लिए दो नारे लगा दिये या दो आंसू बहा दिये। शायद यही मानसिकता हमारा ‘राष्ट्रीय बोध’ बन चुकी है।manmohan-singh

सरबजीत की बहन दलबीर कौर ने भारत के नेतृत्व और युवा वर्ग को फिर संभलने और कुछ करने का पैगाम ये कहकर दे डाला है कि अब वह पाकिस्तान की जेल में बंद अन्य सरबजीतों के लिए लड़ाई लड़ेंगी। उनका ये कहना साफ करता है कि हमें रूकना नही है, पाकिस्तान की जेलों में बंद अनेकों भारतीय कैदी सरबजीत की सी गुमनामी की और जुल्मों सितम से भरी दर्दनाक जिंदगी जी रहे हैं। उन्हें छुड़ाना है और उनके लिए काम करना है। एक दलबीर ने हिम्मत की और वह अपने भाई को ‘मातृभूमि’ की गोद में लिटाने के लिए ले आयी, परंतु ऐसी कितनी ही दलबीरें हैं, जो ना तो इतना साहस कर सकी हैं और ना ही अपने भाईयों को किसी भी प्रकार से यहां ला पायीं हैं।

ऐसी सारी बहनें मानो रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में दिल्ली से पूछ रही हैं:-

यह कैसी चांदनी अमा के मलिन तमिस गगन में।

कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधूलि लगन में?

मरघट में तू साज रही दिल्ली! कैसे श्रंगार?

यह बहार का स्वांग अरी, इस उजड़े हुए चमन में।

नई दिल्ली जब घोटालों के स्वांगों में भांग पीकर नाच रही हो और मनमोहन की बेसुरी मुरली पर जब सारी गोपिकाएं एक ‘महागोपिका’ के संकेत पर नाचने के लिए विवश हों, तब यहां सरबजीतों की चिंता किसे हो सकती है? सचमुच उसके लिए किसी दलबीर को ही बाहर आना पड़ेगा। वैसे भी भारत का तो इतिहास भी यही रहा है कि यहां नंदवंश के नाश के लिए चाणक्य को और अंग्रेजों को भगाने के लिए गांधी जैसे ऐसे लोगों को मैदान में आना पड़ा है जो परंपरागत राजनीति को सही रास्ता दिखाकर गये। राजनीति जब पथभ्रष्टï हो जाती है तो उसे जनता के बीच से निकला व्यक्ति रास्ता दिखाता है। राजनीति जब व्यसनों में डूब जाए या वासनाओं में फंस जाए या अपना धर्म ही भूल बैठे या आलस्य और प्रमाद के वश अपने ‘प्रेमी’ भ्रष्टाचार के साथ रंगरलियां मनाने लगे तो उसे जनता के बीच से कोई आदमी कान पकड़कर सही रास्ते पर लाता है, यह कम आश्चर्य की बात नही है।

भारत की राजनीति और भारत के राजनीतिज्ञ आज ऐसी ही स्थिति में परिस्थितियों में फंसे पड़े हैं। संसद में सौदों से चलने वाली सरकार में हर व्यक्ति पवन कुमार बंसल और अश्विनी बना बैठा है। यह कितने बड़े आश्चर्य की बात है कि पंजाब से निकलकर नई दिल्ली के शीर्ष सत्ता सोपान तक पहुंचने वाले पीएम मनमोहन सिंह को इस समय अपने बंसलों और अश्विनियों को बचाने की चिंता है जबकि उसी धरती से गहराई से जुड़ी एक बहन को इसी समय ‘सरबजीतों’ को बचाने की चिंता है। गुरूओं की शिक्षा पर कौन सा खरा उतर रहा है? इसका उत्तर खोजने के लिए अधिक दिमाग लड़ाने की आवश्यकता नही है। गुरूभूमि शहादत को नमन करने वाली रही है और यह राष्ट्रधर्म को सदा आगे रखकर चलने की प्रेरणा देने वाली रही है। नई दिल्ली के सत्तासुख में डूबकर यदि कोई ‘गुरूपुत्र’ अपना राष्ट्रधर्म भूल जाए तो इसमें गुरूभूमि का कोई दोष नही है, यह तो उस गुरूपुत्र का ही दोष है।

पर एक हकीकत ने फिर लाहौर से दिल्ली आकर ‘सोए हुए बादशाहों’ को जगाने का काम किया है, उसने न्याय की घंटी बजाई है और उसकी आत्मा  इन सोए हुए शासकों से पूछ रही है कि जब तुम राष्ट्रभक्तों के लिए कुछ नही कर सकते हो तो तुम्हें सत्ता में बने रहने का अधिकार कैसे है? सरबजीत की आत्मा मैथिलीशरण गुप्त की इन पंक्तियों को गुन गुना रही है:-

सोचो कि जीने से हमारे लाभ होता है किसे,

है कौन, मरने से हमारे हानि पहुंचेगी जिसे।

होकर न होने से बराबर हो रहे है हम यहां,

दुर्लभ मनुज जीवन वृथा ही खो रहे हैं हम यहां।

और पीएम मनमोहन के लिए यह भी कि :-

देखो, तुम्हें पूर्वज तुम्हारे देखते हैं स्वर्ग से,

करते रहे जो लोक का हित उच्च आत्मोत्सर्ग से,

है दु:ख उन्हें अगर स्वर्ग में भी पतित देख तुम्हें अरे!

सन्तान हो क्या तुम उन्हीं की राम! राम! हरे! हरे!

 

1 COMMENT

  1. सरबजीत को सरकार ने राजिये सम्मान देकर पाकिस्तान के इस आरोप को पुष्ट किया के वो राव का एजेंट था जबकि इ सच नही मना जा skta.

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