नक्सलियों का अंत जरूरी है

-गुंजेश गौतम झा- naxali

हर बार की चुनावों की तरह इस बार फिर नक्सलियों ने चुनावों के बहिष्कार का ऐलान किया है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी अनास्था को दर्शाने के लिए हिंसा का सहारा लेने से भी वे बाज नहीं आ रहे हैं। छत्तीसगढ़ और बिहार में बीते 5-6 दिनों में हुई नक्सल हिंसा इसका प्रमाण है, जिसमें दर्जनों सुरक्षाकर्मी तथा लोगों की जानें गईं तथा दर्जनों लोग घायल हुए। लेकिन सब घटनाओं के बावजूद भी न तो मतदान रूका और न ही मतदाता। चुनाव दर चुनाव यह जाहिर होता जा रहा है कि जनता लोकतांत्रिक चुनाव पद्धति में यकीन रखती है, न कि नक्सलियों के फरमान में।

नक्सलियों के फरमान का जो थोड़ा बहुत असर होता है, वह सिर्फ डर के कारण होता है। भय का राज कायम रखने के लिए नक्सली हिंसा का सहारा लेते हैं। पूर्व के विधानसभा चुनावों के बाद अब लोकसभा चुनावों में भागीदारी निभाकर बस्तर के लोगों ने साफ संदेश दे दिया है कि वे लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही अपनी समस्याओं का समाधान तलाश सकते हैं, बंदूकों से कोई हल नहीं निकाला जा सकता।

नक्सलियों को शिकायत सरकार से है। बार-बार के हमले से वे यही दिखाना चाहते हैं कि उनके निशाने पर सरकारी कर्मचारी, सुरक्षाबल के जवान रहते हैं, लेकिन जिस तरीके से वे आम जनता को भी निशाना बनाते हैं, उससे साफ नजर आता है कि उनके पास न कोई विचारधारा है, न ही नैतिकता। कुछ अरसा पहले नक्सलियों ने यात्री बस पर हमला किया था। इस बार एंबुलेंस को निशाना बनाया। नक्सली शायद युद्ध, आतंकवाद ऐसे तमाम भयावह शब्दों से भी भयानक होते जा रहे हैं। पौराणिक कथाओं में उल्लिखित उन असुरो की तरह जिन्हें अपनी क्षुधा शांत करने के लिए रोजाना निरीह इंसानों के रूप में खुराक चाहिए।

दलित-वंचित के नाम पर पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से जो हिंसक आंदोलन प्रारंभ हुआ था, आज फिरौती और अपहरण का दूसरा नाम है। एक अनुमान के अनुसार नक्सली साल में अठारह सौ करोड़ की उगाही करते है। विदेशी आकाओं से प्राप्त धन संसाधन और प्रशिक्षण के बल पर भारतीय सत्ता अधिष्ठान को उखाड़ फैकना नक्सलियों का वास्तविक लक्ष्य है। नक्सलियों ने सन् 2050 तक सत्ता पर कब्जा कर लेने का दावा भी किया है। इस तरह के आंदोलन कंबोडिया, रोमानिया, वियतनाम, आदि जिन देशों में हुए, वहां लोगों को अंततः कंगाली ही हाथ लगी। माओ और पोल पॉट ने लाखो लोगों की लाशें गिराकर खुशहाली लाने का छलावा दिया था, वह कालांतर में आत्मघाती साबित हुआ। नक्सली क्या इसी अराजकता की पुनरावृत्ति चाहते हैं? नक्सल समस्या को सामाजिक, आर्थिक पहलू से जोड़कर इसका निवारण करने के पैरोकार वस्तुतः हिंसा के इन पुजारियों के परोक्ष समर्थन ही हैं।

सुदूर आदिवासी अंचलों में प्रशासनिक अमले की दखलंदाजी को प्रारंभिक नीति-नियंताओं ने इसीलिए सीमित रखने की कोशिश की ताकि उनकी विशिष्ट पहचान और संस्कृति अक्षुण्ण बनी रह सके, किन्तु इससे वे क्षेत्र मुख्यधारा में शामिल होने से वंचित रह गए और इसी शून्य का फायदा उठाकर इन क्षेत्रों में सफलतापूर्व अलगाववादी भावना विकसित की गई। उन राष्ट्र-विरोधी ताकतों को देश में प्रचलित विकृत-सेकुलरवाद के कारण खूब प्रोत्साहन मिला। इस कुत्सित साजिश का राष्ट्रवादी शक्तियों ने विरोध किया तो उन पर सामाजिक खाई पैदा करने का आरोप लगाया गया।

सुदूर इलाकों के आदिवासियों ने मुख्यधारा में शामिल कर उनमें स्वाभिमान और राष्ट्रनिष्ठा जगाने की कोशिशों को हरसंभव तरीके से कुंद करने का पूरा प्रयास किया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अनुषंगी ईकाई-वनवासी कल्याण आश्रम जैसे राष्ट्रवादी संगठनों ने जब वनवासियों के कल्याण की योजनाएं चलाईं तो आरोप लगाया गया कि ब्राह्मणवादी शक्तियां आदिवासियों की पहचान मिटाने का काम कर रही हैं। चर्च ने अपने मतांतरण अभियान के लिए इस दुष्प्रचार का हर तरह से पोषण किया। देश के कई इलाकों में माओवादी-नक्सली और चर्च के बीच घालमेल अकारण नहीं है। इस साजिश को पहचानने की आवश्यकता है।

नक्सलवाद वस्तुतः भारतीय व्यवस्था के प्रति बगावत है। इस अघोषित युद्ध का सामना दृढ़-इच्छाशक्ति के द्वारा ही हो सकती है और इसके लिए राजनैतिक मतभेदों से ऊपर उठने की आवश्यकता है। सबसे पहले सुरक्षा विशेषज्ञों को इस मामले में स्वतंत्र रणनीति बनाने की छूट देनी चाहिए और भारतीय सत्ता अधिष्ठान को पूरे संसाधन उपलब्ध कराने चाहिए। जो क्षेत्र नक्सल मुक्त हो जाएं, उन क्षेत्रों में युद्ध स्तर पर सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा जैसे विकास कार्यों के प्रकल्प चलाने चाहिए और आदिवासियों की विशिष्ट पहचान को अक्षुण्ण रख उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। तभी नक्सल समस्या का समाधान संभव है।

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