भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के प्रति सकारात्मक सोच रखने की ज़रूरत

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निर्मल रानी

वरिष्ठ गांधीवादी नेता अन्ना हज़ारे द्वारा जंतर मंतर पर अपना आमरण अनशन समाप्त किए जाने के बाद देश में भ्रष्टाचार जैसे नासूर रूपी मुद्दे को लेकर अब एक और नई बहस छिड़ गई है। अब यह शंका ज़ाहिर की जाने लगी है कि केंद्र सरकार द्वारा अन्ना हज़ारे की जन लोकपाल विधेयक बनाए जाने की मांग को स्वीकार करने के बाद तथा इसके लिए प्रारूप समिति का गठन किए जाने के बाद क्या अब इस बात की उमीद की जा सकती है कि देश से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा? इसके अतिरिक्त और भी कई प्रकार के प्रश्न जंतर मंतर के इस ऐतिहासिक अनशन के बाद उठने लगे हैं। उदाहरण के तौर पर क्या अन्ना हज़ारे के इर्द गिर्द रहने वाले सभी प्रमुख सहयोगी व सलाहकार भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त हैं? एक प्रश्र यह भी खड़ा हो रहा है कि समाजसेवियों तथा राजनेताओं की तुलना में राजनेता कहीं अब अपनी विश्वसनीयता खोते तो नहीं जा रहे हैं? एक और प्रश्र यह भी लोगों के ज़ेहन में उठ खड़ा हुआ है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध आखिर राजनेताओं अथवा राजनैतिक दलों के बीच से आखिर भ्रष्टाचार विरोधी ऐसी आवाज़ अब तक पहले क्यों नहीं उठी जो सामाजिक संगठनों तथा स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा आज़ादी के 64 वर्षों बाद उठाई गई।

एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में लगभग दस प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं जो भ्रष्टाचार को अपनी दिनचर्या में प्रमुख रूप से शामिल करते हैं। चाहे वे राजनीति के क्षेत्र में हों या सरकारी सेवा अथवा उद्योग आदि से संबंधित। इसी प्रकार 10प्रतिशत के लगभग लोग ही ऐसे हैं जो इन भ्रष्टाचारियों के सर्मथक हैं या इनके नेटवर्क का हिस्सा हैं। देश की शेष लगभग 80 प्रतिशत आबादी भ्रष्टाचार से मुक्त है। इसके बावजूद 20प्रतिशत भ्रष्टाचारी तबके ने पूरे देश को बदनाम कर रखा है। इतना ही नहीं बल्कि इन भ्रष्टाचारियों के कारण ईमानदार व्यक्ति का जीना भी दुशवार हो गया है। देश में तमाम ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति इन भ्रष्टाचारियों के हाथों अपनी जान की कुर्बानी तक दे चुके हैं। परंतु चिंतनीय विषय यह है कि भ्रष्टाचारियों के लगभग बीस प्रतिशत के इस नेटवर्क ने देश की लोकसभा, राज्य सभा तथा देश की अधिकतर विधानसभाओं से लेकर अफसरशाही तक पर अपना शिकं जा इस प्रकार कस लिया है कि ईमानदार नेता व अधिक ारी भी या तो इनको संरक्षण देने के लिए मजबूर होते दिखाई दे रहे हैं या फिर इनके विरूद्ध जानबूझ कर किसी प्रकार की क़ कानूनी कारवाई करने से कतराते व हिचकिचाते रहते हैं। कहा जा सकता है कि ईमानदार नेताओं व अधिकारियों की यही खामोशी, निष्क्रियता व उदासीनता ही भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के नापाक इरादों को परवान चढ़ाने का एक प्रमुख कारण है।

अब यदि सत्ता में बने रहने या चुनाव में धन बल का समर्थन प्राप्त करने के लिए भ्रष्टाचारियों से समझौता करना राजनीतिज्ञों की मजबूरी समझ ली जाए फिर तो देश को भ्रष्टाचार को एक यथार्थ के रूप मेंस्वीकार करना ही बेहतर होगा। और यदि देश ने ऐसा किया तो यह गांधी, सुभाष, आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, अशफाक़उल्ला, तिलक, नेहरू तथा पटेल जैसे उन तमाम स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों पर कुठाराघात होगा जिन्होंने देश को अंग्रेज़ों से मुक्त कराकर स्वाधीन, प्रगतिशील एवं आत्मर्निार भारत के निर्माण का सपना देखा था। इसी स्वर्णिम स्वप्र को साकार रूप देने हेतु भारतीय संविधान की रचना की गई थी जिसके तहत भारत को एक धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र घोषित किया गया था। परंतु यह हमारे स्वतंत्रता सेनानियों तथा शहीदों का घोर अपमान ही समझा जाएगा कि उनकी बेशकीमती कुर्बानियों की बदौलत देश आज़ाद तो ज़रूर हो गया परंतु वास्तविक लोकतंत्र शायद अब तक नहीं बन सका । इसके विपरीत देशवासियों को आज ऐसा महसूस होने लगा है कि देश में लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टतंत्र स्थापित हो चुका है। और इससे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि गत् 64 वर्षों से आज़ाद हिंदुस्तान के इतिहास में भ्रष्टाचार को लेकर छाती पीटने का ढोंग करते तो तमाम नेता व राजनैतिक दल दिखाई दिए परंतु भ्रष्टाचार के विरुद्ध सड़कों पर तिरंगा लहराता तथा भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को सड़कों पर लाता हुआ कोई भी राजनेता नज़र नहीं आया। और इन 64 वर्षों के बाद पहली बार यदि किसी व्यक्ति ने राष्ट्रव्यापी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की अगुवाई का साहस किया तो वह श़िसयत केवल अन्ना हज़ारे जैसा बुज़ुर्ग गांधीवादी नेता की ही हो सकती थी।

अन्ना हज़ारे की कोशिशों तथा आमरण अनशन जैसे उनके बलिदानपूर्ण प्रयास के बाद अब भाजपा के वरिष्ठ नेता तथा पार्टी द्वारा घोषित प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री लाल कृष्ण अडवाणी ने जंतर मंतर पर आयोजित धरने के विषय में अपने ब्लॉग पर यह लिखा है कि- ‘मेरा विचार है कि जो लोग राजनेताओं और राजनीति के विरुद्ध घृणा का माहौल बना रहे हैं वह लोकतंत्र को बड़ा नुकसान पहुंचा रहे हैं। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा अपनाया गया रुख लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है’। अडवाणी ने अपने यह विचार उस परिपेक्ष्य में व्यक्त किए हैं जबकि जंतर मंतर पर आयोजित हुए भ्रष्टाचार विरोधी धरने व आमरण अनशन के दौरान वहां पहुंचे कई प्रमुख नेताओं जैसे ओम प्रकाश चौटाला, मदन लाल खुराना, मोहन सिंह तथा उमा भारती को उत्साही आंदोलन कर्ताओं ने धरना स्थल से वापस कर दिया था। इन नेताओं के विरूद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा नारेबाज़ी भी की गई थी। हालांकि नेताओं के विरूद्ध जनता ने किसी प्रकार का अभद्र व्यवहार नहीं किया न ही किसी प्रकार की हिंसा का सहारा लिया। परंतु भ्रष्टाचार से तंग आ चुकी जनता द्वारा भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने या इनका समर्थन करने वाले नेताओं के विरूद्ध अपने मामूली से गुस्से या विरोध का प्रदर्शन करना भी स्वाभाविक था। क्या देश की जनता ने 64 वर्षों तक इन्हीं नेताओं से यह आस नहीं बांधे रखी कि आज नहीं तो कल यही नेेता हमें व हमारे देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराएंगे तथा देश को साफ सुथरा शासन व प्रशासन प्रदान करेंगे ? परंतु जनता ने यही देखा कि नेताओं से ऐसी सकारात्मक उमीद रखना तो शायद पूरी तरह बेमानी ही था। क्योंकि इनमें से तमाम नेता या तो भ्रष्टाचार के रंग में स्वयं को पूरी तरह रंग चुके हैं या फिर किसी न किसी प्रकार से भ्रष्टाचार से या भ्रष्टाचारियों से अपना नाता जोड़े हुए हैं।

और यदि ऐसा न होता तो बिना कि सी समाज सेवी संगठन के प्रयासों के तथा अन्ना हज़ारे के आमरण अनशन किए बिना लोकपाल विधेयक अपने वास्तविक तथा जनहित की आकांक्षाओं के अनुरूप अब तक कानून का रूप धारण कर चुका होता। परंतु अफसोस कि यह तब होने जा रहा है जबकि समाजसेवी संगठनों व कार्यकर्ताओं ने सरकार को ऐसा करने के लिए बाध्य किया है। अन्ना हज़ारे ने राजनेताओं के प्रति अडवाणी की चिंताओं के जवाब में अपनी त्वरित टिप्पणी देते हुए यह कहा है कि-‘अडवाणी जी ने जो भी कहा है वह गलत कहा है। यदि अडवाणी जी जैसे नेता सही रास्ते पर होते तो हमें भ्रष्टाचार के खि़लाफ इतना बड़ा क़ दम उठाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।’ अन्ना हज़ारे ने गत दिनों महाराष्ट्र में अपने पैतृक गांव रालेगंज पहुंच कर वहां भी भ्रष्टाचार विरोधी अपने कड़े तेवर उस समय दिखाए जबकि उनके मंच पर भाऊसाहेब आंधेड़कर नामक एक ऐसा पुलिस इंस्पेक्टर सुरक्षा व्यवस्था को नियंत्रित करते हु़ए पहुंच गया जिस पर कि कुछ समय पूर्व ही भ्रष्टाचार का आरोप लगा था। अन्ना हज़ारे ने उसे फौरन अपने मंच से नीचे उतर जाने का निर्देश दिया। और साफ किया कि उनके साथ भ्रष्टाचारियों की जमात के सदस्यों की कोई आवश्यकता नहीं है।

जहां तक भ्रष्टाचार के आरोपों का प्रश्र है तो इलाहाबाद से समाचार तो यहां तक आ रहे हैं कि जन लोक पाल विधेयक की प्रारूप समिति के दो प्रमुख सदस्य पूर्व केंद्रीय मंत्री शांतिभूषण तथा उनके वकील पुत्र प्रशांत भूषण ने इलाहाबाद में 19, एल्गिन रोड, सिविल लाईन्स स्थित एक विशाल कोठी जिसकी कीमत बाज़ार के हिसाब से 20 करोड़ रूपये आंकी जा रही है, को अपने किरायेदार के हाथों मात्र एक लाख रूपये में एग्रीमेंट टू सेल कर दिया है। यदि इस डील में अनियमितताएं उजागर हुईं तो हमें इस बात की भी प्र्रतीक्षा करनी चाहिए कि अन्ना हज़ारे अपने ऐसे क़ानूनी सलाहाकारों से भी अवश्य पीछा छुड़ा लेंगे। परंतु इन सब बातों के बावजूद हमें व हमारे देशवासियों को भ्रष्टाचार विरोधी इस राष्ट्रव्यापी मुहिम के प्रति सकारात्मक सोच अवश्य रखनी चाहिए तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर इस मुहिम के प्रति अपनी सकारात्मक भूमिका भी निभानी चाहिए। देश की जनता बिना किसी पूर्व नियोजित कार्यकम के तथा बिना किसी दबाव व लालच के तमाम आशाओं व उमीदों के साथ जिस प्रकार भ्रष्टाचार के विरूद्ध देश में पहली बार लामबंद हुई है उससे अन्ना हज़ारे जैसे समर्पित गांधीवादी नेता को भी काफी बल मिला है तथा वृद्धावस्था में उनके बलिदानपूर्ण हौसले को देखकर जनता में काफी उम्मीदें जगी हैं। लिहाज़ा जनता को भी चाहिए कि वह भ्रष्टाचार जैसे संवेदनशील मुद्दे के विरुद्ध चलने वाली इस राष्ट्रव्यापी मुहिम के प्रति सिर्फ सकारात्मक सोच ही रखे।

2 COMMENTS

  1. रिश्वत खोर ज़माने का चोर , मारो जूते मचाओ शोर ……., अपना जवाई गरीब हो चाहे , रिश्वतखोर को बेटी न ब्याहे…..,रिश्वतखोर देश द्रोही है उसे फंसी की सजा देनी होगी …….,गेर राजनेतिक बने एक जूता पार्टी रिस्वत्खोरो की करे आरती ….

  2. सुश्री निर्मल जी ने बहुत अच्छा लेख लिखा है. इन्होने सही कहा है की लगभग २०% भ्रष्टाचार जनता ने पुरे देश को बदनाम कर रखा है. वैसे भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा विषय है. इसमें हर तरह का भ्रष्टाचार आता है जैसे न सिर्फ पैसा बल्कि, ८ घंटो में सिर्फ २-३ घंटे काम करना आदि. भ्रष्टाचार के विरुद्ध कई बार आन्दोलन हुए है किन्तु पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन हुआ है जिसने सरकार को इस विषय पर संजीदा होने के लिये विवश कर दिया है. वैसे जनता तो पूरी सकारात्मक है, केवेल नेतागन ही इस मुहीम के प्रति नकारात्मक रवैया अपनाए हुए है आखिर उनपर लगाम जो लगने वाली है.

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