दहेज प्रथा के प्रति सामाजिक चेतना जगाने की आवश्यकता

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विश्व बैंक के एक अध्ययन में यह सामने आया है कि पिछले कुछ दशकों में भारत के गांवों में दहेज प्रथा काफी हद तक स्थिर रही है। लेकिन यह सामाजिक बुराई बदस्तूर जारी है। अध्ययनकर्ताओं ने 1960 से लेकर 2008 तक ग्रामीण भारत में हुई, चालीस हजार शादियों का अध्ययन किया है। उन्होंने पाया कि 95 फीसदी शादियों में दहेज दिया गया। बता दें कि यह शोध भारत के 17 राज्यों पर आधारित है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि दहेज प्रथा जैसी सामाजिक बुराई एक विकट समस्या जो विकराल रूप धारण कर चुकी है। इस सामाजिक बुराई से निपटा जाना निहायत तौर पर जरूरी है, अन्यथा आधी आबादी का भविष्य अंधकारमय रहने वाला है।

दहेज उस धन-संपत्ति को दिया जाने वाला नाम है, जो विवाह के अवसर पर वधूपक्ष द्वारा विवाह की आवश्यक शर्त के साथ वर पक्ष को दी जाती है। दरअसल, प्राचीन काल में वधू का पिता कन्या के साथ कन्यादान के रूप में कुछ धन-संपत्ति वर को देता था, जो अपनी इच्छा के साथ और स्नेह के रूप में प्रदान किया जाता था। उसमें किसी भी प्रकार की कोई अनिवार्यता अथवा बाध्यता नहीं हुआ करती थी। धीरे-धीरे समय के साथ इस प्रथा ने एक कुप्रथा रूपी विकृत रूप अख्तियार कर लिया, जिसे दहेज नाम दिया गया।‌ इसमें वधू के पिता को आवश्यक रूप से धन या अन्य सामान वर को प्रदान करना पड़ता है। कई बार वैवाहिक अवसर पर यह भी देखा गया है कि वर पक्ष द्वारा विवाह मण्डप में ही वधू पक्ष से अनावश्यक धन‌ या महंगी वस्तु इत्यादि की मांग कर ली जाती है, जो वधू पक्ष को आर्थिक कठिनाइयों में डाल देती है।‌ दहेज वह कुप्रथा है, जिसने लड़की के जन्म को अभिशाप ‌बना दिया है।

आम-आदमी के मन-मस्तिष्क में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर सरकार इस कुप्रथा की रोकथाम की दिशा में कोई कदम क्यों नहीं उठा रही है? बता दें कि दहेज प्रथा को समाप्त करने के उद्देश्य से सन् 1961 में एक एक्ट पारित किया गया, जो दहेज निरोधक कानून-1961 के रूप में सामने आया। लेकिन जागरूकता के अभाव में यह कानून दहेज प्रथा को रोकने में मददगार नहीं हो सका। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज देश की बड़ी आबादी इस कानून से कोई इत्तेफाक नहीं रखती है। बता दें कि दहेज प्रथा से संबंधित अपराधों की जांच उचित ढंग से हो, इसके लिए इसे गैर-जमानती अपराध बना दिया गया है। सरकार ने दहेज निरोधक कानून-1961 को और अधिक शक्तिशाली बनाने के उद्देश्य से 1986 में कुछ संशोधन भी किए। इस अधिनियम में दहेज लेने या देने वाले व्यक्ति या दहेज लेने या देने हेतु प्रेरित करने वाले व्यक्ति को कम से कम पांच वर्ष का कारावास या न्यूनतम पंद्रह हजार रुपए या दहेज की रकम, जो भी अधिक हो, का आर्थिक दण्ड या दोनों सजाएं न्यायालय द्वारा दिए जाने का प्रावधान है। इंडियन पेनल कोड यानी आईपीसी में एक नया अनुच्छेद 304 बी जोड़ा गया है, जिसके अनुसार यदि लड़की की मृत्यु विवाह के सात वर्ष के भीतर असामान्य परिस्थितियों में हुई हो तो इसमें पति या उसके परिवार वालों को प्रमाण देने के लिए उत्तरदायी ठहराया गया है, कि लड़की की मृत्यु दहेज हत्या नहीं है। यदि वे दहेज हत्या के दोषी पाए जाते हैं ,तो यह अधिनियम उन्हें सात वर्ष से लेकर आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान करता है। अधिनियम में दहेज निषेध अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान भी है। दहेज के मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से निपटाने के लिए दहेज विरोधी प्रकोष्ठ की भी स्थापना की गई है। आईपीसी की धारा 498 ए भी पत्नी को उसके पति या ससुराल वालों की ओर से दहेज हेतु प्रताड़ित करने पर दोषियों को तीन वर्ष तक की सजा का प्रावधान करती है।

विश्व बैंक के शोध में यह बात भी उभरकर सामने आई है कि जो धर्म कभी दहेज प्रथा से अछूते रहे हैं, वे भी दहेज में अपनी सक्रियता दिखा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में सिखों और ईसाइयों के बीच दहेज लेन-देन‌ में बेतहाशा वृद्धि हुई है। हालांकि भारत के सभी मुख्य धर्मों में दहेज प्रथा प्रचलन में है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि तमाम प्रयासों के बावजूद भी भारत में दहेज प्रथा बदस्तूर जारी है। इस शोध में यह भी पाया गया है कि सतत विकास और प्रगति की राह में अपना वर्चस्व स्थापित करने वाले राज्य केरल में दहेज का चलन बड़ी तेजी के साथ बढ़ रहा है। भारत का केरल राज्य जो सबसे अधिक शिक्षित आबादी होने का दम भरता है, वहां इस कुप्रथा का फैलाव वाकई बेहद चिंताजनक है। जहां दहेज प्रथा के दुष्परिणामों का सवाल है, तो बता दें कि देश में औसतन हर एक घंटे में एक महिला दहेज संबंधी कारणों से मौत का शिकार बन रही है। पिछले कुछ वर्षों में इस प्रकार के मामलों में बेतहाशा वृद्धि देखने को मिली है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से सामने आया है कि देश में हर वर्ष करीब दस हजार दहेज हत्या के मामले सामने आ रहे हैं। आज दहेज प्रथा के दुष्परिणाम कई रूपों में सामने आ रहे हैं। दहेज प्रथा के चलते ऋणग्रस्तता, महिलाओं पर अत्याचार, समाज में भ्रूण हत्या व कन्या वध को प्रोत्साहन और बेमेल विवाह में इजाफा देखा जा रहा है। वस्तुत: भारतीय वैवाहिक व्यवस्था प्रदूषित हुई है।

हमारी संसद ने 2005 में महिलाओं का घरेलू हिंसा (जिसमें दहेज की मांग भी शामिल) से सरंक्षण अधिनियम-2005 पारित किया है। इस अधिनियम में महिलाओं को घरेलू हिंसा के विरुद्ध दीवानी न्याय उपलब्ध कराने का प्रावधान है। इस अधिनियम के तहत न्यायालय को पीड़ित महिला को न्यायिक सुरक्षा प्रदान करने व दोषी पक्षकार को मौद्रिक प्रतितोष प्रदान करने का आदेश देने का अधिकार प्रदान किया गया है। लेकिन आज इस कानून की अनभिज्ञता के चलते कई‌ जिंदगियां उजड़ रही है। आज जरूरत इस बात की है कि केंद्र और राज्यों की सरकारों को लोक अदालतों, रेडियो प्रसारणों, टेलीविजन और समाचार पत्रों के माध्यम से निरंतर रूप से लोगों के बीच दहेज-विरोधी साक्षरता को बढ़ाने की सख्त दरकार है। इसके साथ-साथ सामाजिक चेतना जगाने की भी जरूरत है।

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