नव्य उदार यथार्थ और मार्क्सवादी असफलताएं

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

मार्क्सवादी आलोचक फ्रेडरिक जेम्सन ने मौजूदा दौर के संदर्भ में मार्क्सवाद की पांच थीसिस प्रतिपादित की हैं। इनमें दूसरी थीसिस में उन्होंने उन खतरों की ओर ध्यान खींचा है जो मार्क्सवाद के लिए आ सकते हैं या आए हैं और जिनसे मार्क्सवादी आंदोलन को धक्का लगा है। उत्तर आधुनिक परिस्थितियों के आने साथ मार्क्सवादी चिंतन को नव्य उदार आर्थिक नीतियों और उसके गर्भ से पैदा हुए बाजार ने सबसे बड़ा खतरा पैदा किया है। इन नीतियों के इतने व्यापक और भयावह रूपान्तरणकारी परिणाम होंगे इसका कोई भी मार्क्सवादी पूर्वानुमान नहीं लगा पाया।

नव्य उदारतावाद के खिलाफ विचारधारात्मक तर्कसंघर्ष में मार्क्सवादी आम लोगों का दिल जीतने ,उन्हें इसके परिणामों के बारे में समझाने में असमर्थ रहे। इस समस्या के दो स्तर थे, पहला स्तर स्वयं मार्क्सवादियों के लिए था वे खुद समझ ही नहीं पाए कि नव्य उदार आर्थिक नीतियों का क्या परिणाम निकलेगा। उनका इन नीतियों के प्रति तदर्थ रवैय्या था। जब वे स्वयं दुविधाग्रस्त थे तो वे अन्य को कैसे समझाते ? इससे संकट और भी गहरा हो गया। नव्य उदारतावाद के पक्ष में सारी दुनिया में इकतरफा प्रचार अभियान चला है।

दूसरी समस्या यह आयी कि नव्य उदार परिवर्तनों के गर्भ से जो परिवर्तन पैदा हुए उनसे मार्क्सवादी लाभ नहीं उठा पाए। वे उस यथार्थ को पकड़ ही नहीं पाए जो नव्य उदार आर्थिक नीतियों के गर्भ से जन्मा है। उन्हें यह सामान्य सी बात समझ में नहीं आई कि कम्यूटर आज के मनुष्य की अपरिहार्य जरूरत है। भारत में लंबे समय तक अनेक मार्क्सवादी कम्प्यूटरीकरण के पक्ष में नहीं थे। लंबे अर्से के बाद उन्होंने हथियार डाले। इस चक्कर में मजदूरवर्ग को उन्होंने पिछड़ी कठमुल्ला चेतना के हवाले कर दिया। पश्चिम बंगाल और केरल कम्प्यूटर क्रांति में पिछड गए और बाकी देश आगे निकल गया। समूचा सोवियत संघ और पुराना समाजवादी देशों का समूह इस परिवर्तन को नहीं समझने के कारण तबाह हो गया। सोचिए 18 साल तक सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी ने पार्टी कॉमरेड वैज्ञानिकों को काफ्रेंस में कम्प्यूटर की उपयोगिता पर बहस करने की अनुमति नहीं दी।

उत्तर आधुनिकतावाद के संदर्भ में मार्क्सवादियों की सफलताएं कम हैं असफलताएं ज्यादा हैं। सबसे बड़ी असफलता है नव्य उदार आर्थिक नीतियों के गर्भ से पैदा हुई असुरक्षा, अव्यवस्था,विस्थापन और भय को संगठनबद्ध न कर पाना। नव्य उदार दौर में मजदूरवर्ग के क्षय को वे रोक नहीं पाए और असंगठित मजदूरवर्ग की तबाही को अपने संगठनों के जरिए एकजुट नहीं कर पाए। आज महानगरों में लाखों असंगठित मजदूर हैं जो किसी भी वाम संगठन में संगठित नहीं हैं।

मजदूरवर्ग के अंदर नव्य उदारतावाद ने जो भय पैदा किया उसे भी प्रभावशाली ढ़ंग से मार्क्सवादी लिपिबद्ध नहीं कर पाए। इसका व्यापक दुष्परिणाम निकला है,मजदूरों की आवाज सामान्य वातावरण से गायब हो गयी है। नव्य उदारपंथी एजेण्डा वाम संगठनों में आ घुसा है। वे इससे बचने की युक्ति नहीं जानते।

इसी प्रसंग में फ्रेडरिक जेम्सन ने लिखा, ‘‘तर्कमूलक संघर्ष (जैसा कि यह सीधी वैचारिक लड़ाई के विरुध्द है) अपने विकल्पों की साख समाप्त करके और थीमैटिक प्रसंगों की एक पूरी श्रृंखला को अनुल्लेखनीय घोषित करके सफलता हासिल करता है। यह राष्ट्रीकरण, विनियमन, घाटा व्यय, कीन्सवाद, नियोजन, राष्ट्रीय उद्योगों की सुरक्षा, सुरक्षा नेट, तथा अंतत: स्वयं कल्याणकारी राज्य जैसी पूर्ववर्ती गंभीर संभावनाओं को निर्णायक रूप में अवैध घोषित करने के लिए क्षुद्रीकरण, निष्कपटता, भौतिकस्वार्थ, ‘अनुभव’, राजनीतिक भय ऐतिहासिक सबक को ‘आधार’ मानने का आग्रह करता है। कल्याणकारी राज्य को समाजवाद बताना बाजारवाद का उदारवादियों (अमरीकी प्रयोग में जैसा कि ‘न्यू डील लिबरल्स’ में किया गया है) तथा वामपंथियों दोनों पर दोहरी जीत दिलाता है। इस प्रकार आज वामपंथ ऐसी स्थिति में आ गया है जब उसे बड़ी सरकारों या कल्याणकारी राज्यों का समर्थन करना है। सामाजिक प्रजातंत्र की समीक्षा करने की जो वामपंथियों की विस्तृत और परिष्कृत परंपरा रही है, उसके लिए यह कार्य खासकर वामपंथियों को इतिहास की द्वंद्वात्मक समझ जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं होने के कारण बेहद लज्जित करने वाला है। खास तौर पर, ऐतिहासिक स्थितियों में परिवर्तन तथा उनके अनुरूप उपयुक्त राजनीतिक और कार्यनीतिगत प्रतिक्रिया के बारे में पुन: कुछ बोध प्राप्त करना वांछनीय है। लेकिन यह भी तथाकथित इतिहास के अंत यानी आम तौर पर उत्तरआधुनिक की मौलिक अनैतिहासिकता के साथ बहस की मांग करता है।’’

मार्क्सवादी फ्रेडरिक जेम्सन ने आगे लिखा है, ‘‘इसी बीच मनोराज्य (यूटोपिया) से जुड़ी चिंताएं जो इस भय से उत्पन्न होती हैं कि हमारी वर्तमान पहचान, हमारी आदतें और आकांक्षा पूर्ति के तरीकों का निर्माण करने वाली चीज कतिपय नई सामाजिक व्यवस्था में समाप्त हो जाएगी तथा सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आज कुछ समय पहले की तुलना में अधिक संभव है। स्पष्टतया दुनिया के आधे से अधिक भाग में और न केवल प्रभावशाली वर्गों में आज निस्सहाय लोगों के जीवन में परिवर्तन की आशा का स्थान ‘नष्ट हो जाने के भय’ ने ले लिया है। इस प्रकार की मनोराज्य-विरोधी (एंटी-यूटोपियन) चिंताओं को दूर करना अनिवार्य है जो कि सांस्कृतिक निदान और उपचार के रूप में किया जाना चाहिए न कि बाजार के सामान्य बहस और अलंकार की इस या उस विशेषता से सहमति जताकर इससे बचना चाहिए।’’

‘‘मानव-स्वभाव मूल रूप से अच्छा और सहयोगी है या फिर बुरा और आक्रामक। यदि यह सर्वसत्तात्मक राज्य (लेवियाथन) को नहीं तो कम से कम बाजार को वश में रखने की अपेक्षा करता है, ये सारे तर्क वास्तव में मानवतावादी और विचारधारात्मक हैं (जैसा कि अलथूसर ने कहा है) और इसके स्थान पर रैडिकल परिवर्तन और सामूहिक परियोजना का परिप्रेक्ष्य लाना चाहिए। साथ ही वामपंथियों को बड़ी सरकारों या फिर कल्याणकारी राज्यों का आक्रामक रूप से बचाव करना चाहिए तथा मुक्त बाजार के ऐतिहासिक ध्वंसात्मक रिकार्ड को देखते हुए बाजारवाद पर लगातार प्रहार करते रहना चाहिए ।’’

6 COMMENTS

  1. पिछले लम्बे समय से यह हो रहा है की बहस बंद है .पार्टी बंद कमरों में फैसला लेकर बाद में गलती स्वीकार करना एक फैसन सा हो गया है अभी भी फ्रेडरिक जेम्सन के माध्यम से बात कहनी पद रही है एक बात स्पष्ट है की जनता की चेतना में अब समता और समानता से जीने की चाहत ठोस रूप में बढ़ी है आदर्श नेतृत्व व्यापक बहस से ही निकलेगा . नन्द

  2. Dr rajesh kapoor ,aap ke dimaag ka ilaaj karaaiye .aap jaisa ghatia tippnikar prvakta .com jaise site pr avaanchhneey hai .aap kisi ka bhi aalekh nahin padhte sirf danadan nihayat talchhat men gote lagate rahte hain .suresh ji ne to saral bhasha ki araj ki thi kintu aap to bade vesharam hoakar chaturvedi ji ke bahaane poore vaam panth pr apni charitrik giravat ka vaman karte hain .dhikkar hai .aapki soch ko or ap ke parvarish ko….

  3. प्रिय मित्र सुरेश जी, वामपंथी वमन व कूड़े का सही समाधान है उपेक्षा जो की अन्य अनेक पाठक कर रहे हैं. आप और हम सब यही करें तो ठीक नहीं होगा क्या?

  4. मानव-स्वभाव मूल रूप से अच्छा है, फिर ऐसी टिप्प्नीयें क्यों …..

  5. फ्रेडरिक जेम्शन का नव्य उदारवाद के दौर में मार्क्सवादी भूलों का विश्लेश्नात्म्क आलेख उच्च स्तरीय है .सारे संसार के वामपंथी इससे सीखने की कोशिश करें यह सम्भावना तलाशनी होगी ..चतुर्वेदी जी से भी निवेदन है की इतने वेशकीमती वैज्ञानिक दृष्टिपरक आलेख को जन भाषा ,लोकभाषा में भी पुस्तिका के रूप में क्रन्तिकारी जन -संगठनों को उपलब्ध करने की तजबीज हो तो बताएं …ताकि जन चेतना का विकाश और संघर्ष की धार वर्तमान दौर के महाभ्रुष्ट ,पतित पूंजीवादी निजामों को ध्वस्त करने में सक्षम हो सके ………श्रीराम तिवारी

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