दिनांक 16 मई 2014। स्थान भारत देश. देश में आम चुनाव संपन्न हो चुके होंगे. कुछ ही दिनों में देश के नए प्रधानमंत्री और सभी सांसद संविधान के अनुसार देश-सेवा की शपथ लेंगे.
पिछले एक वर्ष में सभी पार्टियों के छोटे-बड़े सभी नेताओं ने एक दूसरे के प्रति खूब विष-वमन किया है. चुनाव के बादयह सब बंद होना चाहिए. अगले पांच वर्षों में विधानसभाओं आदि के और भी अनेक चुनावहोंगे. अच्छा तो यही होगा कि प्रधानमंत्री समेत सभी सांसद यह भी शपथ लें कि वे एक दूसरे के प्रति सभ्यता से व्यवहार करेंगे. सभी इस कहावत को जानते हैं कि छुरी कीअपेक्षा वाणी के घाव ज्यादा गहरे होते हैं.
सत्ता अथवा विपक्ष – आप सभी को अगले पांच वर्ष मिलकर काम करना है. इस देश की भोली-भाली जनता आपसे बहुत आशाएं लगा कर बैठी है. जब आप किसी दूसरे को गाली देते हैं, तो जनता को भी आपके अन्दर झांकने का मौक़ा मिलता है, और उसे कुछ बहुत अच्छा महसूस नहीं होता. जनता चाह कर भी आपसे एक राजा एवं प्रजा का रिश्ता नहीं बना पाती.
भारत एक प्राचीन देश है. आज भी विश्व में भारतीय सभ्यता के प्रति श्रद्धा है. देश में भी जनता राम-राज्य जैसे शासन तंत्र को आदर्श के रूप में मानती है. इस धारणा के अनुसार जनता के लिए प्रत्येक चुने हुए सांसद में अगले पांच वर्ष के लिए उन्हीं देवी अथवा देवताओं का अंश है, जिनकी इस देश की असंख्य सम्प्रदायों में बंटी हुई जनता नियमित रूप से पूजा करती है.
प्राचीन भारतीय मान्यताओं के अनुसार राजा में सभी देवी-देवताओं का वास माना गया है. उन्हीं मान्यताओं के अनुसार संसद में सर्वोच्च पद पर आसीन प्रधानमंत्री राजा का ही रूप हैं. प्रत्येक सांसद से यह अपेक्षा है कि पार्टी-पॉलिटिक्स से ऊपर उठकर, जनता को सर्वोपरि मानते हुए नए प्रधानमंत्री को अपना निःक्षल एवं व्यक्तिगत सहयोग दें.
विकास के लिए विश्वास की उपरोक्त धरती का तैयार होना बहुत आवश्यक है. आम-चुनावों ने आप सभी सांसदों को अगले पांच वर्षों के लिए विश्वास की नयी धरती तैयार करने का मौक़ा दिया है.
प्रजा के नाम
अनेक सदियों से इस देश में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन आदि विभिन्न पूजा पद्वतियों को अपनाने वाले लोग एक साथ रहते रहे हैं. देश के त्रिकाल-दर्शी ऋषियों ने इस देश का नाम हिन्दुस्तान नहीं, बल्कि शकुन्तला-पुत्र भरत के नाम पर भारत रखा था, जबकि उस समय भी इस देश में बहुसंख्यक हिन्दू धर्म को मानते थे.
प्राचीन काल से ही इस देशकी जनता “एकम् सत् विप्रा: बहुदा वदन्ति” को मानकर अपना “प्रजा-धर्म” निभाती रही है. उसकी मान्यता रही है कि ईश्वर एक है,परंतु देश, काल, परिस्थितियों के कारण विभिन्न सम्प्रदाय, जातियां आदि अपने महापुरुषों, ईश्वर-पुत्रों, अवतारों आदि का अनुसरण कर सच तक पहुंचने का अपना मार्ग तय करने के लिए स्वतंत्र हैं.
यही कारण था कि ब्रिटिशकाल में 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में भारत के बाहर से आये मुस्लिम भी सभी के साथ एक होकर लड़े. इसके बाद भी गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलनों में मुसलमानों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. अंग्रेजों की मिलीभगत से कुछ मुसलमानों ने अपनी एक अलग व्यवस्था बनाई, परंतु वहां के हाल सर्वविदित हैं.
मई 2014 के चुनावों में आप सभी लोग अपना मत किसी भी राजनीतिक पार्टी को देने के लिए स्वतंत्र हैं. बाद में भी आप किसी भी राजनीतिक पार्टी से इच्छा अनुसार संबंध रखने के लिए स्वतंत्र हैं. परंतु विकास के लिए क्षेत्र के चुने हुए सांसद के माध्यम से प्रधानमंत्री एवं उसके शासन तंत्र को ईश्वर मान उसमें विश्वास बनाये रखना आपका कर्तव्य है. यह विश्वास ही आपको “आम जनता से प्रजा” में परिवर्तित करराजा से सम्बन्ध बनाने के योग्य बनाएगा.
आर सिंह जी प्रणाम, आप सबके Reply से ही मैं सीखता हूँ.
विश्वास के आधार पर ही किसी तंत्र की रचना की जा सकती है. जनता नेताओं के मूंह पर स्याही फेंकेगी तो विश्वास कहाँ है ? कहते हैं की विश्वास से तो पत्थर भी ईश्वर बन जाता है, फिर हमारे नेता तो इंसान हैं. इस विश्वास की पहल तो जनता को ही करनी होगी.
इस देश ने शस्त्र एवं शास्त्र दोनों ही विषयों पर अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किये हैं. शस्त्र का सम्बन्ध राजा एवं राजनीति से है तथा शास्त्र का सम्बन्ध शिक्षक से है. सन 1991 में डाक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा निर्देशित “चाणक्य” नाम से एक सीरिअल दूरदर्शन पर दिखाया गया था. यद्यपि यह सीरिअल उस समय की घटनाओं का एक काल्पनिक वर्णन है, परंतू राजनीति एवं शिक्षा विषयों पर भारतीय चिंतन को समझने में सहायक है. इन्टरनेट से इस सीरियल के आठों भागों बिना किसी शुल्क के डाउनलोड किये जा सकते हैं. मेरा सुझाव है की आप इस सीरिअल को अवश्य देखें.
“चाणक्य” (भाग 2/8, समय 1:10:34) में एक ज्ञानसभा का दृश्य है जिसे मगध के राज-दरबार द्वारा आयोजित किया है. इसमें देश के विभिन्न गुरुकुलों से आये छात्रों से आचार्य राजनीति से सम्बंधित प्रश्न पूछते हैं. इसी सभा के एक द्रश्य में राजा धनानंद क्रोधित होगया और उसने कहा, “यदि में प्रजा का अहित करूँ तो मेरा भी अहित होगा. तो क्या शास्त्रों के आगे मेरी सामर्थ्य कुछ भी नहीं ?”. छात्र के यह कहने पर कि शास्त्रों में राजा प्रजा के लिए केवल एक वेतनभोगी सेवक है, धनानंद और अधिक क्रुद्ध हो गया और छात्र के आचार्य चाणक्य से उसने कहा,” क्यों ब्राह्मण, तू शास्त्रों की चर्चा नहीं करेगा, किसी राजपद अथवा धन के लिए धनानंद के आगे हाथ नहीं पसारेगा ?”. इस पर चाणक्य ने कहा:
“मेरा धन ज्ञान है. यदि मेरे ज्ञान में शक्ति रही तो मैं अपना पोषण करने वाले सम्राटों का निर्माण कर लूँगा. मुझे धन एवं पद की कोई लालसा नहीं”.
विनम्रता के बिना ना तो शासन चल सकता है और न ही प्रजा का हित हो सकता है. जनता को शक्ति मात्र विकेंद्रीकरण से नहीं बल्कि उचित शिक्षा से मिलेगी. उचित शिक्षा से ही विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया सफल हो सकेगी.
लगता है,हड़बड़ी में कुछ गड़बड़ी हो गयी.,इसलिए फिर से इस आलेख को पढ़ना पड़ा.अब लग रहा है कि यह तो व्यंग्य है. व्यंग है आने वाली सरकार पर ,जिसके सबसे बड़े दावेदार अभी से मैं मैं चिल्ला रहे हैं और सचमुच में आम जनता को प्रजा में बदलना चाहते हैं,पर इसको इस प्रपेक्ष में भी देखा जा सकता है कि जैसा भूतऔर वर्तमान रहा है,भविष्य उससे भी खराब होने जा रहा है. राजा अमर हो. महाराज दीर्घायु हों. मैं नहीं समझता कि प्रजा इससे ज्यादा कुछ कह सकती है,क्योंकि इसके बाद बोलने का अधिकार तो राजा और उसके दरबारियों तक सीमित हो जायेगी.
कन्हैया झ जी,आप देखने में तो युवा लगते हैं,पर बातें अपने परदादा जैसी कर रहे हैं.आपकी यह राजा और प्रजा वाले सिद्धांत को मान लिया जाये तो अन्य की कौन कहे महात्मा गांधी और पंडित दीन दयाल उपाध्याय भी मूर्ख सिद्ध हो जाते है,जिन्होंने आर्थिक और प्रशासनिक विकेंद्रीकरण की बात कही थी.कहाँ तो स्वराज के माध्यम से ज्यादा से ज्यादा अधिकार ग्राम सभाओं और मोहल्ला सभाओं को देने की बात की जा रही है,कहाँ आपने जनप्रतिनिधियों को राजा का दर्जा दे दिया.यही तो वे लोग स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही कर रहे हैं और इसी का विरोध आम जनता कर रही है,पर आपने इसको सपोर्ट कर एक नया विवाद खड़ा कर दिया.