देश में वर्ष 2015 के शुरूआती छह माह में; बीते साल की इसी अवधि की तुलना में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं। इस साल जून तक सांप्रदायिक दंगों के 330 मामलों में 51 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, जनवरी 2015 से जून 2015 के बीच सांप्रदायिक हिंसा की 330 घटनाएं हुईं जबकि 2014 के शुरूआती छह माह में ऐसी 252 घटनाएं हुई थीं। इस साल अब तक हुई सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में 51 लोग मारे गए और 1,092 अन्य घायल हो गए। पिछले साल के शुरूआती छह माह में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में कम से कम 33 लोगों की जान गई थी। वर्ष 2014 में 644 सांप्रदायिक दंगे हुए थे जिनमें 95 लोगों की मौत हो गई थी और 1,921 घायल हुए थे। इस दौरान सपा शासित उत्तर प्रदेश में जनवरी से जून 2015 तक सर्वाधिक 68 सांप्रदायिक घटनाएं हुईं जिनमें 10 व्यक्ति मारे गए और 224 घायल हुए। उत्तर प्रदेश में साल 2014 में 133 सांप्रदायिक घटनाएं हुई थीं जिनमें 26 लोगों की जान गई थी और 374 घायल हुए थे। वहीं जदयू शासित बिहार में जून 2015 तक सांप्रदायिक हिंसा की 41 घटनाएं हुईं जिनमें 14 लोगों की जान गई और 169 घायल हुए। बिहार में वर्ष 2014 में 61 सांप्रदायिक दंगे हुए थे जिनमें पांच लोग मारे गए और 294 घायल हुए। भाजपा शासित गुजरात में जनवरी से जून 2015 तक सांप्रदायिक हिंसा की 25 घटनाओं में सात लोग मारे गए और 79 घायल हुए जबकि वर्ष 2014 की इसी अवधि में यहां सांप्रदायिक हिंसा की 74 घटनाओं में सात लोगों की जान गई थी और 215 लोग मारे गए थे। भाजपा शासित एक अन्य राज्य महाराष्ट्र में जनवरी से जून 2015 तक सांप्रदायिक हिंसा की 59 घटनाओं में चार लोग मारे गए और 196 घायल हुए। महाराष्ट्र में 2014 में इसी अवधि में हुई सांप्रदायिक हिंसा की 97 घटनाओं में 12 लोग मारे गए और 198 घायल हो गए थे। वहीं कांग्रेस शासित कर्नाटक में इस साल के शुरूआती छह माह में सांप्रदायिक हिंसा की 36 घटनाओं में दो व्यक्ति मारे गए और 123 घायल हो गए जबकि बीते बरस की इसी अवधि में कर्नाटक में सांप्रदायिक हिंसा की 73 घटनाओं में छह लोग मारे गए थे और 177 घायल हुए थे। कुल मिलाकर लब्बोलुबाव यह है कि देश/राज्य में सरकार किसी की भी हो सांप्रदायिक दंगों में कमी नहीं आती दिख रही।
सोचने वाली बात यह है कि क्या ऐसी सांप्रदायिक स्थिति हमारे देश की विकासशील रफ़्तार हेतु ज़हर समान नहीं है? एक ओर तो हम 2020 तक पूर्व राष्ट्रपति स्व. अब्दुल कलाम आज़ाद के सपनों का भारत बनाने की बात करते हैं वहीं दूसरी ओर सांप्रदायिकता को पल्लवित-पोषित करते हैं। यह सच है कि सांप्रदायिकता के जहर को इंसानों में घोलने में सबसे बड़ा योगदान राजनीतिज्ञों का है किन्तु क्या हम समाज से इतना कट गए हैं जो इनकी विषैली बातों में आकर अपने ही भाई-बंधुओं का गला काटने की हसरत पालने लगते हैं? आखिर हमारा समाज इतना असहिष्णु एवं उग्र क्यों हो गया? क्या हमारे खून में नफरत के बीज इतने गहरे बो दिए गए हैं कि हमें सिर्फ बदले का भाव समझ में आते हैं? देश का सबसे बड़ा सूबा; उत्तर प्रदेश किसी जमाने में गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल था। पर वर्तमान में स्थिति भयावह है जिसे मुजफ्फरनगर से लेकर अलीगढ तक सभी ने देखा है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की चाह में नेताओं ने यहां का माहौल बिगाड़ दिया है। आज उत्तर प्रदेश सुलगती चिंगारी है जो चुनाव नजदीक आते-आते और सुलगने को तैयार है। आखिर सांप्रदायिक विद्वेष की भावना से समाज का कौन सा भला होता है? हम धर्म-संप्रदाय के नाम पर कटने-काटने को उतारू होते हैं और नेता इसकी आड़ में अपनी राजनीति चमकाते हैं। कायदे से जो ऊर्जा व एकता राष्ट्र-निर्माण में लगना चाहिए, वह घरों को जलाने में व्यर्थ होती है। हालांकि सांप्रदायिकता की इस राजनीति को अनेक दलों ने अपने फायदे के लिए उभारा है पर क्षेत्रीय दलों का इसमें योगदान कुछ अधिक ही है। चूंकि उनका प्रभाव एक क्षेत्र विशेष तक ही होता है लिहाजा वे सांप्रदायिक ताकतों को जान बूझकर आश्रय देते हैं ताकि उनकी राजनीतिक दुकानदारी चलती रहे। हर वर्ष सांप्रदायिक घटनाओं का बढ़ना देश के विकास एवं भावी भविष्य के लिए खतरनाक है, अतः राजनीतिक दलों के झांसे में न आते हुए विभिन्न समाजों को प्रभावी संवाद की भूमिका अख्तियार करना होगी ताकि इस तरह की घटनाओं को बढ़ने से पहले ही रोका जा सके। एक सभ्य समाज में सांप्रदायिकता की कोई जगह नहीं होना चाहिए और जो भी संगठन या राजनीतिक दल सामाजिक विद्वेष पैदा करते हैं, उनपर कड़ी कार्रवाई होना चाहिए। कुल मिलाकर सामाजिक सद्भाव ही सांप्रदायिकता से लड़ने का प्रमुख हथियार है।
सभ्य समाज में साम्प्रदायिकता के कारण होने वाले अशांत वातावरण के लिए केवल राजनेता दोषी हैं ऐसा नही. धार्मिक उपदेशक भी कम उत्तरदायी नहीं हैं. दूसरे समाज सुधारक,तथाकथित धर्म निरपेक्षता का ढोंग करने वाले भी आग में पेट्रोल का काम करते हैं. अभी ताजा उदाहरण है,याक़ुब मेनों की फांसी का. जिस व्यक्ति के खिलाफ पर्याप्त साबुत हों, जिसे बचाव के सब तरीके उपलब्ध कराये गए हों ,सर्वोच्च न्यायालय ने आधी रात के लिए अपने द्वार खुले रखे हों ,राष्ट्रपति ने जिसकी दया याचिका ठुकरा दी हो उसकी फांसी पर एक हंगामा खड़ा करना ,क्या भोले भाले मुस्लिमो के मन में शंका पैदा करना नहीं ?आम मुस्लिम को याक़ूब से क्या हमदर्दी रही भी होगी ?इन बुद्धिजीवियों को मुंबई के बमकांड में मारे गए लोगों के प्रति सहानुभूति भी है या नहीं?क्या इनमेसे कोई दिल्ली में हुए सिक्खों की हत्याओं के विरुद्ध आधी रात को तो ठीक दिन के उजाले में भी कहीं गया/इतना होने के बाद भी भारत में हिन्दू मुस्लिम प्रेम से रह रहे हैं.in लम्पट राजनीतिग्यों और बुद्धिजीवियों की चालें आम आदमी की समझ में आ रही हैं.