कह दो अगली पीढ़ी से
एक वक्त ऐसा भी आया था
जहां सोच कैसी हो फ़र्क नहीं
परम धर्म बस माया था
पैसे वाला भगवान हुआ
गरीब शैतान का जाया था
हक की जो कोई बात करे
उसे सूली पर चढ़ाया था
जन्नत की यहां टिकट मिले
जहन्नम घर को बनाया था
माँ के दूध से निकोटीन
शराब सा रक्त पिता से पाया था
औरत के एक एक हक पर
मर्दानगी का साया था
बेटी के जन्मदिन पर
एक ज्योतिष ने फरमाया था
भाग्यहीन अभागा धन ये
अपना नहीं पराया था
जहां जाती जैसे अधर्म ने
फिर से सर उठाया था
जिल्द मेरी है इस से बेहतर
ये किसके गुमान में आया था
जिसकी भीड़ उसी का राज
तर्क से छुटकारा पाया था
गुस्से में हर शख्स यहां
मानो नसीब का सताया था
जी अपना उस से खुश नहीं
पराए धन का हिसाब लगाया था
समय से पहले किस्मत से ज़ियादा
किसे यहां मिल पाया था
फिर भी जीवन का हर पल
इस होड़ में गवाया था
जहां घर के बड़ों ने छोटों को
टोपी पहनाना सिखलाया था
जहां घर के चिराग ने खुद ही
अपने घर को जलाया था
यहां रोबोट मंगल तक जा पहुँचा
और इंसान सड़क पर आया था
इंस्टेंट कनेक्शन के दौर में
मनुष्य सबसे हुआ पराया था
त्याग का भाव भी मर मिटा
खुदगर्ज़ी का ध्वज लहराया था
पूंजीवाद का ये चरम
सब बाज़ार में ले आया था
इच्छा और आवश्यकता का फ़र्क
यहां कोई समझ न पाया था
डोपामिन ने कैसे यहां
मन को बहलाया, फुसलाया था
खुदा की दी इस बरकत को
श्राप सा एक बनाया था
कैसे लड़े अब खुद से कोई
किसने किसको सिखलाया था
अपने हिस्से की कोई शमा जलाते जाते
एक शायर ने फरमाया था
सुन कर जिसे दूसरे शायर ने
बीड़ा अपने सर उठाया था
पहला निशाना खुद पर साध
अपनी कमियों को अपनाया था
दूसरा हर उस यकीन पर
जिसने उसे बहकाया था
नैतिकता को बना फिर कवच
जो निष्ठा ने उसे पहनाया था
कलम को तलवार और
शब्दों को फ़ौज बनाया था
सर पर बांध फिर कफ़न जो
मैदान-ए-जंग में उतर आया था
कह दो अगली पीढ़ी से
एक शायर ऐसा भी आया था
- क्षितिज