नीति का दमन या नियति का दिखावा

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-अनिल अनूप

दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में बीते दो माह से दिया जा रहा जो धरना लाखों लोगों की नाक में दम किए हुए है, उसके यदि खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे हैं तो इसकी एक वजह न्यायपालिका का अति उदार रवैया भी है. यह घोर निराशाजनक है कि पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने धरना दे रहे लोगों को सड़क खाली करने के स्पष्ट निर्देश देने से इनकार किया, फिर मामला जब उच्चतम न्यायालय गया तो उसने धरना दे रहे लोगों को समझाने-बुझाने के लिए वार्ताकार नियुक्त कर दिए. ऐसा करके सड़क पर काबिज होकर की जा रही अराजकता को एक तरह से प्रोत्साहित ही किया गया.

क्या अब जहां भी लोग अपनी मांगों को लेकर सड़क या फिर रेल मार्ग पर कब्जा करके बैठ जाएंगे, वहां सुप्रीम कोर्ट अपने वार्ताकार भेजेगा? यदि नहीं तो फिर शाहीन बाग के मामले में नई नजीर क्यों? समझना कठिन है कि जब उच्चतम न्यायालय ने यह माना भी और कहा भी कि इस तरह रास्ता रोककर धरना देना अनुचित है, तब फिर उसने शाहीन बाग इलाके की नोएडा से दिल्ली को जोड़ने वाली उस सड़क को खाली कराने के आदेश देने की जरूरत क्यों नहीं महसूस की, जिसका इस्तेमाल प्रतिदिन लाखों लोग करते हैं?

जो लोग अनुच्छेद 370 को हटाए जाने और नागरिकता कानून में संशोधन के फैसलों का विरोध करने में लगे हुए हैं, वे यह समझें तो बेहतर कि कोई भी सरकार अपने निर्णय से इस तरह पीछे नहीं हटती. नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जो लोग भी यह समझ रहे हैं कि धरना-प्रदर्शन, आंदोलन आदि से सरकार किसी भी तरह के दबाव में आ जाएगी, वे भूल ही कर रहे हैं. इसका प्रमाण यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने और अधिक अडिग इरादों का प्रदर्शन किया है. अनुच्छेद 370 हटाना भले ही एक मुश्किल कार्य रहा हो, लेकिन यह इसलिए आवश्यक हो गया था, क्योंकि एक तो यह अलगाव को जन्म दे रहा था और दूसरे कश्मीर के लोगों में भेदभाव कर रहा था. चूंकि अनुच्छेद 370 हटाने और नागरिकता कानून में संशोधन करने के फैसलों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है और शीर्ष अदालत ने संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई शुरू भी कर दी है, इसलिए बेहतर यही होगा कि उसके फैसले का इंतजार किया जाए. यह आश्चर्यजनक है कि जो लोग खुद को संविधान और लोकतंत्र का हितैषी बता रहे हैं, वे इन दोनों मसलों पर संविधानसम्मत आचरण करने से भी इनकार कर रहे हैं. यह किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है कि वह संसद द्वारा पारित और अधिसूचित कानून को वापस ले ले.

लोगों को यह समझना चाहिए कि हर अधिकार की अपनी सीमाएं होती हैं. कोई अधिकार असीमित नहीं हो सकता.  विरोध, हड़ताल अथवा आंदोलन के अधिकार के नाम पर लोग सड़क अथवा रेल मार्ग बाधित नहीं कर सकते, लेकिन दुर्भाग्य से अपने देश में ऐसा ही अधिक होता है.  यह और कुछ नहीं, आम लोगों को बंधक बनाने वाला कृत्य है. कई बार तो ऐसे कृत्यों के कारण लाखों लोगों की दिनचर्या प्रभावित होती है. शाहीन बाग धरना भी यही कर रहा है. इससे खराब बात और कोई नहीं कि सड़क पर कब्जा करके दिए जा रहे जिस धरने के कारण बीते दो महीने से दिल्ली-एनसीआर के लाखों लोगों को परेशानी उठानी पड़ रही है, वह अभी भी समाप्त होता नहीं दिखता. सुप्रीम कोर्ट ने शाहीन बाग धरने को लेकर अपनी चिंता अवश्य जताई, लेकिन यह कोई नहीं जानता कि उसने उसे समाप्त करने की जरूरत क्यों नहीं महसूस की?

इससे दुखद-दयनीय और कुछ नहीं कि मुट्ठी भर लोग सड़क पर कब्जा करके लाखों नागरिकों के धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं और फिर भी सुप्रीम कोर्ट तत्काल किसी फैसले पर पहुंचने के बजाय तारीख पर तारीख देना पंसद कर रहा है.

नि:संदेह ऐसा नहीं हो सकता कि सुप्रीम कोर्ट इस तथ्य से परिचित न हो कि शाहीन बाग की सड़क बंद होने से हर दिन लाखों लोगों को परेशानी उठानी पड़ रही है. क्या आधे-पौने की घंटे की दूरी तीन-चार घंटे में तय करने को मजबूर लाखों लोगों के समय और श्रम का कोई मूल्य नहीं? क्या ये लाखों लोग कमतर श्रेणी के नागरिक हैं, जो उनकी सुध लेने से इनकार किया जा रहा है और वह भी दो माह से अधिक समय से? आखिर जब सुप्रीम कोर्ट अनुचित तरीके से धरना-प्रदर्शन कर रहे लोगों के पास अपने वार्ताकार नहीं भेजता, तब फिर उसने शाहीन बाग में लाखों लोगों को तंग कर रहे प्रदर्शनकारियों के पास अपने वार्ताकार क्यों भेजे?

विरोध के नाम पर मनमानी का प्रदर्शन करने वाले धरने के प्रति नरमी दिखाना कानून के शासन के साथ-साथ शांतिप्रिय लोगों के अधिकारों की अनदेखी ही है. यह ठीक नहीं कि विरोध अथवा असहमति जताने के नाम पर मनमानी बढ़ती ही जा रही है. अब तो विरोध प्रदर्शनों के दौरान आगजनी, पत्थरबाजी और तोड़फोड़ आम है. नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ देश के विभिन्न् हिस्सों में जिस तरह बड़े पैमाने पर आगजनी और तोड़फोड़ हुई, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है.

इस तरह की हरकतों से सख्ती से निपटा जाना चाहिए, लेकिन यह देखने में आ रहा है कि इस तरह के मामलों में कई बार अदालतें भी नरम रवैया अपना लेती हैं.  इससे कुल मिलाकर विरोध के बहाने अराजकता फैलाने वालों को ही बल मिलता है. इसमें संदेह है कि शाहीन बाग में धरने पर बैठे लोग अपना अड़ियल रवैया आसानी से छोड़ेंगे. पहले वे नागरिकता संशोधन कानून वापस लेने पर अड़े थे, फिर यह मांग करने लगे कि सरकार को उनसे बात करने धरना स्थल आना चाहिए. इसके बाद उन्होंने हजारों की संख्या में एकत्रित होकर गृहमंत्री से कथित तौर पर वार्ता करने की ठानी. आखिर यह कब समझा जाएगा कि यह धरना आम जनता के सब्र का इम्तिहान ले रहा है?

हैरत नहीं कि ये वार्ताकार नाकाम हैं. इस नाकामी की वजह यही है कि धरने पर बैठे लोग एक तो काल्पनिक भय से ग्रस्त हैं और दूसरे, वे तुक एवं तर्क की बात सुनने को तैयार नहीं. इतना ही नहीं, उन्होंने यह जिद भी पकड़ी है कि पहले उनकी मांग मानी जाए और नागरिकता संशोधन कानून रद्द किया जाए. क्या यह घोर अराजक व्यवहार नहीं?

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