विविधा

अनाज नहीं, लोकतंत्र सड़ रहा है प्रधान मंत्री जी


– पंकज झा

सामान्यतः जब कोई शालीन माना जाने वाला व्यक्ति अपना आपा खो दे तो समझिए कि उसके मर्म पर कोई जबरदस्त चोट पहुची है. उसे किसी व्यक्तिगत क्षति की आशंका या अंदाजा है. या फिर अपनी अक्षमता के प्रति जबरदस्त बौखलाहट. जैसे गृह मंत्री के ‘भगवा आतंकवाद’ वाले बयान को याद करें. आश्चर्यजनक है कि जो व्यक्ति जूते पड़ जाने पर भी आपा ना खोने की हद तक शालीन हो, वो कैसे ऐसा भरकाउ बयान दे सकता है जिससे करोडों लोगों में जबरदस्त प्रतिक्रया हो? इसी तरह प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा अनाज सड़ने के मामले पर न्यायपालिका को दी गयी ‘घुडकी’ उल्लेखनीय है. जिस व्यक्ति को संसद में बोलते हुए भी विरले ही सुना जाता हो. जो व्यक्ति अपनी मुस्कान से ही केवल अपनी सभी अच्छी-बुरी भावनाओं को छिपा लेता हो, वो अगर अकस्मात न्यायालय को उसकी औकात बताने लगे. उसे यह नसीहत देने लगे कि अपनी मर्यादा में रहे, तो समझा जा सकता है कि मामला केवल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर बहस का ही नहीं है.

मोटे तौर पर किसी भी सरकार की प्राथमिकता होती है लोगों के जान और माल की हिफाज़त करना. ऊपर के दोनों बयान आतंक और भूख से कराहते देश के सुरक्षा की जिम्मेदारी सम्हालते दोनों संबंधित व्यक्ति का ही है. बात फिलहाल ‘माल’ यानी अनाज के सुरक्षा की, करोड़ों पीड़ितों के भूख का, उसके जीवन का. एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायालय का आदेश था कि जब देश के नागरिक भूख से बिलबिला रहे हों और सरकारी गोदामों में अनाज सड रहा है तो उससे बेहतर है कि यह ज़रूरतमंदों में मुफ्त बांट दिया जाय. पहले तो कृषि का भी काम कभी-कभार देख लेने वाले क्रिकेट मंत्री ने इस आदेश को सलाह कह कर टालने का उपक्रम किया. लेकिन फिर कोर्ट द्वारा स्पष्टीकरण दिए जाने के बाद कि यह आदेश ही था, प्रधानमंत्री को मैदान में आना पड़ा और अपने स्वभाव के विपरीत यह कहना पड़ा कि न्यायालय को नीतिगत मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. न्यायपालिका का क्या है. बहुमत के घमंड में चूर कोई भी सरकार अध्यादेश या संशोधन द्वारा उसे ‘औकात’ दिखा ही सकती है. और फिर जिस कांग्रेस को एक तलाकशुदा गरीब शाहबानो के मूंह का निवाला छिनने के लिए संविधान संशोधन करने में कोई संकोच नहीं हुआ तो आखिर करोड़ों लोगों की भूख से तिजोरी भरने वाले जमाखोरों को कवच प्रदान करने के लिए क्यूंकर कोई लिहाज़ करने की ज़रूरत हो. तो इस मामले में न्यायालय के अधिकार क्षेत्र क्या है इस पर चर्चा ना करते हुए सरकार का कर्तव्य क्षेत्र क्या है इस पर विमर्श करना समीचीन होगा.

आखिर सवाल यह है कि अगर देश में अनाज सड रहे हों और आपकी जनता भी भूखों मर रही हो तो उन्हें मुफ्त अनाज बांट देने में परेशानी क्या है? आश्चर्य तो यह है कि न्यायलय को सबक सिखाने में व्यस्त सरकार के किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति ने इस मामले पर कोई भी सफाई देना मुनासिब नहीं समझा. वैसे जो एकमात्र बाजिब समस्या नज़र आती है वह ये है कि अनाज को गांव-गांव तक पहुचाया कैसे जाय, उसको बांटने का आधार क्या हो. लेकिन अगर नीति बनाने के जिम्मेदार आप हैं और किसी दुसरे स्तंभ को यह अधिकार देना भी नहीं चाहते तो आपको इस तरह की जनकल्याणकारी नीति बनाने से रोका किसने है? खबर आ रही है कि केन्द्र सरकार देश के सभी छः लाख गाँवों तक कंडोम पहुचाने की व्यवस्था कर रही है. इस बारे में नीति बनकर तैयार है और एक स्वयंसेवी संगठन को इसका ठेका भी दे दिया गया है. तो आप गावों तक कंडोम बांट सकते हैं लेकिन अनाज बांटने में आपको बौखलाहट हो रही है. चुकि सरकार ने अपनी तरफ से इस मामले में अपनी असमर्थता का कोइ कारण व्यक्त नहीं किया है तो विपक्षियों द्वारा लगाए आरोप के सम्बन्ध में मुद्दे को समझने की कोशिश करते हैं.

मुख्य विपक्षी भाजपा के अनुसार सरकार अनाज इसलिए सड़ रही है क्युकी सड़े हुए अनाज से शराब बनवाया जा सके, उस लाबी को खुश किया जा सके. हो सकता है इस बात में सच्चाई हो, लेकिन यह भी आंशिक सत्य ही है. असली सवाल तो उन बिचौलियों-जमाखोरों का है जिसका सब कुछ ऐसे किसी भी फैसले से तबाह हो सकता है. अगर आज महंगाई बढ़ी है तो ना उत्पादन कम होने और ना ही किसी अन्य कारण से. केवल और केवल इन समूहों को प्रश्रय देने और उनके हितों को जान-बूझ कर संवर्धित करते रहने के कारण. नहीं तो ऐसा कोई कारण नहीं कि ढेर सारे मंजे हुए अर्थशास्त्रियों के इस सरकार में महंगाई की त्रासदी से पार नहीं पाया जा सकता था. स्पष्ट रूप से आप इसे आजादी के इतिहास के बाद के लाखों करोड के सबसे बड़े घोटाला ‘महंगाई घोटाला’ का नाम ही दे सकते हैं.

अनाज को मुफ्त बांटने की बात तो दूर की कौड़ी है, अगर यह सरकार ऐसा करने की इच्छा ही प्रकट कर दे, इस विषय में एक सकारात्मक बयान ही दे दे तो कृतिम रूप से महंगाई बढाने वाले वायदा कारोबारियों की मिट्टी पलीद हो जाय. लेकिन शरद पवार द्वारा चीनी महंगा होने की भविष्यवाणी को याद करें तो समझ में आएगा कि कीमतों को बढ़ाया कैसे जाता है और इसमें किसका हित छिपा होता है. बस तो बयानों की ‘कीमत’ बेहतर मालूम होने के कारण ही तमाम लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तिलांजलि दे कर प्रधानमंत्री को अपने स्वाभाव के विपरीत ‘मैदान’ में कूद जाना पड़ा. तो इस सन्दर्भ में इस बयान के निहितार्थ को समझा जा सकता है. यहां सवाल जमाखोरों के हित बनाम आम नागरिकों का है. सवाल माल्थस के उत्पादन और जनसंख्या सिद्धांत बनाम अमर्त्य सेन के कल्याणकारी अर्थशास्त्र के मध्य चयन का है.

मोटे तौर पर जनसंख्या और उत्पादन के सम्बन्ध में दो विचारक मुख्य रूप से सामने आते हैं. एक थे 18 वीं सदी के यूरोप को गहरे तक प्रभावित करने वाले वाले ‘थॉमस रॉबर्ट माल्थस’ और दुसरे हैं भारत की मिट्टी के ही नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन. जहां माल्थस ने उत्पादन के मुकाबले जनसंख्या में गुणात्मक वृद्धि हो जाने के कारण भुखमरी की आशंका व्यक्त की थी वही अमर्त्य सेन का यह मानना था कि भूखमरी अनाज की अनुपलब्धता के कारण नहीं बल्कि सरकार द्वारा उसका सही वितरण ना कर पाने की मंशा या अक्षमता के कारण हुआ करता है. दुनिया में पड़े अकालों के विस्तृत एवं तार्किक विश्लेषण के आधार पर अमर्त्य सेन ने बताया कि अकाल का मुख्य कारण मूलतः वे सामाजिक, आर्थिक अथवा राजनीतिक परिस्थितियां हैं जो व्यक्ति के क्रय शक्ति का ह्रास करती हैं. अपने अकाट्य तर्कों से उन्होंने स्पष्ट किया कि 1943 का पश्चिमी बंगाल का अकाल पूर्णतः प्राकृतिक आपदा नहीं थी. तो अब आप सोचें, जिस समय यह देश हरित क्रान्ति से कोसों दूर था उस समय भी देश के पास अनाज इतना था कि वह बकौल अमर्त्य सेन अपने लोगों का पेट आराम से भर सकता था. तो अब हरित क्रान्ति के दशकों बाद जब अनाज उत्पादन में गुणात्मक वृद्धि दर्ज की गयी है तो ऐसा कैसे हो सकता है कि उसकी कीमत हद से ज्यादा बढ़ जाय या लोग भूख से मरे? असली कारण केवल और केवल अपनी जेब भरने के लिए केन्द्र द्वारा व्यापारियों को दिया जाने वाला प्रश्रय है और कुछ नहीं.

चूंकि विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय कम्पनी के पुराने कारिंदों द्वारा संचालित केन्द्र की यह सरकार ‘गरीबी और भूख’ को खतम करने के अमर्त्य के कल्याणकारी तरीके से चल कर अपने और अपने आकाओं का हित संवर्द्धन नहीं कर सकती तो उसे माल्थस का ही सिद्धांत ज्यादा बेहतर लगता है कि ‘भूखों और गरीबों’ को ही मार दो. चुकि माल्थस के पास गरीबी दूर करने की कोई सोच नहीं थी तो उसने भूख की समस्या का समाधान यह बताया कि गरीबों को प्राकृतिक रूप से मरने के लिए छोड़कर आबादी पर नियंत्रण किया जाना चाहिए. जान कर किसी भी व्यक्ति की रूहें कांप जायेंगी कि पादरी रहे माल्थस ने तात्कालीन इंग्लेंड की सरकार को यह सलाह दी थी कि गरीबों को गंदे नाले के किनारे बसाया जाए और प्लेग आदि के कीड़े उनके पास छोड़ दिया जाएं, जिससे वे अपने आप खत्म होते रहेंगे. साथ ही डॉक्टरों को इनके इलाज के लिए न लगाया जाए.

कहना होगा कि उदारीकरण के जनक माने जाने वाले मनमोहन सिंह कि यह सरकार भी उसी माल्थस के अर्थशास्त्र को अपना गीता और कुरआन बनाए हुई है. बंगाल के अकाल के समय जब सेठ-साहूकारों के गोदाम भरे थे और लोग अन्न-अन्न को तरस रहे थे तब भी कोलकाता में महारानी विक्टोरिया के सम्मान में खड़ा ‘विक्टोरिया पेलेस’ मानवता को मूंह चिढा रहा था. अब सरकार संसाधन समेत अन्य बहाने बना गरीबों तक अनाज पहुचाने के बदले उसी विक्टोरिया के बैटन को ले कर शहर-शहर घूम रही है. केवल गुलामी याद दिलाने वाले पन्द्रह दिनी राष्ट्रकुल आयोजन में ही जितने हज़ार करोड रूपये का ‘खेल’ हो जाएगा उतने में आसानी से हर घर तक अनाज सड़ने से पहले पहुच सकता था.

अमर्त्य सेन की स्थापना फिर उल्लेखनीय है कि अगर बंगाल के अकाल के समय देश में लोकतंत्र होता तो, जनता और उसके नुमाइंदे संसद में अकालपीड़ितों के पक्ष में आवाज उठाकर सरकार की नाक में दम कर सकते थे. उन्होंने यह आश्वस्ति भी व्यक्त की थी कि लोकतंत्र के आते ही भूख की समाप्ति हो जायेगी. आजादी के छः दशक बाद भी भारत में ‘भूखों’ को राजनीति द्वारा समाप्त किये जाने की इस कुचेष्टा पर वे अफ़सोस जताने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं. छत्तीसगढ़ में बैठकर यह लेख लिखते-लिखते वीर नारायण सिंह याद आ रहे हैं जिनका जमाखोरों के गोदामों से भूखों के लिए अनाज लूट लेने का आंदोलन स्वतंत्रता का शंखनाद साबित हुआ था. रायपुर का जयस्तंभ चौक जहां उन्हें फांसी दी गयी थी उनके शहादत का जीता-जागता प्रतीक है. लेकिन अफ़सोस तो यह है कि आज के गरीब कथित आम आदमी की अपनी ही सरकार से राशन लूटने कहां जाए. प्रधानमंत्री जी, ‘माल्थस’ कीड़ों को गरीबों की बस्तियों में छोड़े जाने की सलाह देता था. उन्ही के विचारधारा की आपकी सरकार के मन में पल रहा बिचौलियों को लाभ पहुचाने का कीड़ा तो लोकतंत्र में ही सरांध पैदा कर रहा है.