अब कश्मीर में बंदूक नहीं, बात चले

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

जम्मू-कश्मीर में मनोज सिंहा को उप-राज्यपाल बनाया गया है, यह इस बात का संकेत है कि भारत सरकार कश्मीर में डंडे की राजनीति नहीं, संवाद की राजनीति चलाना चाहती है। भारत सरकार वहां किसी फौजी अफसर या नौकरशाह को भी नियुक्त कर सकती थी लेकिन तालाबंदी खुलने के बाद यदि कुछ उथल-पुथल होती तो कश्मीर में काफी रक्तपात हो सकता था। कश्मीर में तो साल भर से तालाबंदी है। मैं इस तालाबंदी को अच्छा नहीं समझता हूं लेकिन 5 अगस्त 2019 के बाद यदि कश्मीर में तालाबंदी नहीं होती तो पता नहीं, वहां कितना खून बहता। अब यह तालाबंदी खुलनी चाहिए। नज़रबंद नेताओं को रिहा किया जाना चाहिए। उन्हें आपस में मिलने देना चाहिए और उनसे केंद्र सरकार को सीधा संवाद स्थापित करना चाहिए। शायद इसीलिए मनोज सिंहा को श्रीनगर भेजा गया है। मनोज अनुभवी नेता हैं। वे जमीन से जुड़े हुए हैं। छात्र-नेता के तौर पर वे यशस्वी हुए हैं। तीन बार उन्होंने सांसद का चुनाव जीता है। वे अपनी विचारशीलता और शालीनता के लिए जाने जाते हैं। यदि वे फारुक अब्दुल्ला, मेहबूबा मुफ्ती और हुर्रियत के नेताओं से सीधी बात करें तो निश्चय ही कोई सर्वमान्य रास्ता निकलेगा। जहां तक जम्मू-कश्मीर को फिर से पूर्ण राज्य का दर्जा देने की बात है, वह दिया जा सकता है, ऐसा संकेत गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में पिछले साल खुद भी दिया था। धारा 370 के बने रहने से कश्मीरियों को कोई खास फायदा नहीं है। उसे इंदिरा-काल में ही दर्जनों बार खोखला कर दिया गया था। अब तो बस उसका नाम भर बचा हुआ था। उसके हटने से अब कश्मीरी और शेष भारतीयों के बीच की खाई पट चुकी है। अब तो सबसे जरुरी काम यह है कि कश्मीर का चहुंदिश विकास हो। आतंकवाद समाप्त हो। वहां भ्रष्टाचार अपरंपार है। वह भी समाप्त हो ताकि औसत कश्मीरी नागरिक आनंद का जीवन जी सकें। हमारा कश्मीर शांति और समृद्धि का स्वर्ग बने ताकि पाकिस्तानी कश्मीर के लोग यह सोचने के लिए मजबूर हो जाएं कि हाय ! हम उधर क्यों न हुए ? तब पाकिस्तान के साथ भी संवाद चले और कश्मीर-समस्या को दोनों मुल्क मिलकर इतिहास का विषय बना दें। मोदी सरकार को चाहिए कि वह कश्मीरी नेताओं से दिली बातचीत के लिए सिर्फ नौकरशाहों और सिर्फ भाजपाइयों तक सीमित न रहे। देश में ऐसे कई दलीय, निर्दलीय नेता और बुद्धिजीवी हैं, जिनका कश्मीरी नेताओं से सीधा संपर्क है। मनोज सिंहा की नियुक्ति तभी सार्थक और सफल होगी जबकि कश्मीर में बंदूक नहीं, बात चलने लगेगी।

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