अब अपराधी के मानस मूल्यांकन की सार्थक पहल

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  • ललित गर्ग-

दुनिया के बहुत सारे देशों में फांसी की सजा का प्रावधान समाप्त किया जा चुका है और भारत में भी फांसी की सजा को समाप्त करने की मांग लगातार उठ रही है। प्रश्न है कि क्या मौत की सजा जैसे सख्त कानूनों के प्रावधान करने मात्र से अपराधों एवं अत्याचारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है? अपराधों को कठोर कानूनों के जरिये रोकने से ज्यादा जरूरी है कि समाज मंे ऐसी जागृति लाई जाये कि लोगों का मन बदले, अपराध की मानसिकता समाप्त हो। अपराधी को समाप्त करने की बजाय अपराध के कारणों को समाप्त किया जाना चाहिए। इसी के मद्देनजर अब सर्वाेच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि मौत की सजा पाए व्यक्तियों का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन भी अवश्य किया जाए। इसके लिए चिकित्सा संस्थानों के सुयोग्य मनोवैज्ञानिकों और मनोचिकित्सकों की टीम गठित की जाए।
सर्वाेच्च न्यायालय के इस आदेश से मौत की सजा के मामलों में दंड तय करने और अपराध विज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन के कुछ बेहतर नतीजों की उम्मीद है। संभवत यह अपराधमुक्त समाज की संरचना बनाने में कारगर सिद्ध होगा। बढ़ते अपराधों की वजहों में खास हैं समाज की असंतुलित एवं भेदभावपूर्ण संरचना, अमीरी-गरीबी की बढ़ती खाई, नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों को धुंधलाने की कुचेष्टाएं, कुंठित लोगों की आपराधिक मानसिकता, न्याय-प्रक्रिया की जटिलता और फैसलों में देरी है। यही कारण है कि सर्वाेच्च न्यायालय ने एक सार्थक पहल करते हुए मौत की सजा पाए व्यक्तियों का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन करने का आदेश उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र के उच्च न्यायालयों द्वारा सुनाई गई मौत की सजा के विरुद्ध दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए दिया है। किसी को मौत की सजा देना सभ्य समाज की निशानी नहीं माना जाता। यह बर्बर समाज की कार्रवाई मानी जाती है। इसीलिए दुनिया के बहुत सारे देशों में ऐसी सजा का प्रावधान समाप्त कर दिया गया है।
किसी भी समाज के निरंतर विकास करने के लिए समाज में शांति और सुरक्षा का वातावरण जरूरी है और इसके लिए उसे अपराध मुक्त होना परम आवश्यक है। प्रत्येक देश की सरकार का प्रथम कर्तव्य है कि वह समाज और देश को बाह्य एवं आन्तरिक नकारात्मक शक्तियों से मुक्त रखने के लिए समुचित व्यवस्था करंे। समाज को अपराध मुक्त रखने के लिए अपराध और अपराधी के मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है, यदि अपराधी की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति का अध्ययन कर उसको मजबूर करने वाली परिस्थितियों को बनने से ही रोक दिया जाय, तो समाज को अपराधमुक्त करना अथवा न्यूनतम अपराध वाले समाज की श्रेणी में लाने में मदद मिल सकती है।
बड़ा सच है कि कोई जन्मजात अपराधी नहीं होता। कुछ परिस्थितियों के चलते अपराधी बन जाते हैं, कुछ संगत के चलते, तो कुछ मनोविकारों के चलते। मगर जब अपराधी की सजा तय होती है, तो साक्ष्यों पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है, अपराध के कारणों पर नहीं। कानून की विडम्बना एवं विसंगति सदियों से चली आ रही है कि अपराधी को समाप्त करने के कठोर प्रावधान है, लेकिन अपराध को रोकने का कोई उपक्रम नहीं है। यही कारण है अपराध की प्रकृति और उसकी गंभीरता के मद्देनजर सजा का निर्धारण किया जाता है। जघन्य अपराधों में कठोरतम सजा के रूप में फांसी का प्रावधान है। इसलिए हमारे यहां सजा-ए-मौत के मामले भी बहुत आते हैं। फिर निचली अदालतों के उन फैसलों को उच्च और उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जाती है। अंतिम रूप से राष्ट्रपति से जीवनदान पाने की गुहार लगाने का विकल्प भी है। हालांकि हमारे यहां फांसी की सजा समाप्त करने की मांग भी लंबे समय से उठती रही है, क्योंकि इस सजा के बाद व्यक्ति के सुधरने या अच्छा नागरिक बनने की संभावना समाप्त हो जाती है।
कानून, व्यवस्था, सुरक्षा और न्याय सभी बैशाखियों पर लटक गये हैं। यही वजह है कि आज गलत कार्यों- अपराधों के अंजाम पा लेने के बाद न्यायिक जांच का सवाल उठता है। उससे पहले अधिकारियों की आंखें खुलती नहीं। बड़ा प्रश्न है कि अपराधों की उम्र कितनी? तो शायद सार्थक उत्तर हो सकता है-‘जागने में समय लगे मात्र उतनी।’ यानी जघन्य अपराध करने वालों के मानस का अध्ययन कर समझने का प्रयास किया जाये कि आखिर उस व्यक्ति ने किन परिस्थितियों के चलते ऐसा कदम उठाया। उन परिस्थितियों को समाप्त किया जाये तो अपराध स्वतः समाप्त हो जायेगा।
देश में जितने वास्तविक बलात्कार एवं बाल-दुष्कर्म के मामले दर्ज नहीं होते, उससे अधिक फर्जी मामलें दर्ज हो रहे हैं, और इन सख्त कानूनों की आड में लोग एक-दूसरे से बदला ले रहे हैं या अनुचित धन कमा रहे हैं और सामाजिक सोच को दूषित कर रहे हैं। इन दूषित परिस्थितियों से मुक्ति के प्रयत्न हो। इन अपराध के कारणों का पता लगाकर उन्हें समाप्त किया जाये, अपराध की जड़ को ही समाप्त किया जाये तो अपराधमुक्त समाज व्यवस्था स्थापित करना आसान होगा। मगर हमारे यहां ऐसे प्रयत्नों एवं अध्ययन का अनिवार्य प्रावधान नहीं है। अब सर्वाेच्च न्यायालय ने इसे अनिवार्य किया है तो उसके परिणामस्वरूप अपराधों पर नियंत्रण स्थापित हो सकेगा। अपराध दरअसल, मानसिक विकृतियों, मानसिक उथल-पुथल का ही नतीजा होता है। अक्सर देखा जाता है कि अपराध करने के बाद अपराधी पश्चात्ताप करता है, उसे अपने किए पर पछतावा होता है। मगर कई पेशेवर कहे जाने वाले अपराधियों का मानस कुछ जटिल होता है। हालांकि अपराधशास्त्र में अपराध करने वालों के मानस का अध्ययन ही किया जाता है और हर परिस्थिति में बदलती आपराधिक प्रवृत्ति पर सूक्ष्म नजर रखी जाती है। मगर न्याय प्रक्रिया में इन बिंदुओं पर ध्यान नहीं दिया जाता। अब सर्वाेच्च न्यायालय के आदेश पर ऐसे अपराधियों का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन किया जाएगा, तो न सिर्फ उनके अपराधी बनने, उनकी आपराधिक मानसिकता के बारे में ठीक-ठीक पता लगने की संभावना बनेगी, बल्कि इस तरह के अपराधियों की चिकित्सा संबंधी नए सूत्र भी मिल सकेंगे। अपराधियों को सुधरने एवं उन्हें नेक इंसान बनाने की दिशा में भी उपयोगी पहल हो सकेगी। फिर समाज में बढ़ती आपराधिक घटनाओं को रोकने के उपायों पर भी नए ढंग से विचार करने के रास्ते खुलेंगे। अभी तक केवल दंड के भय से अपराध को रोकने का प्रयास किया जाता रहा है, शायद अब अपराधी को सुधारने के रास्ते भी खुलें।
अपराध के मनोविज्ञान के इन अध्ययनों को स्कूली पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाया जाये, ताकि विद्यार्थी जीवन से ही आपराधिक मानस बनने को रोका जा सके। समाज को अपराध मुक्त रखने के लिए आवश्यक है, शिक्षा में चरित्र निर्माण पर विशेष जोर दिया जाय, जनता की मूल समस्याओं का समाधान शीघ्र से शीघ्र किया जाय, समाज में पनपने वाले असंतोष को समय रहते दूर किया जाय, समाज में साधनों की असमानता का अंतर समाप्त करने के प्रयास हों, मुकदमें सालों साल चलते रहते हैं और जटिल अपराधियों की प्रवृत्ति और उनके मनोबल पर कोई खास असर नहीं पड़ता है, इसलिये अपराधी को शीघ्र से शीघ्र सजा देने की व्यवस्था की जाय और किसी भी अपराधी को सजा से बच पाने के अवसर न मिल पाए। इन सभी उपायों के लिए शासन और प्रशासन की इच्छा शक्ति का होना अत्यंत आवश्यक है।
हमारे देश में सख्त कानूनों की कमी नहीं है। इससे अपराध रुकता तो निर्भया कांड के बाद गुस्सा देखकर कोई बलात्कार नहीं करता, लेकिन अपराध की प्रवृत्ति नहीं बदली। इसे समझने की आज कहीं कोशिश नहीं हो रही। दिल्ली गैंगरेप के आरोपियों को फांसी की सजा दी गई, लेकिन क्या उनका मनोविज्ञान जानना जरूरी नहीं था? उनका मनोविज्ञान पढ़कर हम पता कर सकते थे कि किन परिस्थितियों ने उन्हें इतना हिंसक एवं वीभत्स बनाया। यह एक आसान तरीका होता अपराध रोकने का बजाय इसके कि हम भय पैदा करें। अपराध नियंत्रण के और भी कई तरीके हैं। अपराधियों के हारमोन बदलकर भी उनकी प्रवृत्ति बदली जा सकती है। पश्चिमी देशों में इन तरीकों का इस्तेमाल काफी कारगर साबित हुआ है। मनोविज्ञान केवल अपराधी का ही नहीं पीड़ित का भी पढ़ा जाना चाहिए। इससे कई बार बेगुनाह बच सकता है। विडंबना यह है हमारे समाज से लेकर समूचा तंत्र अपराधमुक्त समाज के मसले पर साहसपूर्ण तरीके से सोचने की कोशिश नहीं करता है। कानून के साथ-साथ समाजशस्त्रियों, धर्मगुरुओं को सामाजिक जन-जागृति का माहौल बनाना होगा, सरकार को भी नयी सोच के साथ आगे आना होगा। अगर इस तरह अपराधों को बढ़ावा नहीं मिले और उसका प्रतिकार होता रहे तो निश्चित ही एक सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ होगी, जो अपराधमुक्त समाज का आधार बनेगी। देश में जितने अधिक एवं कठोर कानून बनते हैं, उतना ही उनका मखौल बनता है। आज यह कहना कठिन है कि दुष्कर्मी एवं अपराधी तत्वों के मन में कठोर सजा का कहीं कोई डर है। शायद इसी कारण अपराध एवं दुष्कर्म के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। निःसंदेह इस पर भी ध्यान देना होगा कि कठोर कानून एक सीमा तक ही प्रभावी सिद्ध होते हैं।

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