भारती : मैं भारती हूं। आदि शक्ति, आदि संस्कृति, आदि प्रवाह…. आदि से अनन्त की गवाह.. सवा अरब संतानों की माता-मां भारती।
कर्म-मेरी शक्ति, क्षमा-मेरी संस्कृति, करुणा-मेरा मातृभाव और कल-कल, छल-छल निनाद करती अमृतधारायें..नदियां-मेरा प्रवाह…मेरी जीवनरेखा।
’’गंगे च यमुने चैव गोदावरी..सरस्वती।
नर्मदे सिंधु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधि कुरु।।’’
गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी……
पुत्र: कावेरी ?
भारती: हां पुत्र, कावेरी!
ये नदियां ही तो हमारी संस्कृृति हैं; विरासत हैं; अतीत हैं; वर्तमान हैं और
भविष्य भी तो यही हैं पुत्र.. यही नदियां!
पुत्र: क्या सचमुच ?
भारती: हां, सचमुच पुत्र.. सचमुच।
पुत्र: और यमुना ?
(इस बीच एक-एक कर कुछ और जिज्ञासु नन्ही संतानें आकर मां भारती व पुत्र का संवाद सुनने लगती है।)
भारती : यमुना ? यमुना तो सूर्यपुत्री है। यम की छोटी और गंगा की बङी बहन है यमुना।
नवरूप में सामवेद, धारारूप में यजुर्वेद, आवतृरूप में ऋगवेद है, यमुना।
यमुना त्यागी है, त्रयी है, कालिंदी है। कृष्ण की गीता है, यमुना।
तुलसी की रामकथा, शिव की शांति, पुरुरवा की उर्वशी और बुद्ध का उपदेश है, यमुना।
पुत्र : मगर, कोई तो कहता है कि यमुना तो कृष्णा है; कृष्णप्रिया!
भारती: हां, कृष्णा तो है यमुना।
’’बंहियन बांधे नंद नंदन को, कालिंदी कटि लपटाय रही।
धन्य भाग अहो यमुना जी को, पिय पाय रही, मुस्काय रही।’’
पुत्र: मां, माधवनंदन के लिए यदि यमुना अर्धांगिनी है, तो फिर यम के लिए ?
भारती : यम के लिए ? यम द्वितीया की देवी! भैया दूज की प्रतीक।
पुत्र : मैं समझ गया, मैं समझ गया; भारत की मनप्राण है, यमुना! पालक-पोषक-पूज्यनीया
और कहूं तो धन्य है यमुना।
सम्वेत स्वर : हां, हां धन्य है यमुना। हां, हां धन्य है यमुना।
नट : जीवन की रचना का मौलिक आधार है-पंचतत्व और पंचतत्वों में एक प्रबल तत्व है-सूर्य ; एक प्रबल देव! सूर्य का तप सफल हुआ। पत्नी संज्ञा के गर्भ में आई विष्णुपदी.. गंगा, जो कि कालांतर में भगीरथी कहलाई।
’’जय जय भागीरथ नंदिनी, मुनि चम चकोर चंदिनी।
नर नाग बिबुध बंदिनी, जय जह्नु बालिका।।’’
पत्नी छाया ने यम और यमी को जन्म दिया।
जानती हो सखी, कालांतर में दोनो पृथ्वीलोक गये।
नटी : यदि यम-यमी पृथ्वीलोक में न आते तोे ?
नटः आते क्यूं नहीं सखी; उनका अवतरण तो मां छाया के गर्भ में आने से पहले ही तय हो गया था। यम को यमी से स्नेह था; यमी को गंगा से और गंगा को सभी से; तभी तो गंगा भी तो पृथ्वी लोक गई.. मगर, बचपन भी क्या खूब होता है; है न सखी ?
(नन्हे यम, यमी और गंगा का खेलना; खेलते-खेलते आपस में झगङना।)
नटी : अरे, अरे… देखो, यम-यमी को देखो, अरे गंगा भी ! ओह्हो… अरे इन्हे कोई रोको तो।
( यम, यमी और गंगा का चले जाना। )
नट : मां का वात्सल्य और पिता का आशीष जितना प्रबल है, श्राप उतना ही कठिन, किंतु….
नटी : किंतु क्या ?
नट: किंतु हितकारी। क्यों, तुम क्या कहती हो ? बोलो, सखी।
नटी : मैं… मैं क्या कहूंगी। क्या तुम नहीं जानते। कुम्हार की थापों से माटी का लोंदा भी क्या सुंदर स्वरूप ले लेता है।
नट : जानता हूं; तभी तो कहता हूं सखी। यम को मां संज्ञा का शाप मिला; पिता सूर्य क्रोधित हुए; यम को पृथ्वीलोक का रास्ता दिखाया, तो क्या बुरा हुआ ?
पाप के बोझ से दबी पृथ्वी पर धर्म का राज हुआ। यम उसका माध्यम बने। पहले यमराज कहलाये, फिर धर्मराज।
नटी : मगर, बहन यमुना….
नट : यमुना ? ओह! अब यमुना के दुख की कौन सोचता है, सखी। तुम भी तो नहीं सोचती। तुम भी भूल गई! सखी होकर भूल गई!
(दुखभरी सांस लेकर )
जब भाई होकर यमराज ही भूल गये, तो फिर भला तुम क्यूं नहीं।
भाई के विरह में तङफती बहन यमुना को भुलाकर जाने से कौन से धर्म का निर्वाह कर रहे थे धर्मराज।
नटी : यमुना विरह में थी ?.. अकेली ? …तो क्या गंगा वहां नहीं थी ?
नट : गंगा भला कैसे अकेली छोङ सकती थी अपनी बङी बहन को; और वह भी यमुना सरीखी बङी बहन को, जिसने कालांतर में गंगा को गौरवान्वित ही किया; छोटी होने के बावजूद बङी ही रखा, अपने से भी बङी! …..और अंततः उसी में विलीन हो गई।
नटी : क्या गंगा यह बात नहीं जानती ?
नट : अरे सखी, गंगा ही तो है, जो बङी बहन के दुःख से आज भी उद्वेलित होती है, और कल भी होती थी।
नटी: गंगा ने क्या किया ?
नट : गंगा ने धर्मराज को यमुना का संदेशा दिया। धर्मराज तो जैसे सोते से जगे।
( गंगा का संदेशा देना। धर्मराज का जागना। धर्मराज संवाद)
धर्मराज: ओह! यह क्या हुआ ? धर्म का शासक होकर मैं ही धर्म को भूल गया! बहन यमुना को भूल गया!!
गंगा : चलो, अब शोक न करो धर्मराज। चलो, कार्तिक शुक्ल की यम द्वितीया को धूप, दीप, अक्षत् चंदन, रोली और सुंदर भोजन बनाये बहन यमुना आपका इंतजार करती होगी।
धर्मराज : चलो बहन, जल्दी चलो।
(गंगा-धर्मराज का जाना। नट-नटी का प्रवेश )
नट : सचमुच! भाई-बहन के रिश्ते के नाम पर अमर हो गई यमुना।
नटी : ..और यम द्वितीया का पर्व ?
नटी : उसे हम कैसे भूल सकते हैं सखी ? वही तो है भैया दूज। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की यम द्वितीया! यम-यमी का स्नेह पर्व!!
(भैया दूज पर्व के क्षणिक दृश्य के साथ दृश्य परिवर्तन)
( यात्रा स्थलों के अनुसार बदलते पार्श्व चित्र। प्रवाह स्वर के साथ यमुना का प्रवेश। पाश्र्व से उभरता वाचक/वाचिका के अत्यंत प्रभावशाली स्वर।)
वाचक : चंचला, चपला उन्मुक्त यमुना का घर छूटा, पिता का घर छूटा। ब्रह्म को दिया वचन पूरा हुआ। कल्याणी तो चल पङी परमार्थ करने।
वाचिका : हिमालय के कलिन्द पर्वत की गोद से उतरी, सो कलिन्दजा कहलाई।
सप्तऋषि कुण्ड से निकल भरे मन से एक-एक पग धारती यमुना मंसूरी रेंज, हिमालय के सिद्धि तीर्थ पहुंची, तो वह स्थान यमुनोत्री कहलाया; वही सिद्धितीर्थ, जहां तप करने पर स्वयं यमराज दिग्पाल हुए, अग्निदेव… लोकपाल।
वाचक : वही सिद्धितीर्थ, लंकादहन के पश्चात् जिसके शीर्ष पर्वत पर वीर हनुमान के विश्राम करने का कथानक है – बंदरपूंछ; वही सिद्धितीर्थ, जिसके कुण्ड में स्नान करने पर प्राणी जीवन-मरण के बंधन से मुक्त माना जाता है।
वाचिका : यमुना आगे बढी, तो हिमवनों के मन-मयूर नाच उठे। वृक्षों ने झुक-झुककर बहन की चरण वंदना की।
वाचक : तपते-खौलते जल का सूर्यकुण्ड, गौरीकुण्ड और फिर हनुमानचट्टी, फूलचट्टी, नारदचट्टी, जंगलचट्टी। छह किलोमीटर नीचे बङकोट।
गांव खरसाली में खबर पहुंची तो धूम मच गई। श्रृद्धा, प्रेम, खुशी और समृद्धि के पुष्प बरसने लगे। मंदिरों के घंटे घन-घना उठे।
वाचिका : नई सखी को आई जान तिरछे नयनों वाली पृथ्वी पुत्रियां नाच उठी। भाई स्नेह से भर उठे। किंतु…..
वाचक : किंतु क्या ?
वाचिका : किंतु ज्ञानियों के ज्ञानचक्षुओं ने यमुना को पहचान लिया। उनके हाथ श्रृद्धा से जुङ गये; नमामि.. नमामि के स्वर गूंज उठे।
वाचक : सचमुच, भारत की मनप्राण है यमुना।
आज भी कार्तिक शुक्ल की द्वितीया के दिन विशेष पूजा के साथ यमुनोत्री के कपाट बंद होते हैं और वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को पुनः खुल जाते हैं। यमुनोत्री में फिर गूंजते हैं श्रृद्धा स्वर।
( यमुना आराधना; तद्नुसार उठते पाश्र्व स्वर )
वाचक : इसी तरह तमाम रिश्ते-नाते निभाती, मिलती-बिछुङती यमुना खरसाली से हनुमानगंगा पहुंचती है। आगे हरिपुर कालसी से पबार, रूपिन और सूपिन के संयोग से बनी तमसा यानी टोंस से मिलकर यमुना काफी प्रसन्न तो दिखती है, लेकिन पीहर छूटने से तनिक दुखी भी। यहां यमुना की मुलाकात होती है स्वागत को तैनात खङे सहारनपुर का मैदान से।
वाचिका : मुजफ्फरनगर, मेरठ और हरियाणा के यमुनानगर, करनाल, पानीपत, सोनीपत को सींचती, खेत-खलिहानों मं समृद्धि की खुशियां भरती यमुना अपने कर्तव्य को भूल नहीं पाती। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, अपनी संतानों को लाडने-दुलारने के लिए यमुना अपने हाथ फैला देती है; पाट चैङा होता जाता है।
वाचक : सच, उजङते-बसते हस्तिापुर की मृगमरीचिका भी यमुना को रोक नहीं पाती। दिल्ली आते ही एक पल ठिठुकती है, ठहरती है, अपनी देह देकर भी दिल्ली को रोशन करती है, जिलाती है और फिर चल पङती है आगे और आगे।
राजधानी की सरहदें छोङते ही हरनंदी से मिलकर यमुना को जैसे पर लग जाते हैं। अपने यौवन को संभालती, समेटती, सकुचाती कृष्णा जैसे अपने प्रभु से मिलने मथुरा पहुंचने की जल्दी में हो।
वाचिका : जाने कैसे प्रीत लगाई है जसोदा के लाल ने ? जाने कौन सो जादू कर रखो है ?
जैसे बावरी हो गई है जमुना। आखिर कृष्ण को जनम भयो; कृष्ण जन्मे।
वाह रे, मुरलीधर ! जनमते ही चरण छुआए भी तो सबसे पहले प्यारी कृष्णा से ही।
जेहि प्रीत को मीत मिलो ऐसो, तेहि धन्य कहो यमुना जी सो।
(दृश्य परिवर्तन)
(दृश्य परिवर्तन )
यमुना
मगर, तुमने मुझे क्या दिया ?
सूर्य
मानव.. मूर्ख मानव; नहीं, नहीं तुम मानव तो हो नहीं सकते। तुम तो दानव हो;
विनाश के ज्वालामुखी पर बैठे, क्रूर और अभिमान के मद में चूर दानव!
तुमने कभी सोचा,
यमुना को मारकर…मिटाकर क्या तुम बच पाओगे ?
आज टी बी, कैंसर, दमे का संत्रास झेलते हो, क्या कल जन्मते ही मर नहीं जाओगे ?
क्या लालकिले की दीवारें तुम्हे चीख-चीखकर तबाह नहीं कर देंगी ?
जरा सोचो, बार-बार सोचो!
ब्रह्मदेव
अब समय नहीं, पर सुनते जाओ।
मैं हूं शुभेच्छु तुम सबका।
वर्तमान तुम्हे ललकार रहा
जो बैठे मंडप तले यहां।
जिनमें पौरुष अभी बाकी हो,
उनका पौरुष जाने ये जहां।
बांधों नालो को खेतों तक,
बांधो उर्वरकों को फसलों तक।
बांधो, जो बांध सको तो आबादी,
रोको, जो रोक सको तो पलायन।
वरना् तुम बच न पाओगे,
रोज पियोगे जहर का प्याला,
मर जायेंगे गर्भ के शिशु,
बच जायेंगे हो विकलांग,
फैली होगी मैली चादर
स्याह बनेंगे शहर श्मशान।
याद रखो, एक-एक तिनका जोङकर बनाई रचना कहीं टूट न जाये। कहीं छूट न जाये मेहनत की रोटी।
जरा सोचो,
यदि स्वस्थ शरीर ही बीमार हो गया, तो बाकी कमाई क्या काम आयेगी।
कृष्ण
मैं देख रहा हूं कि तुम भूल चुके कि
यमुना तुमको जल देती है, जीवन देती है।
तुम भूल चुके, यमुना तुम को सेती है।
तुम यह भी भूल गये कि तुम्हारे प्रिय कृष्ण की अंर्धागिनी है, कृष्णा।
मैं सब देख रहा हूं; मैं कुछ नहीं भूला।
तुम मेरी कृष्णा के प्रवाह को खा गये।
तुमने मेरी कृष्णा का श्रृंगार नष्ट कर दिया।
चूस लिया तुमने कृष्णा का यौवन।
कृष्ण मित्र नहीं तुम। व्याभिचार के दोषी हो तुम।
मेरी अर्धांगिनी का रोज चीरहरण करते हो तुम।
भूल गये, जब चीर लुटा द्रौपदी का ? भूल गये तुम अंत कू्रर दुशासन का।
अब और नहीं। अंतिम क्षण है यह। अब भी चेतो।
सम्वेत स्वर: हैया रे हैया…
जमुना जिआये, जिओगी री दीदी।
जमुना मरी तो मर जाओगे भैया।।
हाय, हाय दैया, हैया रे हैया
कैसे कृष्ण भगत तुम भैया।
फिर किसे कहोगे यमुना मैया।
हैया रे हैया……..