आदि का अनंत प्रवाह – यमुना 

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यमुना नाटिका 
अरुण तिवारी
 
इस शिवरात्रि को मैं जीवन यात्रा के 53 वर्ष पूरे कर लिए। मैं जन्म से दिल्ली में हूं। 11 वर्ष का हुआ, तो रहने के लिए बाबूजी हमें यमुना किनारे ले आये। मेरा नया सरकारी स्कूल सिविल लाइन्स में स्थित था। लोहे वाले पुराने पुल से आते-जाते हमारी स्कूल बस छुट्टी के दिन छोङकर रोज दिन में दो बार मुझे और मेरे सहपाठियों को यमुना दर्शन कराया करती थी। चंदगीराम का अखाङा, घङी वाला पार्क, मंदिर, खरबूजे-ककङी की मौसमी खेती, नाव, पुश्ता और फिर यमुना का उछाल मारता उत्सव.. आहृान् ! मैने यमुना का उत्कर्ष भी देखा है और यमुना का पराभव भी। बहुत बाद में समझ में आया कि यह यमुना का नहीं, दिल्लीवासियों का पराभव हैं।
 
गढवाल के प्रसिद्ध गीतकार और गायक स्वर्गीय श्री चंद्रसिह राही द्वारा प्रेरित करने पर वर्ष-1998 में मेरी कलम ने मां यमुना पर एक अनगढ़ सी रचना रच डाली। थोङे बदलाव के साथ इसका उपयोग नृत्य नाटिका, रेडियो एकांकी, टी वी शो अथवा कत्थक प्रस्तुति के रूप में किया जा सकता है।
 
इस नाटिका में मां भारती और उसकी पुरुष संतान के बीच संवाद के जरिए इसमें यमुना का परिचय, व्यथा, कृष्ण और यमराज की चेतावनी के जरिए जनमानस की संवेदनाओं को कुरेदने की कोशिश की गई है। यमुना की वर्तमान स्थिति और उसके प्रति मृत संवेदनाओं को देखकर मुझे यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं है कि मेरी कलम कुछ न कर सकी; फिर भी मुझे उम्मीद है कि आज नहीं तो कल, यमुना के समाज की संवेदनायें जागेगी; समाज यमुना और अपने रिश्ते को समझेगा तथा यमुना की लहरों के जरिए अपना जीवन बचाने निकल पङेगा। 
इसी उम्मीद के साथ पुनः प्रस्तुत है मेरा यह निवेदन:
दृश्य एक : मां भारती संवाद
 

भारती : मैं भारती हूं। आदि शक्ति, आदि संस्कृति, आदि प्रवाह…. आदि से अनन्त की गवाह.. सवा अरब संतानों की माता-मां भारती।

कर्म-मेरी शक्ति, क्षमा-मेरी संस्कृति, करुणा-मेरा मातृभाव और कल-कल, छल-छल निनाद करती अमृतधारायें..नदियां-मेरा प्रवाह…मेरी जीवनरेखा।

’’गंगे च यमुने चैव गोदावरी..सरस्वती।
नर्मदे सिंधु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधि कुरु।।’’

गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी……

पुत्र:  कावेरी ?

भारती: हां पुत्र, कावेरी!

ये नदियां ही तो हमारी संस्कृृति हैं; विरासत हैं; अतीत हैं; वर्तमान हैं और
भविष्य भी तो यही हैं पुत्र.. यही नदियां!

पुत्र: क्या सचमुच ?

भारती: हां, सचमुच पुत्र.. सचमुच।

पुत्र: और यमुना ?

(इस बीच एक-एक कर कुछ और जिज्ञासु नन्ही संतानें आकर मां भारती व पुत्र का संवाद सुनने लगती है।)

भारती : यमुना ? यमुना तो सूर्यपुत्री है। यम की छोटी और गंगा की बङी बहन है यमुना।

नवरूप में सामवेद, धारारूप में यजुर्वेद, आवतृरूप में ऋगवेद है, यमुना।

यमुना त्यागी है, त्रयी है, कालिंदी है। कृष्ण की गीता है, यमुना।

तुलसी की रामकथा, शिव की शांति, पुरुरवा की उर्वशी और बुद्ध का उपदेश है, यमुना।

पुत्र : मगर, कोई तो कहता है कि यमुना तो कृष्णा है; कृष्णप्रिया!

भारती: हां, कृष्णा तो है यमुना।

’’बंहियन बांधे नंद नंदन को, कालिंदी कटि लपटाय रही।
धन्य भाग अहो यमुना जी को, पिय पाय रही, मुस्काय रही।’’

पुत्र: मां, माधवनंदन के लिए यदि यमुना अर्धांगिनी है, तो फिर यम के लिए ?

भारती :  यम के लिए ? यम द्वितीया की देवी! भैया दूज की प्रतीक।

पुत्र : मैं समझ गया, मैं समझ गया; भारत की मनप्राण है, यमुना! पालक-पोषक-पूज्यनीया
और कहूं तो धन्य है यमुना।

सम्वेत स्वर : हां, हां धन्य है यमुना। हां, हां धन्य है यमुना।

 
दृश्य 2: यमुना परिचय
 
(दो नट नटी का प्रवेश।)
 

नट : जीवन की रचना का मौलिक आधार है-पंचतत्व और पंचतत्वों में एक प्रबल तत्व है-सूर्य ; एक प्रबल देव! सूर्य का तप सफल हुआ। पत्नी संज्ञा के गर्भ में आई विष्णुपदी.. गंगा, जो कि कालांतर में भगीरथी कहलाई।

’’जय जय भागीरथ नंदिनी, मुनि चम चकोर चंदिनी।
नर नाग बिबुध बंदिनी, जय जह्नु बालिका।।’’

पत्नी छाया ने यम और यमी को जन्म दिया।
जानती हो सखी, कालांतर में दोनो पृथ्वीलोक गये।

नटी : यदि यम-यमी पृथ्वीलोक में न आते तोे ?

नटः आते क्यूं नहीं सखी; उनका अवतरण तो मां छाया के गर्भ में आने से पहले ही तय हो गया था। यम को यमी से स्नेह था; यमी को गंगा से और गंगा को सभी से; तभी तो गंगा भी तो पृथ्वी लोक गई.. मगर, बचपन भी क्या खूब होता है; है न सखी ?

(नन्हे यम, यमी और गंगा का खेलना; खेलते-खेलते आपस में झगङना।) 

नटी : अरे, अरे… देखो, यम-यमी को देखो, अरे गंगा भी ! ओह्हो… अरे इन्हे कोई रोको तो।
( यम, यमी और गंगा का चले जाना। )

नट : मां का वात्सल्य और पिता का आशीष जितना प्रबल है, श्राप उतना ही कठिन, किंतु….

नटी : किंतु क्या ?

नट: किंतु हितकारी। क्यों, तुम क्या कहती हो ? बोलो, सखी।

नटी : मैं… मैं क्या कहूंगी। क्या तुम नहीं जानते। कुम्हार की थापों से माटी का लोंदा भी क्या सुंदर स्वरूप ले लेता है।

नट : जानता हूं; तभी तो कहता हूं सखी। यम को मां संज्ञा का शाप मिला; पिता सूर्य क्रोधित हुए; यम को पृथ्वीलोक का रास्ता दिखाया, तो क्या बुरा हुआ ?

पाप के बोझ से दबी पृथ्वी पर धर्म का राज हुआ। यम उसका माध्यम बने। पहले यमराज कहलाये, फिर धर्मराज।

नटी : मगर, बहन यमुना….

नट : यमुना ? ओह! अब यमुना के दुख की कौन सोचता है, सखी। तुम भी तो नहीं सोचती। तुम भी भूल गई! सखी होकर भूल गई!

(दुखभरी सांस लेकर )

जब भाई होकर यमराज ही भूल गये, तो फिर भला तुम क्यूं नहीं।
भाई के विरह में तङफती बहन यमुना को भुलाकर जाने से कौन से धर्म का निर्वाह कर रहे थे धर्मराज।

नटी : यमुना विरह में थी ?.. अकेली ? …तो क्या गंगा वहां नहीं थी ?

नट : गंगा भला कैसे अकेली छोङ सकती थी अपनी बङी बहन को; और वह भी यमुना सरीखी बङी बहन को, जिसने कालांतर में गंगा को गौरवान्वित ही किया; छोटी होने के बावजूद बङी ही रखा, अपने से भी बङी! …..और अंततः उसी में विलीन हो गई।

नटी : क्या गंगा यह बात नहीं जानती ?

नट : अरे सखी, गंगा ही तो है, जो बङी बहन के दुःख से आज भी उद्वेलित होती है, और कल भी होती थी।
नटी: गंगा ने क्या किया ?

नट : गंगा ने धर्मराज को यमुना का संदेशा दिया। धर्मराज तो जैसे सोते से जगे।

दृश्य 3: गंगा-धर्मराज संवाद

( गंगा का संदेशा देना। धर्मराज का जागना। धर्मराज संवाद)

धर्मराज: ओह! यह क्या हुआ ? धर्म का शासक होकर मैं ही धर्म को भूल गया! बहन यमुना को भूल गया!!

गंगा : चलो, अब शोक न करो धर्मराज। चलो, कार्तिक शुक्ल की यम द्वितीया को धूप, दीप, अक्षत् चंदन, रोली और सुंदर भोजन बनाये बहन यमुना आपका इंतजार करती होगी।

धर्मराज : चलो बहन, जल्दी चलो।

(गंगा-धर्मराज का जाना। नट-नटी का प्रवेश )

नट : सचमुच! भाई-बहन के रिश्ते के नाम पर अमर हो गई यमुना।

नटी : ..और यम द्वितीया का पर्व ?

नटी : उसे हम कैसे भूल सकते हैं सखी ? वही तो है भैया दूज। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की यम द्वितीया! यम-यमी का स्नेह पर्व!!

(भैया दूज पर्व के क्षणिक दृश्य के साथ दृश्य परिवर्तन)

दृश्य 4: यमुना यात्रा

( यात्रा स्थलों के अनुसार बदलते पार्श्व चित्र। प्रवाह स्वर के साथ यमुना का प्रवेश। पाश्र्व से उभरता वाचक/वाचिका के अत्यंत प्रभावशाली स्वर।)

वाचक : चंचला, चपला उन्मुक्त यमुना का घर छूटा, पिता का घर छूटा। ब्रह्म को दिया वचन पूरा हुआ। कल्याणी तो चल पङी परमार्थ करने।

वाचिका : हिमालय के कलिन्द पर्वत की गोद से उतरी, सो कलिन्दजा कहलाई।

सप्तऋषि कुण्ड से निकल भरे मन से एक-एक पग धारती यमुना मंसूरी रेंज, हिमालय के सिद्धि तीर्थ पहुंची, तो वह स्थान यमुनोत्री कहलाया; वही सिद्धितीर्थ, जहां तप करने पर स्वयं यमराज दिग्पाल हुए, अग्निदेव… लोकपाल।

वाचक : वही सिद्धितीर्थ, लंकादहन के पश्चात् जिसके शीर्ष पर्वत पर वीर हनुमान के विश्राम करने का कथानक है – बंदरपूंछ; वही सिद्धितीर्थ, जिसके कुण्ड में स्नान करने पर प्राणी जीवन-मरण के बंधन से मुक्त माना जाता है।

वाचिका : यमुना आगे बढी, तो हिमवनों के मन-मयूर नाच उठे। वृक्षों ने झुक-झुककर बहन की चरण वंदना की।

वाचक : तपते-खौलते जल का सूर्यकुण्ड, गौरीकुण्ड और फिर हनुमानचट्टी, फूलचट्टी, नारदचट्टी, जंगलचट्टी। छह किलोमीटर नीचे बङकोट।

गांव खरसाली में खबर पहुंची तो धूम मच गई। श्रृद्धा, प्रेम, खुशी और समृद्धि के पुष्प बरसने लगे। मंदिरों के घंटे घन-घना उठे।

वाचिका : नई सखी को आई जान तिरछे नयनों वाली पृथ्वी पुत्रियां नाच उठी। भाई स्नेह से भर उठे। किंतु…..

वाचक : किंतु क्या ?

वाचिका : किंतु ज्ञानियों के ज्ञानचक्षुओं ने यमुना को पहचान लिया। उनके हाथ श्रृद्धा से जुङ गये; नमामि.. नमामि के स्वर गूंज उठे।

वाचक : सचमुच, भारत की मनप्राण है यमुना।

आज भी कार्तिक शुक्ल की द्वितीया के दिन विशेष पूजा के साथ यमुनोत्री के कपाट बंद होते हैं और वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को पुनः खुल जाते हैं। यमुनोत्री में  फिर गूंजते हैं श्रृद्धा स्वर।

 ( यमुना आराधना; तद्नुसार उठते पाश्र्व स्वर )

वाचक : इसी तरह तमाम रिश्ते-नाते निभाती, मिलती-बिछुङती यमुना खरसाली से हनुमानगंगा पहुंचती है। आगे हरिपुर कालसी से पबार, रूपिन और सूपिन के संयोग से बनी तमसा यानी टोंस से मिलकर यमुना काफी प्रसन्न तो दिखती है, लेकिन पीहर छूटने से तनिक दुखी भी। यहां यमुना की मुलाकात होती है स्वागत को तैनात खङे सहारनपुर का मैदान से।

वाचिका : मुजफ्फरनगर, मेरठ और हरियाणा के यमुनानगर, करनाल, पानीपत, सोनीपत को सींचती, खेत-खलिहानों मं समृद्धि की खुशियां भरती यमुना अपने कर्तव्य को भूल नहीं पाती। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, अपनी संतानों को लाडने-दुलारने के लिए यमुना अपने हाथ फैला देती है; पाट चैङा होता जाता है।

वाचक : सच, उजङते-बसते हस्तिापुर की मृगमरीचिका भी यमुना को रोक नहीं पाती। दिल्ली आते ही एक पल ठिठुकती है, ठहरती है, अपनी देह देकर भी दिल्ली को रोशन करती है, जिलाती है और फिर चल पङती है आगे और आगे।

राजधानी की सरहदें छोङते ही हरनंदी से मिलकर यमुना को जैसे पर लग जाते हैं। अपने यौवन को संभालती, समेटती, सकुचाती कृष्णा जैसे अपने प्रभु से मिलने मथुरा पहुंचने की जल्दी में हो।

वाचिका : जाने कैसे प्रीत लगाई है जसोदा के लाल ने ? जाने कौन सो जादू कर रखो है ?
जैसे बावरी हो गई है जमुना। आखिर कृष्ण को जनम भयो; कृष्ण जन्मे।

वाह रे, मुरलीधर ! जनमते ही चरण छुआए भी तो सबसे पहले प्यारी कृष्णा से ही।

जेहि प्रीत को मीत मिलो ऐसो, तेहि धन्य कहो यमुना जी सो।

(दृश्य परिवर्तन) 

दृश्य 5: यमुना महत्व
 
वाचक : यमुना, सचमुच धन्य है। जैसे कृष्ण ने समूची दुनिया को प्रेम के लिए समर्पण और न्याय के लिए मोह त्याग का संदेशा दिया, उसी तरह यमुना न हिंदू हो सकती, न मुसलमां, न सिख और न ईसाई ; यमुना तो जैसे सभी की हो गई।
वाचिका : सूर की भी, रसखान की भी; तुलसी की भी, अकबर, हुमायूं, शाहजहां की भी और मुमताज के ताज की भी। आजादी के दीवानों की भी; सन् 1857 में लालकिले की मसनद की भी और 15 अगस्त, 1947 की आधी रात को जगमगाये सूरज की भी।
वाचक : यमुना की गोद में प्रेम की प्रतिमूर्ति बनी मुमताज महल भी खेली है और चंबल के बियाबान जंगलों में गूंजी बागियों की दहाङें भी। यमुना-गंगा-सरस्वती के संगम प्रयाग पर हर बरस माघ का मेला स्वरूप लेता है और छह वर्ष पर अर्धकुंभ और 12 वर्ष पर महाकुंभ भी।

(दृश्य परिवर्तन )

दृश्य 6 : यमुना व्यथा

यमुना 

हां, हां मैं यमुना हूं।
मैने ज़रखेज जमीनों को खूबसूरत बागीचों में बदला है।
मैने भूख से बिलखते बचपन को जिंदगी दी है।
चांदी सी रेत पर हरियाली का समंदर सींचा है।
मैने जल दिया; जीवन दिया; काली अंधेरी रात में बिजली के लट्टुओं सी चमचमाती आबादी को रोशनी दी है। श्रृद्धा को मंदिर, पुष्प को पूजा और हर आने वाले को अपनी गोदी में खिलाया, पाला-पोसा, बङा किया;

मगर, तुमने मुझे क्या दिया ?

हर रोज हजारों टन मानव मल-मूत्र, कूङा-करकट… गंदगी! जहर उगलती फैक्टरियों का अवशेष ! खेतों में पङता लाखों टन उर्वरक, प्रतिबंधित रसायन !!
अपने स्वार्थ में वशीभूत मानव! क्या मेरी ममता का यही प्रतिफल है ?
 
क्या मैने तुम्हे इसीलिए पाला था कि तुम मेरे सीने पर अवैध बस्तियां बसाओगे ? सैकङों नालों से निकलते मल-मूत्र-गंदगी से मुझे स्नान कराओगे और फिर गाओगे – जय जय यमुना! जय जय यमुना!!
(यमुना सिसकते -सिसकते रोने लगती है। ( क्षणिक सन्नाटा। दृश्य परिवर्तन )  
 
दृश्य 7: यमुना चेतावनी 
 
(भय उत्पन्न करता नाद स्वर। एक-एक कर सूर्य, यमराज और कृष्ण का प्रकट होना )

सूर्य

मानव.. मूर्ख मानव; नहीं, नहीं तुम मानव तो हो नहीं सकते। तुम तो दानव हो;
विनाश के ज्वालामुखी पर बैठे, क्रूर और अभिमान के मद में चूर दानव!

तुमने कभी सोचा, 

यमुना को मारकर…मिटाकर क्या तुम बच पाओगे ?
आज टी बी, कैंसर, दमे का संत्रास झेलते हो, क्या कल जन्मते ही मर नहीं जाओगे ?
क्या लालकिले की दीवारें तुम्हे चीख-चीखकर तबाह नहीं कर देंगी ?

जरा सोचो, बार-बार सोचो! 

क्या कल को हरियाणा की समृद्धि बंजर नहीं हो जायेगी ? दिन के उजाले में स्याह होती दिल्ली कल को क्या रेत के टीबों में बदल नहीं जायेगी ?
मनाओ, कहां मनाओगे आजादी का जश्न ? 
किसे कहोगे संगम ? 
कहां लगेंगी स्नान की कतारें ? 
भैया दूज पर किस बहन को पूजोगे तुम ?? 
यमराज
 
सुनो, ध्यान से सुनो! यदि इंसानियत अभी जिंदा हो, तो सुनो!!
यमुना यदि मर गई, मिट गई तो तुम यमुना की हत्या नहीं करोगे; तुम सूर्यपुत्री की हत्या करोगे; भगवान कृष्ण के आधे अंग की स्वामिनी कृष्णा की हत्या करोगे। तुम मेरी बहन यमुना के हत्यारे कहलाओगे। यमराज की बहन के हत्यारे !!
 
याद रखो,
तुम पर यमराज को प्राणों से प्रिय बहन यमी की हत्या का कलंक लगेगा और तुम उसे मिटा भी न सकोगे। यमराज के शिकंजे तुम्हे बहुत पहले ही अपने बाहुपाश में कस चुके होंगे। तुम बच न सकोगे।
सुनो, सुनो ! यमराज का अट्टाहस सुनो।
क्या तुम मुझे नहीं सुन रहे ?  सुनो। आज नही तो कल सुनना होगा। हा हा हा….. सुनो !

ब्रह्मदेव
अब समय नहीं, पर सुनते जाओ।
मैं हूं शुभेच्छु तुम सबका।
वर्तमान तुम्हे ललकार रहा
जो बैठे मंडप तले यहां।
जिनमें पौरुष अभी बाकी हो,
उनका पौरुष जाने ये जहां।
बांधों नालो को खेतों तक,
बांधो उर्वरकों को फसलों तक।
बांधो, जो बांध सको तो आबादी,
रोको, जो रोक सको तो पलायन।
वरना् तुम बच न पाओगे,
रोज पियोगे जहर का प्याला,
मर जायेंगे गर्भ के शिशु,
बच जायेंगे हो विकलांग,
फैली होगी मैली चादर
स्याह बनेंगे शहर श्मशान।

याद रखो, एक-एक तिनका जोङकर बनाई रचना कहीं टूट न जाये। कहीं छूट न जाये मेहनत की रोटी। 
जरा सोचो, 

यदि स्वस्थ शरीर ही बीमार हो गया, तो बाकी कमाई क्या काम आयेगी। 

कृष्ण

मैं कृष्ण हूं ; गीता का कृष्ण, महाभारत का कृष्ण ! गोपिन का कृष्ण, मथुरा-वृंदावन का कृष्ण ! अर्धांगिनी कृष्णा का कृष्ण !!
मैं सब देख रहा हूं; जीवन भी, मृत्यु भी; अर्थ भी, अनर्थ भी; न्याय भी, अन्याय भी। अर्धागिनी कृष्णा के.. यमुना के कष्ट भी, उपकार भी; मानव का स्वार्थ भी, स्वांग भी और संस्कार भी।

मैं देख रहा हूं कि तुम भूल चुके कि

यमुना तुमको जल देती है, जीवन देती है।
तुम भूल चुके, यमुना तुम को सेती है।

तुम यह भी भूल गये कि तुम्हारे प्रिय कृष्ण की अंर्धागिनी है, कृष्णा। 

मैं सब देख रहा हूं; मैं कुछ नहीं भूला।
तुम मेरी कृष्णा के प्रवाह को खा गये।
तुमने मेरी कृष्णा का श्रृंगार नष्ट कर दिया।
चूस लिया तुमने कृष्णा का यौवन।
कृष्ण मित्र नहीं तुम। व्याभिचार के दोषी हो तुम।
मेरी अर्धांगिनी का रोज चीरहरण करते हो तुम।

भूल गये, जब चीर लुटा द्रौपदी का ? भूल गये तुम अंत कू्रर दुशासन का। 

अब और नहीं। अंतिम क्षण है यह। अब भी चेतो।

वरना, कालचक्र जब घूमेगा, काल बचेगा, मृत्यु बचेगी और न कोई होगा।
 एक अकेला चक्र सुदर्शन काट रहा होगा मृत्यु की फसलें। यमराज अकेला पीता होगा खून। कृष्णा हित में अब तो प्रण लो, वरना् हो जाओगे मौन।
दृश्य 8 : यमुना पुनरोद्धार 
( डरा हुआ जनमानस। उभरता सम्वेत स्वर। बदलाव का आभास। अंगङाई। यमुना का जयघोष और फिर तेजी से बदलता घटनाक्रम। कुछ संदेश देते पोस्टर।  सफाई  करती टोलियां।)

सम्वेत स्वरहैया रे हैया…
जमुना जिआये, जिओगी री दीदी। 
जमुना मरी तो मर जाओगे भैया।। 
हाय, हाय दैया, हैया रे हैया
कैसे कृष्ण भगत तुम भैया।
फिर किसे कहोगे यमुना मैया।
हैया रे हैया……..

यमुना यमुना यमुना यमुना यमुना यमुना यमुना यमुना यमुना यमुना 
 
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