कविता

वृद्ध- कुमार विमल

old manवह गुमनाम सा अँधेरा था   ,

और वहाँ वह वृद्ध पड़ा अकेला था ,
वह बेसहाय सा वृद्ध वह असहाय सा वृद्ध ,
वह लचार सा वृद्ध ।

आज चारो तरफ मला था ,
पर वह वृद्ध अकेला था ,
चारो तरफ यौवन की बहार थी ,
पर वहाँ वृद्धावस्था की पुकार थी ,
कहने को तो वह वृद्ध सम्पन्न था ,
पुत्रो परपुत्रो से धन्य -धन्य था ,
पर वह अपनो के भीड़ में अकेला था ,
गुमनामी भरी जिंदगी ही उसका बसेरा था ।

पुत्रियों की आधुनिक वेशभूषा ,पुत्रो के विचार ,
जैसे उसके मजाक उड़ाते थे ,
उसके अनुभव उसके विचार ,
कही स्थान न पाते थे ।

वह वृद्ध जो कभी कर्तवयों का खान था ,
जो कभी पुत्रो का प्राण था ,
जो कभी परिवार की शान था ,
जो कभी ज्ञान का बखान था ।
हाय आज वह अकेला है ,
और जैसे चित्कार रहा है ,
क्या यही समाज है ,
क्या यही अपने है ,
क्या यही लोग है जिनके लिये उसने कभी गम उठाए थे ,

क्या  यही लोग है जिनके लिये उसने कभी धक्के खाए थे ,

अगर हाँ ,

तो उस वृद्ध की कराह हमारी आत्मा को जगाती है,

हमारे खून पर लांछन लगाती है ,

हमें कर्तव्य बोध करती है ,

और इस समाज पर प्रश्नवाचक चिन्ह बन ,

हमें शर्मसार कर जाती है ।