और वहाँ वह वृद्ध पड़ा अकेला था ,
वह बेसहाय सा वृद्ध वह असहाय सा वृद्ध ,
वह लचार सा वृद्ध ।
आज चारो तरफ मला था ,
पर वह वृद्ध अकेला था ,
चारो तरफ यौवन की बहार थी ,
पर वहाँ वृद्धावस्था की पुकार थी ,
कहने को तो वह वृद्ध सम्पन्न था ,
पुत्रो परपुत्रो से धन्य -धन्य था ,
पर वह अपनो के भीड़ में अकेला था ,
गुमनामी भरी जिंदगी ही उसका बसेरा था ।
पुत्रियों की आधुनिक वेशभूषा ,पुत्रो के विचार ,
जैसे उसके मजाक उड़ाते थे ,
उसके अनुभव उसके विचार ,
कही स्थान न पाते थे ।
वह वृद्ध जो कभी कर्तवयों का खान था ,
जो कभी पुत्रो का प्राण था ,
जो कभी परिवार की शान था ,
जो कभी ज्ञान का बखान था ।
हाय आज वह अकेला है ,
और जैसे चित्कार रहा है ,
क्या यही समाज है ,
क्या यही अपने है ,
क्या यही लोग है जिनके लिये उसने कभी गम उठाए थे ,
क्या यही लोग है जिनके लिये उसने कभी धक्के खाए थे ,
अगर हाँ ,
तो उस वृद्ध की कराह हमारी आत्मा को जगाती है,
हमारे खून पर लांछन लगाती है ,
हमें कर्तव्य बोध करती है ,
और इस समाज पर प्रश्नवाचक चिन्ह बन ,
हमें शर्मसार कर जाती है ।
मैं करीब बहतर वर्ष का होने जा रहा हूँ,पर अभी तक मैं अपने को ऐसा असहाय नहीं समझता क़ि मेरे लिए ऐसी कविता लिखी जाए. किसी भी युवक को वरिष्ठ नागरिकों पर ऐसी कविता लिखने का क्या अधिकार है? क्या उसने कभी यह जानने का प्रयत्न किया है क़ि जिस वृद्ध का खांका उसने खींचा है,वह अगर इस अवस्था में पहुंचा तो इसका क्या कारण है? अगर आज का कोई वृद्ध सचमुच में इस दुरावस्था में है तो बहुत हद तक्क उसके लिए वह स्वयं जिम्मेवार है. ऐसी दुताव्स्था में आये हुए अधिकतर वृद्धों का इतिहास यही होगा क़ि उन्होंने अपने युवावस्था में न अपने शारीर और स्वास्थ्य के बारे में सोचा और न अपने से बड़े के बारे में. मैं तो यहाँ तक कहता हूँ क़ि भारत क़ी इस दुरावस्था के कारण भी वाही लोग हैं,जो आज वरिष्ठ नागरिक कहे जाते हैं.