फादर्स डे पर विशेष

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छोटी ही रहना चाहती हूं…पापा

मनोज कुमार

अखबार पढ़ते हुये अचानक नजर पड़ी कि फादर्स डे आना वाला है। फादर्स डे जैसा चलन नए जमाने का है। सही मायनों में यह दिन पिता का दिन नहीं बल्कि बाजार का दिन है। भारतीय संस्कृति में पिता का दिन अर्थात वह दिन जब उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी शांति के लिए तर्पण करते हैं। श्राद्ध पक्ष में यह क्रिया दिवंगत हो चुके परिवार के हर व्यक्तियों के लिए होती है लेकिन नए जमाने में पिता के इस खास दिन को बिसरा दिया गया है। पिता हो, माता हो, दादा-दादी हो या जीवनसाथी बाजार ने सबके लिए दिन नियत कर दिया है। यह दिन बाजार के लिए उत्सव का है लेकिन भारतीय संस्कृति और परम्परा के तर्पण का दिन है। हालांकि इस खराब हालात के बाद भी मेरा भरोसा टूटा नहीं है। छीजा नहीं है। बदलते समय और स्कूल से कॉलेज जाती बिटिया के मन की बात जान लेना आसान नहीं होता है। कदाचित कुछ भय और कुछ भरोसे के साथ उससे सवाल करने का मन किया। मन में जिज्ञासा थी और लगा कि अपनी बिटिया से पूछूं कि वो इस फादर्स डे पर मेरे लिए अर्थात अपने फादर के लिए क्या करने वाली है। मैंने सहज भाव से पूछ ही लिया कि बेटा, फादर्स डे आने वाला है। तुम अपने फादर अर्थात मेरे लिये क्या करने वाली हो? वह मेरा सवाल सुनकर मुस्करायी और मेरे सामान्य ज्ञान को बढ़ाते हुये कहा कि हां, पापा मुझे पता है कि फादर्स डे आने वाला है। अच्छा आप बताओ कि आप मेरे लिये क्या करने वाले हो? मैंने कहा कि दिन तो मेरे लिए है, फिर मैं क्यों तुम्हारे लिये कुछ करने लगा। तुम्हें मेरे लिये करना चाहिये? इसके बाद हम बाप-बेटी के बीच जो संवाद हुआ, वह एक दार्शनिक संवाद  जरूर था लेकिन इस तरह बाजार के दबाव में आकर डे मनाने वालों के लिये सीख भी है। बेटी ने कहा कि पहली बात तो यह कि मैं अभी आपकी इनकम पर अपना भविष्य बना रही हूं और जो कुछ भी करूंगी आपके जेब से निकाल कर ही करूंगी। ऐसे में आपके लिये कुछ करने का मतलब आपको खुश करने के बजाय दुखी करना होगा क्योंकि जितने पैसों से मैं आपके लिये उपहार खरीदूंगी, उतने में आप हमारी कुछ जरूरतें पूरी कर सकेंगे। तो इसका मतलब यह है कि जब तुम कमाने लगोगी तो फादर्स डे सेलिब्रेट करोगी। अपने पापा के लिये उपहार खरीदोगी? इस बार भी बिटिया का जवाब अलग ही था। नहीं पापा, मैं चाहे जितनी बड़ी हो जाऊं, जितना कमाने लगूं लेकिन कभी इतनी बड़ी न हो पाऊं कि अपने पापा को उपहार देने की मेरी हैसियत बने। जिस पापा ने अपनी नींद खोकर मेरी परिवरिश की, जिस पापा ने अपनी जरूरतों को कम कर मेरी जरूरतों को पूरा करने में पूरा समय और श्रम लगा दिया, जिस पापा ने मेरे सपनों को अपना सपना मानकर मुझे बड़ा किया, उस पापा को भला मैं क्या दे सकती हूं। और पापा ही क्यों, मम्मी, दादाजी, दादीजी सब तो मिलकर मुझे बनाने की कोशिश कर, फिर भला मैं कैसे आप लोगों के लियेे उपहार खरीदने की हिम त कर सकती हूं। बिटिया की बातों को सुनकर मेरी आंखें भर आयी। मुझे लगा कि मैंने जो कुछ किया, वह निरर्थक नहीं गया। बेटी के भीतर वह सबकुछ मैंने समाहित कर दिया, जो मुझे मेरे पिता से मिला था। मुझे लगा कि फादर्स डे पर इससे अच्छा कोई उपहार हो भी नहीं सकता है। जब मां-बाप अपने बच्चों से हारते  हैं तो सही मायने में विजेता होते हैं। हारते हुयेे माता-पिता को सही मायने में खुशी मिलती है क्योंकि बच्चों की जीत ही माता-पिता की असली जीत है। हमारे समाज में ये जो डे मनाने का रिवाज चल पड़ा है और यह रिवाज भारतीय नहीं बल्कि यूरोपियन देशों की देन है। भौतिक जरूरतों की चीजों में उनके रिश्ते बंधे होते हैं और वे हर रिश्तों को वस्तु से तौलते हैं लेकिन भारतीय मन भावनाओं की डोर से बंधा होता है। वस्तु हमारे लिये द्वितीयक है, प्रथम भावना होती है और आज मेरी बेटी ने जता दिया कि वह जमाने के साथ भाग रही है्र दौड़ रही है लेकिन अपनी संस्कृति और संस्कार को सहेजे हुये। अपनी भावनाओं के साथ, अपने परिजनों की भावनओं की कद्र करते हुये। वह बाजार जाकर कुछ सौ रुपयों के तोहफों से भावनाओं का व्यापार नहीं कर रही है। यह मेरे जैसे पिछड़ी सोच के बाप के लिये अनमोल उपहार है। भारतीय समाज में भी डे मनाने की पुरातन परमपरा है। हम लोग यूरोपियन की तरह जीवित लोगों के लिये डे का आयोजन नहीं करते हैं बल्कि उनके हमारे साथ नहीं रहने पर करते हैं। उनकी मृत्यु की तिथि पर उनके पसंद का भोजन गरीबों को खिलाया जाता है, वस्त्र इत्यादि गरीबों में वितरित किया जाकर उनकी आत्मा की प्रसन्नता के लिये करते हैं, इसे हम पितृपक्ष कहते हैं। जीते जी हम उन्हें भरपूर स मान देते हैं और मरणोपरांत भी उनका स्थान हमारे घर-परिवार के बीच में होता है। दुर्भाग्य से हम यूरोपियन संस्कृति के साथ चल पड़ हैं। सक्षम पिता या माता का डे तो मनाते हैं लेकिन वृद्ध होते माता-पिता को वृद्वाश्रम पहुंचाने में देर नहीं करते हैं। बाजार जिस तरह अनुपयोगी चीजों का सेल लगाता है या चलन से बाहर कर देता है, वही हालत यूरोपियन समाज में रिश्तों का है, भावनाओं का है। हम भी इसी रास्ते पर चल पड़े हैं। पालकों के पास धन है, साधन है, सक्षम हैं तो दिवस है और नहीं तो उनके लिये दिल तो क्या घर पर स्थान नहीं है। मैं अभी भी उम्मीद से हूं कि जो संस्कार मेरे परिवार ने मुझे और मेरे बच्चों को दिए हैं, उन्हें वे सहेज कर रख रहे हैं। मेरा मन उस समय पुलकित हो गया जब इस पाश्चात्य तर्पण दिवस अर्थात फादर्स डे पर अपनी बिटिया से बात की। मेरी आंखें नम हो गयी लेकिन भीतर का पिता गौरवांवित हो उठा कि बाजार में इतना दम अभी भी नहीं आया है कि वे हमारी परम्परा और संस्कार को खत्म कर दे। हालांकि बाजार का घुन हमारे रीति-रिवाज पर लग गया है लेकिन भरोसे की एक टिमटिमाता तारा मेरे आसपास है। आपके आसपास भी होगा। तलाश कीजिए आपके बच्चों में भी वही संस्कार हैं, विश्वास है और आपके प्रति भरोसा। थोड़ी कोशिश कीजिए। फादर बनकर जरूरत पूरी करने वाली मशीन बनकर नहीं। बल्कि सात्विक रूप से बाबूजी बनकर बच्चों को समय दीजिए। 

.पापामनोज कुमारवरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया विश£ेषकअखबार पढ़ते हुये अचानक नजर पड़ी कि फादर्स डे आना वाला है। फादर्स डे जैसा चलन नए जमाने का है। सही मायनों में यह दिन पिता का दिन नहीं बल्कि बाजार का दिन है। भारतीय संस्कृति में पिता का दिन अर्थात वह दिन जब उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी शांति के लिए तर्पण करते हैं। श्राद्ध पक्ष में यह क्रिया दिवंगत हो चुके परिवार के हर व्यक्तियों के लिए होती है लेकिन नए जमाने में पिता के इस खास दिन को बिसरा दिया गया है। पिता हो, माता हो, दादा-दादी हो या जीवनसाथी बाजार ने सबके लिए दिन नियत कर दिया है। यह दिन बाजार के लिए उत्सव का है लेकिन भारतीय संस्कृति और परम्परा के तर्पण का दिन है। हालांकि इस खराब हालात के बाद भी मेरा भरोसा टूटा नहीं है। छीजा नहीं है। बदलते समय और स्कूल से कॉलेज जाती बिटिया के मन की बात जान लेना आसान नहीं होता है। कदाचित कुछ भय और कुछ भरोसे के साथ उससे सवाल करने का मन किया। मन में जिज्ञासा थी और लगा कि अपनी बिटिया से पूछूं कि वो इस फादर्स डे पर मेरे लिए अर्थात अपने फादर के लिए क्या करने वाली है। मैंने सहज भाव से पूछ ही लिया कि बेटा, फादर्स डे आने वाला है। तुम अपने फादर अर्थात मेरे लिये क्या करने वाली हो? वह मेरा सवाल सुनकर मुस्करायी और मेरे सामान्य ज्ञान को बढ़ाते हुये कहा कि हां, पापा मुझे पता है कि फादर्स डे आने वाला है। अच्छा आप बताओ कि आप मेरे लिये क्या करने वाले हो? मैंने कहा कि दिन तो मेरे लिए है, फिर मैं क्यों तुम्हारे लिये कुछ करने लगा। तुम्हें मेरे लिये करना चाहिये? इसके बाद हम बाप-बेटी के बीच जो संवाद हुआ, वह एक दार्शनिक संवाद  जरूर था लेकिन इस तरह बाजार के दबाव में आकर डे मनाने वालों के लिये सीख भी है। बेटी ने कहा कि पहली बात तो यह कि मैं अभी आपकी इनकम पर अपना भविष्य बना रही हूं और जो कुछ भी करूंगी आपके जेब से निकाल कर ही करूंगी। ऐसे में आपके लिये कुछ करने का मतलब आपको खुश करने के बजाय दुखी करना होगा क्योंकि जितने पैसों से मैं आपके लिये उपहार खरीदूंगी, उतने में आप हमारी कुछ जरूरतें पूरी कर सकेंगे। तो इसका मतलब यह है कि जब तुम कमाने लगोगी तो फादर्स डे सेलिब्रेट करोगी। अपने पापा के लिये उपहार खरीदोगी? इस बार भी बिटिया का जवाब अलग ही था। नहीं पापा, मैं चाहे जितनी बड़ी हो जाऊं, जितना कमाने लगूं लेकिन कभी इतनी बड़ी न हो पाऊं कि अपने पापा को उपहार देने की मेरी हैसियत बने। जिस पापा ने अपनी नींद खोकर मेरी परिवरिश की, जिस पापा ने अपनी जरूरतों को कम कर मेरी जरूरतों को पूरा करने में पूरा समय और श्रम लगा दिया, जिस पापा ने मेरे सपनों को अपना सपना मानकर मुझे बड़ा किया, उस पापा को भला मैं क्या दे सकती हूं। और पापा ही क्यों, मम्मी, दादाजी, दादीजी सब तो मिलकर मुझे बनाने की कोशिश कर, फिर भला मैं कैसे आप लोगों के लियेे उपहार खरीदने की हिम त कर सकती हूं। बिटिया की बातों को सुनकर मेरी आंखें भर आयी। मुझे लगा कि मैंने जो कुछ किया, वह निरर्थक नहीं गया। बेटी के भीतर वह सबकुछ मैंने समाहित कर दिया, जो मुझे मेरे पिता से मिला था। मुझे लगा कि फादर्स डे पर इससे अच्छा कोई उपहार हो भी नहीं सकता है। जब मां-बाप अपने बच्चों से हारते  हैं तो सही मायने में विजेता होते हैं। हारते हुयेे माता-पिता को सही मायने में खुशी मिलती है क्योंकि बच्चों की जीत ही माता-पिता की असली जीत है। हमारे समाज में ये जो डे मनाने का रिवाज चल पड़ा है और यह रिवाज भारतीय नहीं बल्कि यूरोपियन देशों की देन है। भौतिक जरूरतों की चीजों में उनके रिश्ते बंधे होते हैं और वे हर रिश्तों को वस्तु से तौलते हैं लेकिन भारतीय मन भावनाओं की डोर से बंधा होता है। वस्तु हमारे लिये द्वितीयक है, प्रथम भावना होती है और आज मेरी बेटी ने जता दिया कि वह जमाने के साथ भाग रही है्र दौड़ रही है लेकिन अपनी संस्कृति और संस्कार को सहेजे हुये। अपनी भावनाओं के साथ, अपने परिजनों की भावनओं की कद्र करते हुये। वह बाजार जाकर कुछ सौ रुपयों के तोहफों से भावनाओं का व्यापार नहीं कर रही है। यह मेरे जैसे पिछड़ी सोच के बाप के लिये अनमोल उपहार है। भारतीय समाज में भी डे मनाने की पुरातन परमपरा है। हम लोग यूरोपियन की तरह जीवित लोगों के लिये डे का आयोजन नहीं करते हैं बल्कि उनके हमारे साथ नहीं रहने पर करते हैं। उनकी मृत्यु की तिथि पर उनके पसंद का भोजन गरीबों को खिलाया जाता है, वस्त्र इत्यादि गरीबों में वितरित किया जाकर उनकी आत्मा की प्रसन्नता के लिये करते हैं, इसे हम पितृपक्ष कहते हैं। जीते जी हम उन्हें भरपूर स मान देते हैं और मरणोपरांत भी उनका स्थान हमारे घर-परिवार के बीच में होता है। दुर्भाग्य से हम यूरोपियन संस्कृति के साथ चल पड़ हैं। सक्षम पिता या माता का डे तो मनाते हैं लेकिन वृद्ध होते माता-पिता को वृद्वाश्रम पहुंचाने में देर नहीं करते हैं। बाजार जिस तरह अनुपयोगी चीजों का सेल लगाता है या चलन से बाहर कर देता है, वही हालत यूरोपियन समाज में रिश्तों का है, भावनाओं का है। हम भी इसी रास्ते पर चल पड़े हैं। पालकों के पास धन है, साधन है, सक्षम हैं तो दिवस है और नहीं तो उनके लिये दिल तो क्या घर पर स्थान नहीं है। मैं अभी भी उम्मीद से हूं कि जो संस्कार मेरे परिवार ने मुझे और मेरे बच्चों को दिए हैं, उन्हें वे सहेज कर रख रहे हैं। मेरा मन उस समय पुलकित हो गया जब इस पाश्चात्य तर्पण दिवस अर्थात फादर्स डे पर अपनी बिटिया से बात की। मेरी आंखें नम हो गयी लेकिन भीतर का पिता गौरवांवित हो उठा कि बाजार में इतना दम अभी भी नहीं आया है कि वे हमारी परम्परा और संस्कार को खत्म कर दे। हालांकि बाजार का घुन हमारे रीति-रिवाज पर लग गया है लेकिन भरोसे की एक टिमटिमाता तारा मेरे आसपास है। आपके आसपास भी होगा। तलाश कीजिए आपके बच्चों में भी वही संस्कार हैं, विश्वास है और आपके प्रति भरोसा। थोड़ी कोशिश कीजिए। फादर बनकर जरूरत पूरी करने वाली मशीन बनकर नहीं। बल्कि सात्विक रूप से बाबूजी बनकर बच्चों को समय दीजिए। 

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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