लुप्त होती राष्ट्रीय पंचांग की पहचान

राष्ट्रीय पंचांग की पहचान, लुप्त होती राष्ट्रीय पंचांग

संदर्भ-नवसंवत्सर 8 मार्च के अवसर पर

panchag

प्रमोद भार्गव

 

कालमान एवं तिथिगणना किसी भी देश की ऐतिहासिकता की आधारशिला होती है। किंतु जिस तरह से हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को विदेशी भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व धूमिल रहा है,कमोवेश यही हश्र हमारे राष्ट्रीय पंचांग,मसलन कैलेण्डर का है। किसी पंचांग की कालगण्ना का आधार कोई न कोई प्रचलित संवत होता है। हमारे राष्ट्रीय पंचांग का आधार शक संवत है। शक संवत को राष्ट्रीय संवत मानना नहीं चाहिए था,क्योंकि शक परदेशी थे और हमारे देश में हमलावर के रूप में आए थे। हालांकि यह अलग बात है कि शक भारत में बसने के बाद भारतीय संस्कृति में ऐसे रच बस गए कि उनकी मूल पहचान लुप्त हो गई। बावजूद शक संवत को राष्ट्रीय संवत की मान्यता नहीं देनी चाहिए थी,क्योंकि इसके लागू होने बाद भी हम इस संवत के अनुसार न तो कोई राष्ट्रीय पर्व व जयंतिया मानते है और न ही लोक परंपरा के पर्व। तय है इस संवत का हमारे दैनंदिन जीवन में कोई महत्व नहीं रह गया है। इसके वनिस्वत हमारे संपूर्ण राष्ट्र के लोक व्यवहार में विक्रम संवत के आधार पर तैयार किए जाने वाले पंचांग प्रचलन में हैं। इस पंचांग की विलक्षण्ता है कि यह ईसा संवत से तैयार ग्रेगियन कैलेंडर से भी 57 साल पहले वर्चस्व में आ गया था,जबकि शक संवत की शुरूआत ईसाई संवत के 78 साल बाद हुई थी। मसलन हमने कालगणना में गुलाम मानसिकता का परिचय देते हुए पिछड़ेपन को स्वीकारा। प्रचीन भारत और मघ्य अमेरिका दो ही ऐसे देश थे,जहां आधुनिक सैकेण्ड से सूक्ष्मतर और प्रकाशवर्ष जैसे उत्कृष्ठ कालमान प्रचलन में थे। अमेरिका में मय सभ्यता का वर्चस्व था। मय संस्कृति में शुक्र ग्रह के आधार पर कालगणना की जाती थी। विश्वकर्मा मय,दानवों के गुरू शुक्राचार्य का पौत्र और शिल्पकार त्वश्टा का पुत्र था। मय के वंशजो ने अनेक देशों में अपनी सभ्यता को विस्तार दिया। इस सभ्यता की दो प्रमुख विषेशताएं थी,स्थापत्य कला और दूसरी सूक्ष्म ज्योतिश व खगोलीय गणना में निपुणता। रावण की लंका का निर्माण इन्हीं मय दानवों ने किया था। मयों का गुरू भारत था। प्राचीन समय में युग,मनवन्तर,कल्प जैसे महत्तम और कालांश लघुतम समय मापक विधियां प्रचलन में थीं। समय नापने के कालांश को निम्न नाम दिए गए है,निमेश यानी 1 तुट 2 तुट यानी लव,2 लव यानी निमेश,5निमेश यानी एक काश्ठा,30काश्ठा यानी कला 40 कला यानी नाड़िका,2 नाड़िया यानी मुहुर्त यानी,अहोरत्र,15 अहोरत्र यानी। पक्ष,7 अहोरत्र यानी। सप्ताह,2 सप्ताह यानी। पक्ष,2 पक्ष यानी। मास,12 मास यानी। ईसा से 1000 से 500 साल पहले ही भारतीय ऋषियों ने अपनी आष्चर्यजनक ज्ञानशक्ति द्वारा आकाश मण्डल के उन समस्त तत्वों का ज्ञान हासिल कर लिया था,जो कालगणना के लिए जरूरी थे,इसलिए वेद,अपनिषद्र आयुर्वेद,ज्योतिष और बा्रहण संहिताओं में मास,क्रृतु,अयन,वर्ष,युग,ग्रह,ग्रहण,ग्रहकक्षा,नक्षत्र,विशव और दिन-रात का मान तथा उसकी वृद्धि हानी संबंधी विवरण पर्यात मात्रा में उपलब्ध है।

ऋग्वेद में वर्ष को 12 चंद्र मासों में बाटां गया है। हरेक तीसरे वर्ष चन्द्र और सौर वर्ष का तालमेल बिठाने के लिए एक अधिकमास जोड़ा गया हैं। इसे मलमास या पुरुशोत्तम भी कहा जाता है। ऋग्वेद की ऋचा संख्या 1,164,48 में एक पूरे वर्ष का विवरण इस प्रकार उल्लेखित है-

द्वादश प्रधयष्चक्रमेंक त्रीणि नम्यानी क उ तष्चिकेत।

तस्मिन्त्सांक त्रिशता न षंकोवोडर्पिता शश्टिर्न चलाचलास।

इसी तरह प्रश्नव्याकरण में 12 महिनों की तरह 12 पूर्णमासी और अमावस्याओं के नाम और उनके फल बताए गए हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में 5 प्रकार की ऋतुओं का वर्णन है। तैत्तिरीय बा्रह्मण में ऋतृओं को पक्षी के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया है

तस्य ते वसन्त शिर ग्रीशमों दक्षिण पक्ष वर्ष पुच्छाम।

शरत पक्ष। हेमान्तो मघ्यम।

अर्थात वर्ष का सिर वसंत है। दाहिना पंख गा्रीश्म,बायां पंख शरद। पूंछ वर्षा और हेमन्त को मघ्य भाग कहा गया है। मसलन तैत्तिरिय ब्राह्मण काल में वर्ष और ऋतुओं की पहचान और उनके समय का निर्धारण प्रचलन में आ गया था। ऋतुओं की स्थिति सूर्य की गति पर आधारित थी। एक वर्ष में सौर मास की शुरूआत,चान्द्र्रमास के प्रारंभ से ही होता था। प्रथम वर्ष के सौर मास का आरंभ शुक्ल पक्ष की द्वादषी की तिथी के और आगे आने वाले तीसरे वर्ष में सौर मास का आरंभ कृश्णा पक्ष की अष्टमी से होता था। तैत्तिरीय ब्राह्मण में सूर्य के छह माह उत्तरायाण एवं छह माह दक्षिणायन में रहने की स्थिति का भी उल्लेख है।

दरअसल जम्बू द्वीप के बीच में सुमेरू पर्वत है। सूर्य और चन्द्रमा समेत सभी ज्योतिषमण्डल इस पर्वत की परिक्रमा करते हैं। सूर्य जब जम्बूद्वीप के अंतिम आभ्यातंर मार्ग से बाहर की और निकलता हुआ लवण समुद्र्र की ओर जाता है,तब इस काल को दक्षिणायन और जब सूर्य लवण समुद्र्र के अंतिम मार्ग से भ्रमण करता हुआ जम्बूद्वीप की और कूच करता है,तो इस कालखण्ड को उत्तरायण कहते है। ऋग्वेद में युग का कालखण्ड 5 वर्ष माना गया है। इस पांच साला युग के पहले वर्ष को संवत्सर,दूसरे को परिवत्सर,तीसरे को इदावत्सर,चौथे को अनुवत्सर और पांचवें वर्ष को इद्रवत्सर कहा गया है। इन सब उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि ऋग्वैदिक काल से ही चन्द्र्रमास और सौर वर्ष के आधार पर की गई कालगणना प्रचलन में आने लगी थी,जिसे जन सामान्य ने स्वीकार किया। चंद्र्रकला की वृद्धि और उसके क्षय के निष्कर्शों को समय नापने का आधार माना गया। कृश्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के आधार पर उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने विक्रम संवत की विधिवत शुरूआत की। इस दैंनंदिन तिथी गणना को पंचांग कहा गया। किंतु जब स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपना राष्ट्रीय संवत अपनाने की बात आई तो राष्ट्रभाषा की तरह सांमती मानसिकता के लोगों ने विक्रम संवत को राष्ट्रीय संवत की मान्यता देने में विवाद पैदा कर दिए। कहा गया कि भारतीय काल गणना उलझाऊ है। इसमें तिथियों और मासों का परिमाप धटता-बढ़ता है,इसलिए यह अवैज्ञानिक है। जबकि राष्ट्रीय न होते हुए भी सरकारी प्रचलन में जो ग्रेगेरियन कैलेंडर है,उसमें भी तिथियों का मान धटता-बढ़ता है। मास 30 और 31 दिन के होते है। इसके आलावा फरवरी माह कभी 28 तो कभी 29 दिन का होता है। तिथियों में संतुलन बिठाने के इस उपाय को लीपईयर यानी अधिवर्ष कहा जाता है। ऋग्वेद से लेकर विक्रम संवत तक की सभी भारतीय कालगणनाओं में इसे अधिकमास ही कहा गया है। ग्रेगेरियन केलैंण्डर की रेखाकिंत कि जाने वाली महत्वपूर्ण विसंगति यह है कि दुनिया भर की कालगणनाओं में वर्ष का प्रारंभ वसंत के बीच या उसके आसपास होता है,जो फागुन और चैत्र मास की शुरूआत होती है। इसी समय नई फसल पक कर तैयार होती है,जो एक ऋतुचक्र की शुरूआत होने का संकेत है। इसिलिए हिंदी मास या विक्रम संवत में चैत्र और वैशाख महीनों को मधुमास कहा गया है। इसी दौरान चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी गुड़ी पड़वा से नया संवत्सर प्रारंभ होता है। जबकि ग्रेगेरियन में नए साल की शुरूआत पौश मास अर्थात जनवरी से होती है,जो किसी भी उल्लेखनीय परिर्वतन का प्रतीक नहीं है।

विक्रम संवत की उपयोगिता ऋतुओं से जुड़ी थी,इसलिए वह ऋग्वैदिक काल से ही जनसामान्य में प्रचलन में थी। बावजूद हमने शक संवत को राष्ट्रीय संवत के रूप में स्वीकारा,जो शर्मनाक और दुभग्यपूर्ण है। क्योंकि शक विदेशी होने के साथ आक्रांता थे। चंद्र्रगुप्त द्व्रितिय ने शकों को उज्जैन में परास्त कर उनका उत्तरी एवं मघ्य भारत में समूल नाश कर दिया और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। यह ऐतिहासिक धटना ईसा सन् से 57 साल पहले धटी और विक्रमादित्य ने विक्रम संवत की शुरूआत की। जबकि इन्हीं शकों की एक लड़ाकू टुकड़ी को कुशाण शासक कनिष्क ने मगध और पाटलीपुत्र में ईसा सन् के 78 साल बाद परास्त किया और शक संवत की शुरूआत की। विक्रमादित्य को इतिहास के पन्नों में शकारी भी कहा गया है,अर्थात शकों का नाश करने वाला शत्रु। शत्रुता तभी होती है जब किसी राष्ट्र की संप्रभुता  और संस्कृति को क्षति पहुंचाने का कोई विदेशी काम करता है। इस सब के बावजूद राष्ट्रीयता के बहाने हमें ईसा संवत को त्यागना पड़ा तो विक्रम संवत की बजाए शक संवत को स्वीकार लिया। मसलन पंचांग यानी कैलेंडर की दुनिया में 57 साल आगे रहने की बजाय हमने 78 साल पीछे रहना उचित माना। अपनी गरिमा को पीछे धकेलना हमारी मानसिक गुलामी की विचित्र विडंबना है।

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