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मन-मंजूषा में मधुरिम सी, माँ की ममता माणिक-मुक्ता।
मंज़िल तक मुझको पहुँचाती,अक्षय-निधि सी उसकी शिक्षा।।
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माँ प्रभात की ज्योति-किरण थी,किया तमस को हमसे दूर।
त्यागीं अपनी सुख-सुविधाएँ, मुझको प्यार दिया भरपूर ।।
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वरद-हस्त मुझ पर रहता है, ईश्वर सा उसका है स्वरूप।
मुझसे तो वह दूर नहीं है , मैं तो हूँ उसका ही रूप ।।
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मिली चेतना मुझको उस से, स्वाभिमान का पाठ पढ़ाया।
है व्यक्तित्व सँवारा जिसने , जीवन जीना मुझे सिखाया।।
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सुधियों की सीपी मे नित ही,जिसकी छवि मोती सी भायी।
जीवन के झंझावातों में , जिसने नैया पार लगायी ।।
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जननी मन में रची बसी है , उसने ही ये सृष्टि रचाई ।
श्रद्धा-सुमन समर्पित उसको , जिसने जीवन-ज्योति जगाई।।
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भाव-भूमि में सदा विराजे , जिसकी प्रतिमा मुस्काई सी ।
तन पुलकित मन प्रमुदित करतीं,माँ की सुधियाँ पुरवाई सी।।
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शकुन्तला बहादुर
“भाव-भूमि में सदा विराजे , जिसकी प्रतिमा मुस्काई सी ।
तन पुलकित मन प्रमुदित करतीं,माँ की सुधियाँ पुरवाई सी।।”
– अत्यंत उच्च-स्तरीय साहित्यिक रचना जो हृदय को छू लेती है. माँ एवंं लेखिका दोनो को नमन.
बहुत सुंदर रचना