स्ंतों की घटती स्वीकार्यता एक विवेचना: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

धर्म का मुख्य उद्देश्य है लोगों को सदाचारी एवं सद्गुण संपन्न बनाना । वस्तुतः अपनी इन्ही आंतरिक विशेषताओं के कारण धर्म की प्रासंगिकता प्रायः हर देश और समाज में एक समान है । आपाधापी एवं सामाजिकता कटुता के तप्त मरूस्थल के बीच कल्पवृक्ष के रूप में विद्यमान है धर्म । अतः आज भी सांसारिक पक्ष से पीडि़त मनुष्य मंदिरों,मस्जिदों या चर्चों में शरण ढ़ूंढ़ता है । ध्यान देने वाली बात है कि अब मंदिरों मस्जिदों में भगवान नहीं मिलते । यहां अगर मिलते हैं तो भगवान और आम आदमी के बीच बैठे धर्म के बिचैलिये । वर्तमान परिप्रेक्ष्यों के आधार पर भगवान और भक्त के बीच बैठे इन्हीं बिचैलियों को संत कहा जाता है । अफसोस की बात तो यही है कि इन तथाकथित संतों का चरित्र संत शब्द के अर्थों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । हमारी सनातन मान्यताओं में सन्यास का अर्थ होता संसार से विरक्ति । यहां विरक्ति से आशय ये नहीं है कि वो कोई असामाजिक प्राणी है,यहां विरक्त होने का अर्थ है संसार की भौतिक संपदाओं से परे होना है ।

मान्यताओं के अनुसार मनुष्य के आध्यात्मिक विकास की राह में सबसे बड़ी बाधा है भौतिक संसाधनों की वासना । यहां वासना से आशय है कभी भी न बुझने वाली प्यास है । ध्यातव्य है कि भौतिक जरूरतों का अंततः कोई अंत नहीं होता । यथा साइकिल से बाइक और फिर कार । सांसारिक मनुष्य की वासनाओं का कोई अंत नहीं होता । अगर यही वासनाएं संत या मौलवी कहे जाने वाले तथाकथित सर्वमान्यों के चरित्र में पाई जायं तो इसे क्या कहा जायेगा ?ध्यान दीजीयेगा आज संतों को ऐसा लगता है की उनकी पहचान उसके ज्ञान से नहीं बल्कि उनके संसाधनों से होती है । यथा वो टीवी पर कितनी बार आते हैं,कितनी लंबी गाड़ी में सफर करते हैं । इस बात को प्रमाणित करने के लिये मुझे अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है । निर्मल बाबा सरीखे ढ़ेरों ऐसे सन्यासी मिल जाएंगे जो समोसे से किस्मत बदलने का दावा करते हैं । सबसे जरूरी बात ये है कि ये सभी तथाकथित संत स्वयं को जिस परंपरा का झंडाबरदार बताते हैं,उनका अपनी गुरू परंपरा से भी कोई लेना देना नहीं होता । कहने का आशय है कि प्रत्येक महंत या मौलवी अपने शुरूआती दिनों में किसी ना किसी गुरू के सानिध्य में ज्ञान प्राप्त किया है । यहीं असली विरोधाभास खड़ा होता है ,मेरे या आप सब के जानने में लगभग सभी प्राचीन गुरूओ ं का जीवन त्यागमय रहा है । वे अपने सामान्य आवागमन के लिये पजेरो या सफारी के परतंत्र नहीं थे । शायद यही वजह रही कि वे मानव जीवन से जुड़ी समस्याओं को बखूबी समझते थे । ऐसे में उनके प्रति लोगों का झुकाव स्वाभाविक था ।

संत जीवन को समझने के लिये कबीरदास के ये दोहे समझने आवश्यक हैं ।

चाह गई चिंता गई मनवा बेपरवाह,जिनको कुछ नहीं चाहीये वो शाहन के शाह ।

सदा दिवाली संत घर , जो गुड़ गेहूं होय

इन दोनों पंक्तियों में एक संत के जीवन का समस्त सार तत्व समाहित है । इस बात को स्पष्ट करने के लिये मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा । विश्व विजय पर निकलने से पूर्व सिकंदर अपने गुरू डायनोसिस से मिलने गया । उस वक्त वो एक गुफा में साधना कर रहे थे । सिकंदर उनके सामने पहुंचा तो उन्हेाने पूछ लिया कि तुम्हारी भावी योजना क्या है । सिकंदर ने कहा महाराज मैं विश्व विजय अभियान पर निकल रहा हूं । मेरी लक्ष्य पूरे विश्व पर एकत्र राज्य करना है । सिकंदर की ये बातें सुनकर उन्होने पूछा कि इससे क्या लाभ होगा । सिकंदर ने कहा महाराज मुझे प्रसन्नता होगी । सिकंदर से इस जवाब पर उन्होने कहा कि इसका विश्व विजय में क्या संबंध है ? मैं तो स्वयं पर विजय पाकर ही प्रसन्नता पा गया हूं ।

यहां इस कथा को रखने का प्रसंग सिर्फ इतना ही है व्यक्ति की प्रसन्न्ता स्वयं उसमें अन्तर्निहीत होती है । वास्तव में मनुष्य की दुर्दशा की प्रमुख वजह है उसकी स्वयं की दुर्बलता । अब अगर ऐसे ही हालात स्वयं को ईश्वर का प्रवक्ता बताने वालों के भी हैं तो उन्हे सिद्ध तो कत्तई नहीं कहा जा सकता ? इस बात को समझाते हुये कबीर दास ने कहा था कि:

नहाये धोये का भया जो मन मैल न जाय,मीन सदा ज लमे रहे धोये बास न जाय

अर्थात व्यक्ति की वेशभूषा नहीं वरन उसकी चारित्रिक सुदृढ़ता उसके आत्म विकास की परिचायक होती है । अगर आपकी आत्मा शुद्ध नहीं है तो भगवा या धवल वस्त्र धारण करने से आप सन्यासी नहीं हो सकते । अगर गौर से देखा जाय तो आज कल ढ़ोगियों ने भगवा वस्त्र को सन्यासी का यूनीफार्म बना डाला है । हंसी तो तब आती है जब स्वयं एसी गाडि़यों में सफर करने वाले ये सन्यासी अपने प्रवचनों में त्यागमय जीवन शैली अपनाने को कहते हैं । एक ऐसी जीवन शैली जिससे उनका स्वयं दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं । अतः संक्षेप में कहा जाय तो धर्म के ये ठेकेदार आज धर्म की फें्रचाइजी चला रहे हैं । जिसने जितना धन दिया वो उतना बड़ा धार्मिक । फिर चाहे वो धन काला हो या सफेद इनका प्रयोजन तो सिर्फ धन से है । अब बताइये कि ऐसे व्यक्तियों का क्या ईश्वर से साक्षात्कार हो सकता है । अफसोस होता है रोजना न्यूज चैनलों पे ढ़ोंगियों के नये खुलासे देखकर । चोरी,तस्करी,बलात्कार जैसे संगीन अपराधों संलग्न लोगों को क्या सन्यासी कहा जा सकता है?

यहां ये बातें करने से मेरा ये आशय कत्तई नहीं कि मैं सन्यास की परंपरा का विरोधी हूं । मेरा विरोध इस परंपरा में आयी कुरीतियों से है । स्मरण आदि गुरू शंकराचार्य ने धर्म के रक्षार्थ पूरे भारत वर्ष में चार शंकराचार्य नियुक्त किये थे । आज के परिप्रेक्ष्य में देखीये तो शंकराचार्यों की संख्या कितनी है । वास्तव में भारत में धर्म देश हित से भी जुड़ा था । चाणक्य जैसे गुरू ने चंद्रगुप्त का निर्माण किया था । मुगलकाल में शिवाजी के गुरू समर्थ रामदास को कौन भुला सकता है । इस तरह के ओजस्वी सन्यासियों की परंपरा से भरा पड़ा है हमारा इतिहास । इसी परंपरा की आखिरी कड़ी थे स्वामी विवेकानंद । एक गुलाम देश के नागरिक की हैसियत से तमाम कष्टों को सहते हुये भी उन्हे पूरे विश्व के समक्ष भारत को गौरवान्वित किया । आज कहां है ऐसे सन्यासी? ऐसे सन्यासी देखे हैं आपने जिन्हे थैलियों से नहीं भक्त के भाव से प्रयोजन है ?अब तो सन्यासी बहुधा घोटालेबाजों के पाले में खेलने से भी बाज नहीं आते । अपने बेचने की धुन में राम से लेकर गंगा तक क्या क्या नहीं बेचा इन्होने । अत: आज के हालात को देखते हुये ये कहा जा सकता है कि संतों की सामाजिक स्वीकार्यता में जबरदस्त कमी आई है । इसकी जिम्मेदारी निश्चित तौर पर आम जन से कहीं ज्यादा तथाकथित संतों पर है ।

1 COMMENT

  1. अंधविश्वास + झूठ/छल + भेडचाल + आदि “सामाजिक बीमारियों” पर सीधे चोट करता तथा एक रामबाण औषधि प्रदान करता यह लेख काश हर कोई अपने जीवन के 5 मिनट लगाकर पढ़ / समझ ले ………..तो उसे पता चले की भाग्य का निर्माणकर्ता कौन है ….वह स्वयं या कोई गुरु …..

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