बालकवि बैरागी की प्रथम पुण्यतिथि पर

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सुमिरनतुम्हें हम यूं ना भुला पाएंगे.

.मनोज कुमार

13 मई की यह तारीख आज भी है और अगले साल भी आएगी. साल-दर-साल तारीख अपने साथ साल बदलकर आएगी लेकिन 2018 की 13 मई को भुला पाना आसान नहीं होगा. यह वह तारीख है जिसने हमसे हमारे बैरागी को छीन लिया. आए थे वे इस दुनिया में बैरागी की तरह और रूखत भी हुए तो बैरागी की तरह. ना कोई शोरगुल और ना दवा-दारू का कोई झंझट. भोजन कर दोपहर में घड़ी आध घड़ी की नींद लेने जो सोए तो फिर चिरनिंद्रा में समा गए. इस बैरागी का होना अपने आपमें एक विश्वास का होना था. सच के साथ जीने की शर्त का नाम बैरागी था. वो जो भीतर से थे, वो बाहर से थे. सबकुछ पारदर्शी था. जीवन भी और जीवन का सच भी. जिस कालखंड में हम गुजर रहे हैं. जी रहे हैं, उस काल में बैरागी का होना अपने आपमें चमत्कार की तरह था. उम्र ढल रही थी लेकिन आवाज की ओज में वही कशिश था जो शायद उनकी जवानी के दिनों में रहा होगा. वे नारियल की मानिंद थे. बाहर से सख्त और भीतर से नरम दिल. वे इस समय के उन गुरुजनों में थे, खलीफाओं के खलीफा थे जो उन्हें भा जाता, वे दिल में बैठ जाते और ऐसे भी कई थे जो उनके दिल के करीब नहीं पहुंचे. मैं याद कर रहा हूं मध्यप्रदेश के उस नगीने की जिसे हम बालकवि बैरागी के नाम से जानते हैं. जो कवि भी थे, साहित्यकार थे, पत्रकार थे और थे खरे राजनेता. थे इसलिए कि आज ही के दिन वे हमसे बिछुड़ गए लेकिन हैं इसलिए कि हम जब उन्हें कहीं उल्लेखित करते हैं तो कहते हैं कि बैरागी ने लिखा है. शरीर नश्वर था, सो वो चला गया लेकिन जो समाज के पास बचा, वह अक्षय है. ऐसे में बैरागीजी से एक शिकायत है कि तुम्हें हम यूं ना भुला पाएंगे..मेरा और बैरागीजी का रिश्ता अमूमन सात-आठ का रहा है. उनके विशाल व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था. कुछ पढ़ा भी था. पहले कुछ साहित्यकारों से परिचय हुआ और उनके तेवर देखकर मैं खौफजदा था. बैरागीजी को लेकर मन में भी यही भाव था. कई बार कोशिश करने के बाद भी मेरे द्वारा संपादित पत्रकारिता एवं सिनेमा पर केन्द्रित मासिक पत्रिका ‘समागम’ के अंक उन्हें भेजने का साहस जुटा नहीं पाया. यह सोचकर जाने उनकी प्रतिक्रिया क्या हो. आखिरकार हिम्मत जुटाकर एक अंक उन्हें साधारण डाक से भिजवा दिया. यह बात साल 2011-12 के आसपास की होगी. इस अंक में पेडन्यूज को लेकर आलेख प्रकाशित किया गया था जिसमें देश के वरिष्ठ पत्रकार श्री जगदीश उपासने का वह लेख था जिसमें उन्होंने बड़ी बेबाकी से पेडन्यूज के आचरण के बारे में लिखा था. श्री उपासने इंडिया टुडे हिन्दी के वर्षों सम्पादक रहे. और तब मध्यप्रदेश के रायपुर के रहने वाले थे. उनकी माताजी जनसंघ से विधायक निर्वाचित हुई थीं और उनकी एक मुकम्मल राजनीतिक पृष्ठभूमि थी. वे स्वयं राजनीति से दूर रहे लेकिन परिवार में उनके भाई राजनीति में सक्रिय रहे. उन्हीं के चुनाव के दरम्यान पेडन्यूज के आचरण पर अपने अनुभवों को उन्होंने बेबाकी से लिखा था. ‘समागम’ का यह अंक ज्यों ही बैरागी को मिला, अगले दिन अलसुबह उनका फोन आया. पहले तो शिकायत यह कि इतने सालों से पत्रिका प्रकाशित कर रहे हो और मुझे भेजा भी नहीं. उसके बाद मेरे साहस की तारीफ कि इस संकट के समय में पेडन्यूज पर तुमने इतनी बेबाकी से छाप दिया. वे मेरे दुस्साहस पर फिदा थे. तत्काल उन्होंने उपासनेजी का नंबर लिया लेकिन मेरी नजदीकी बढ़ती गई. कई बार गलतियों पर डांट और फिर पुचकार कर समझाने के लिए फोन. मैं हैरान था कि मुझ जैसे नासमझ और नौसिखिया सम्पादक को इतने बड़े व्यक्ति का स्नेह मिल रहा है. सबकुछ यथावत चलता रहा.अपने देहांत के कोई चार महीने पहले भोपाल आए थे. शायद अवसर था मध्यप्रदेश शासन द्वारा उन्हें सम्मानित किए जाने का. होटल अशोका में मुलाकात हुई. कौन सी शक्ति काम कर रही थी, मुझे पता नहीं लेकिन उन्होंने मेरे सामने दिल खोलकर रख दिया. बचपन से लेकर अब तक की सारी बातें सिलसिलेवार बताते गए. अपने गरीबी के दिन. भीख मांगकर खाने से लेकर पिता के अपाहिज होने की, हर बात सुनाई. अपनी दास्तां कहते कहते कई बार उनकी आंखें नम हो गई. साहस तो उनमें इतना था कि आंसूओं को पलकों से नीचे आने की इजाजत नहींं दी लेकिन उस आवाज का क्या करते जो उनके दर्द को बयां कर रही थी. अपनी शादी-ब्याहो के बारे में बताते हुए ठहाके लगा दिये. कुछ मन हल्का हुआ. तब की नईदुनिया में उनकी कविता को पढक़र वह लडक़ी उनसे शादी के लिए तैयार हो गई जिनके साथ अंतिम सांस तक उनका साथ रहा. कुछेक अपने अनुभव उन्होंने सुनाए. आप सामने वाले के दिल में उतर गये हैं कि उसके दिल से उतर गये हैं, इस सत्य को समझने के लिए एक जरूरी तरीका यही है कि उस व्यक्ति ने आपसे किस संबोधन का उपयोग करते हुए कुछ कहना शुरू किया है। उसने आपको किस संज्ञा या सर्वनाम या कि विशेषण से आवाज दी है। आपके पास आपके अनुभव और संस्मरण अवश्य होंगे। यह एक सामान्य व्यवहार या अध्ययन बिन्दु है। मेरे पास इस सत्य का संस्मरण श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री पं. विद्याचरण जी शुक्ल के संदर्भ में है। एक बार मैं विद्या भैया के साथ इंदिराजी से भेंट करने गया. खुले मैदान में जब इंदिराजी आयीं तो दूर खड़े विद्या भैया को आवाज लगायीं..  ‘‘शुकुल जी…! शुकुल जी…! शुकुल जी…!’’ और विद्या भैया पूरी तेजी से उस समूह को छोडक़र इंदिराजी के सामने आ गये। मैंने इंदिराजी को प्रणाम किया और अपनी कृतज्ञता प्रकट करने उनका आभार व्यक्त किया। यह मैदानी भेंट पूरी होने के बाद मैं वापस विद्या भैया के साथ ही उनके बंगले पर पहुंच गया। विद्या भैया ने अपने चपरासी को चाय लाने का आदेश दिया और मुझसे बात करने के लिये मुझे देखा। वे कुछ बोलते उससे पहले मैंने अपनी बेचैनी प्रकट कर दी। मैंने कहा- ‘‘भैया में बेचैन होकर पूछ रहा हूं कि क्या इन दिनों इंदिराजी आपसे नाराज हैं? चाय वाय को रहने दो।’’ वे नजरें नीची करके थोड़ा गंभीर होकर पूछ बैठे- ‘‘क्या मेरे आने से पहले इंदिराजी ने आपसे कुछ पूछा था क्या?’’ मैंने कहा- ‘‘कुछ नहीं कहा। बस आपको आवाज उन्होंने खुद ही लगाई।’’ ‘‘तब नाराजी वाली बात कौन सी हुई?’’ विद्या भैया का सवाल था। मैंने कहा- ‘‘भैया! वे सदैव आपको ‘विद्या’ कहकर संबोधित करती थीं। आज उनका संबोधन बदल गया था। वे आपको शुकुल जी..शुकुलजी कहकर आवाज लगा रही थीं। यह बदलाव मुझे बेचैन कर रहा है।’’ विद्या भैया बिलकुल चुप हो गए। इधर-उधर देखने लगे। तब तक चाय आ गई। जब चाय देकर चपरासी चला गया तो विद्या भैया बोले-‘‘आपका अनुमान ठीक है। वे इन दिनों मुझसे कुछ नाराज चल रही हैं। आप किसी से चर्चा नहीं करें।’’ और हमारी चाय ठंडी हो गई। विद्या भैया प्राय: असहज हो गए। मेरी बेचैनी बढ़ गई।बैरागी जी एक कवि नहीं थे, एक राजनेता भी नहीं थे, एक पत्रकार भी नहीं थे. सही मायने में वे एक मुकम्मल इंसान थे. वे संवेदनशील थे. वे समय की हवा का रूख पहचानते थे. वे कहते रहे कि मनोज, आज ईश्वर का दिया सबकुछ है मेरे पास. लेकिन मैं अपना अतीत नहीं भुला हूं. मैं आज भी मांगकर कपड़े पहनता हूं. इसलिए कि मुझे याद रहे कि मैं मंगता रहा हूं और मंगता ही रहूंगा. ऐसे बैरागी का साथ भूलने का साहस मेरे जैसा छोटा सा आदमी कैसे कर सकता है. जो उनसे सीखने को मिला, वह कम ना था लेकिन कुछ और वक्त मिल जाता तो जीवन में कुछ और दूजा करने की कोशिश करता. खैर, उनके शब्द आज भी गंूज रहे हैं.. मैं अकेला क्या करूं? कुछ तुम लड़ो, कुछ मैं लड़ूं .  

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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