-डॉ. मधुसूदन-
(एक) देववाणी का विशाल सागर:
देववाणी के विशाल सागर को, बुद्धि की क्षुद्र गगरी में भरना, सर्वथा असंभव !
पर, उसके विशाल सागर तट पर, अनगिनत सुनहरे बालुकणों में लोटकर, बुद्धिकी गिलहरी जो कतिपय चमकिले कण अपनी कायापर चिपका कर ला पाती है, उन्हीं में से कुछ दीप्त-कण प्रवक्ता के पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करने में, लेखक गौरव अनुभव करता है। और यही है, उसके इस लेखन अध्यवसाय का भी कारण। उसके आनंद का भी कारण।
ऐसे दीप्तिमान कणों को, आप अनेक, दृष्टिकोणों से देख सकते हैं। नहीं; मैं अनुरोध करता हूं कि अवश्य देखिए। प्रत्येक दृष्टिकोण की अपनी आभा है, और यही आपकी प्रतीति भी होगी। जो जानकर, आप हर्षित हुए बिना नहीं रहेंगे।
(दो) थाती, धरोहर, या परम्परा:
यह संस्कृत भाषा हमारी, आपकी, सभी की थाती ही नहीं, धरोहर भी है।
थाती को जमा पूंजी मानी जा सकती है। पर धरोहर वो होती है, जिसे हमारे पास धरा जाता है। जिसे संभाल कर रखने का उत्तरदायित्व हमारा होता है। और उपयोग करते हुए, उसमें उचित सुधार की भी, हमारे कर्तव्य की प्रतिबद्धता से, अपेक्षा होती है। और पश्चात परम्परित भावी पीढ़ी को, उस के न्याय्य अधिकारी को सौंपना भी होता है।
यह हमारा एक प्रकार का पितृ-ऋण ही है। हमसे पूर्व जन्में पितृओं का ऋण पश्चात जन्मीं अनुज पीढियों को संभालकर सौंपना हमारा पवित्र कर्तव्य है।
तो इस धरोहर का स्वामी कौन होगा? उत्तर सरल है, जो हमें ऐसी धरोहर सौंप के गये, उन्हें तो हम ऐसी धरोहर वापस दे नहीं सकते। दूसरी ओर, इस धरोहर के स्वामी है, हमारे पुत्र, पौत्र, और प्रपौत्र; आने वाली सारी पीढ़ियां। जो पिता, प्रपिता, पूर्वज हमें यह पूंजी देकर गए; वे उसे लेने तो नहीं आयेंगे? ये धरोहर हमने उपजाई हुयी भी नहीं है; कि हम अपनी मनमानी करें; और उसकी उपेक्षा करे।
ऐसी संकल्पना के लिए, मेरी दृष्टि में, सही शब्द है, परम्परा। अर्थात ऐसा “अखण्ड क्रम” एक ओर,हमसे “परे” अग्रज पीढ़ी से जो प्राप्त हुआ है, उसी को संभाल कर, दूसरी ओर की “परे”, अनुज पीढ़ी को सौंपना। परम्परा शब्द में दो “पर” आये हैं। एक परे की पीढ़ी से, लेकर, दूसरी परे पीढ़ी को संभाल कर देना, हमारा परम पवित्र कर्तव्य है। हम बीच में जोडनेवाली कड़ी अवश्य है। यही मैं परम्परा का मौलिक अर्थ समझता हूँ।
(तीन) अनोखी विशेषता:
संस्कृत किसी भी संकल्पना को, जिसका अर्थ आप बता सकते हैं, उस अर्थ को, शब्द में भर कर आपको, नया शब्द दे सकती है। वह शब्द नया भी होता है, और परम्परा से जुड़ा भी होता है। वास्तव में वह नया शब्द हमारे पुराने शब्द का (extension) विस्तरण होता है। इसलिए अभ्यास होनेपर उसे समझना अंग्रेज़ी शब्दों से कई गुना सरल होता है।
(चार) विस्तरण की अनोखी प्रक्रिया:
इस विस्तरण की प्रक्रिया में, नाम का एक मूल (धातु) होता है। यह चमत्कार संस्कृत मूल के आगे, उपसर्ग जोड़कर संपादित करती है। उसी प्रकार, प्रत्यय को पीछे जोड़ा जाता है, ऐसा, विस्तरण दोनों की सहायता से सम्पन्न होता है। यह व्याकरण के नियमाधीन होता है। इस विस्तरण में कुछ नियमानुसार बदलाव भी होते हैं।
एक उदाहरण से इसे स्पष्ट करता हूँ।
(पांच) उदाहरण:
एक धातु है, भा -भाति (२ प.): अर्थ होता है; तेज से चमकना, होना, या शोभना।
उसके आगे प्र-, वि-, प्रति-, और आ- ऐसे चार अलग अंश ( उपसर्ग) लगाकर आप चार अलग शब्द प्राप्त कर सकते हैं। कौन से शब्द ? (१) प्रभा, (२) विभा,(३)प्रतिभा, और (४)आभा।
अभी आप ने ऐसे महिलाओं के,सुंदर नाम तो सुने होंगे।
अर्थ होते है;(क) प्रभा = तेज, कान्ति, किरण।
(ख)विभा= प्रकाश, तेज, शोभा।
(ग)प्रतिभा= स्वरूप, बुद्धि, कवित्व की प्रेरणा।
(घ)आभा= सौंदर्य, शोभा,
वैसे इन शब्दों के और भी अर्थ हैं। पर ऐसे संक्षिप्त आलेख में नहीं दे सकता। कुछ कल्पना देकर झलक दिखाना ही उद्देश्य है। फिर; प्रभाकर, विभाकर, विभावरी जिन शब्दों के (प्रत्यय) पीछे अंश, लगे हुए हैं; उन्हें भी आपने सुना होगा। ये शब्द अंशों में, तोड कर देखते हैं।
(च) प्र +भा+ कर= प्रभाकर। —(छ)वि+भा+कर=विभाकर। —-(ज)वि+भा+वरी=विभावरी।
फिर प्रभाव, प्रभावी, प्रभात, इत्यादि भी बनते हैं।
भा से हमारा भारत भी बनता है। भा+रत=भारत अर्थ कर सकते हैं, भा अर्थात तेज में रत देश। पूछे कोई, कि, ये कौन सा तेज है? ये आध्यात्मिक तेज है। भारत अर्थात आध्यात्मिक तेज से शोभित या चमकता देश। वाः कितनी गौरव की बात है? मैं ने जो कुछ भी अपने अनुभव से जाना है,आज मेरी दृढ़ धारणा बनी है; कि भारत एक ही ऐसा अनोखा, अनुपम आध्यात्मिक देश है। और उसके आध्यात्मिक तेज से सारे संसार की कोई और परम्परा उसकी बराबरी नहीं कर सकती। मैं आज यही मानता हूँ। पहले नहीं मानता था। आप मानने के लिए बाध्य नहीं है। क्योंकि यह श्रद्धा का विषय है।
अभी एक मेरे मित्र ने, नई जन्मीं, बेटी के लिए, अच्छे नाम के चुनाव के लिए सूची मांगी थी। तो मैंने और भी अन्य नाम सूचित तो किए।और भी अन्य नामों के साथ मैं ने निम्न सूची भेज दी। उस सूची के उदाहरण से, मैं आपको उपसर्गों के उपयोगसे कैसे अनेक नाम बनाए जा सकते हैं, यह विशद कर दिखाना चाहता हूं।
आप देखिए कि केवल “सु” आगे जोडकर कैसे नाम बनाए जाते हैं। वैसे “सु” का काफी उपयोग अवश्य है। क्यों कि उसका अर्थ “अच्छा” या “अच्छी” होता है।
सूची:(सभी के आगे “सु” है।)
सुकन्या, सुकान्ता, सुकीर्ति, सुकृति, सुकेती, सुकोमल, सुगंधा, सुघोषा, सुचिता, सुचित्रा, सुचेता, सुजाता, सुदक्षा, सुदीति, सुदीप्ता, सुदीप्ति, सुदेवी, सुदेशा, सुदेही, सुनयना, सुनन्दा, सुनिका, सुनिता, सुनीला, सुनेजा, सुनेत्रा, सुपर्णा, सुप्रभा, सुप्रिया, सुप्रीति, सुबाला, सुभद्रा, सुभागी, सुमति, सुमधु, सुभांगी, सुमिका,सुरभि, सुरमा, सुरंगी, सुरंजना, सुरागी, सुऋता, सुरेखा, सुरेणु, सुलक्षणा, सुलभा, सुलेखा, सुलोचना, सुवर्णा, सुविद्या, सुविधा, सुशीला, सुश्रुति,
सुस्मिता, सुहागी, सुहानी, सुहासी.
ऐसा करने से, आप नाम को परम्परित रखते हुए भी साथ साथ नयापन दे सकते हैं।आप आपके दादा, पिता, आप का, और आपके पुत्र, पुत्रियों के नाम एक साथ देखने पर, समझ सकते हैं, कि नये नाम कैसे बन पाते हैं।
(छः) राम के नाम:
एक ही व्यक्ति के अलग अलग प्रकार से पर्यायी नाम रचे जा सकते हैं। भगवान राम के नाम उदाहरणों सहित देखते हैं। कभी राम को हमने, पिता दशरथ से जोडा तो “दाशरथि” संबोधित किया। अर्थ हुआ महाराज दशरथ के पुत्र। कभी माता कौशल्या से जोड कर “कौशल्यानन्दन” नाम हुआ। नन्दन का अर्थ हुआ आनन्द देनेवाला, यहाँ माता कौशल्या को आनन्द देनेवाला। कभी हमने उन्हें “सीताकांत” भी कहा। अर्थ हुआ सीता जी के कान्त। उसी प्रकार, जनक की पुत्री के नाते सीता जी “जानकी” कहलायी। और फिर जानकी के नाथ रामजी “जानकीनाथ” भी कहलाए। पलुसकर जी नें गाया हुआ भजन आपको स्मरण होगा, “जानकी नाथ सहाय करे तब, कौन बिगाड़ करे नर तेरो?” कभी उन्हें अपने रघुकुल को आनन्द देनेवाले इस अर्थ में, जोड़ा तो “रघुनन्दन” बुलाया।
ऐसे राम के नाम हुए; दाशरथि, कौशल्यानंदन, सीताकान्त, जानकीनाथ, और रघुनन्दन।
राम का अर्थ:
अब कोई यदि पूछे कि, राम शब्द का अर्थ कैसे किया जाएगा? मूल या (धातु) है, रम् रमते। अर्थ है रमना, खेलना, क्रीडा करना, लीला करना, आनंद लेना।अब राम की व्याख्या भी जोडी जा सकती है। जो (घट घट में) रम रहा है, वह राम है। तो, राम का भी अर्थ हमने उस के मूल धातु “रम रमते” से जोड़ा, तो अर्थ हुआ, चराचर सृष्टि में रमने वाला या रमण करनेवाला परम तत्त्व।
(सात) कृष्ण के विविध नाम:
उसी प्रकार से कृष्ण का भी अर्थ, इस समस्त सृष्टि का आकर्षण है। आकर्षति सर्वान् सः कृष्णः। यः आकर्षति सः कृष्णः। जो सभी को अपनी ओर आकर्षित कर खींचता है वह कृष्ण है। (मन मोहन मोह लेता है।)
इसी से जुडा हुआ शब्द है “कृषक” –जो हल चलाता है; इस लिए भी जैसे हल भी खींचा जाता है इस लिए हल चलाने वाला इस अर्थ में उसे कृषक कहा जाता है।
(आठ) संस्कृति वाहक नाम:
हमारे नाम संस्कृति के वाहक है। हमारी “मातृ देवो भव” संस्कृति भी हमारे नामों से व्यक्त होती है। कैसे, उदाहरण के लिए राम और कृष्ण के ही नाम ले लीजिए।
कभी कृष्ण को, “यशोदानन्दन” कहा गया, तो कभी उन्हें “देवकीनन्दन” कहा गया।
अर्थ होता है, यशोदा को आनन्द देनेवाला, देवकी को आनन्द देनेवाला। पुत्र पुत्रियों का ऐसा नाम करण जिसमें उनके नाममें माताओं के नामको प्रधानता देकर उनका नामकरण करना इसमें सांस्कृतिक दृष्टिकोण जो व्यक्त होता है, वह संसार भर में अनोखा है। अप्रतिम है, अतुल्य है। कोई बता दे विश्व की कोई भी भाषा में, ऐसी भावुकता,, ऐसी विविधता, और ऐसी अर्थवाहिता, दिखाई देती है?
लेख के लिए साभार।
How this Samrudhdh Namavali will help this Structural Engineering leanings in schools in Hindi?
https://archive.org/details/structuralengin02ketcgoog
Dear Kenji what way your comment is related to the topic of this article? Please explain. I am missing your logic. Please enlighten me.
मधुसूदन जी, सादर प्रणाम.
आपकी प्रशंशा करने योग्य तो नहीं हूँ मैं, लेकिन पाठक नियमित हूँ आपका. एक सज्जन संस्कृत से सम्बंधित प्रश्न पूछते रहते हैं ट्विटर पर, चूंकि वो विदेशी हैं, तो उनकी मित्र सूची में संस्कृत के विद्वान कुछ ही हैं और बहुधा उनके प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं. आपसे प्रार्थना है कि एक बार समय निकाल कर उस पर भी कुछ लिखें.
https://twitter.com/waxsanskritic/status/506970820615233536
https://twitter.com/waxsanskritic
बहुमुखी प्रतिभा के धनी मधु भाई का सत्संग सदैव मेरे परिवार एवं बच्चों को प्राप्त होता रहा है । ऐसे लोगो की कमी है और सब लोग उस प्रतिभा को समझने की क्षमता और धैर्य भी नही रखते है ।
आजकल हम सबका जीवन भवतिकता का तांडव प्रदर्शित करता है और हर पल हम शानदार पार्टियों के माध्यम से दूसरे को कम साबित करने मे अपने को सफल मानते है । जरा कभी इन पार्टियों के अंदर झांक कर तो देखे दोहरा चरित्र ही साबित होता है ।
आदरणीय डा॰ साहब
ज्ञान के इस भंडार को इतनी सहजता से बताने और समझाने के लिए आपका कोटी कोटी धन्यवाद | काश आप भारत मे होते और हमारी ब्यूरोक्रेसी और शिक्षण संस्थाओं को समझा पाते की अंग्रेज़ी का मोह त्याग कर संस्कृत की ओर बढ़ो | मेरी बड़ी तीव्र इच्छा है की आप अपनी इन बातों को विडियो बना कर यू ट्यूब के जरिये भी समझाएँ ताकि लोगों को आपके इस ज्ञान का महत्व पता चले और सभी स्कूलों और कॉलेज मे इन बातों का प्रचार किया जा सके |
भारतीय भाषाओं के संरक्षण के लिए बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा एक वृहत आंदोलन चलाया जाये तभी हम अपने ज्ञान और अपनी धरोहर की रक्षा कर सकेंगे |
आम लोग यही मानते हैं के संस्कृत भारत और हिन्दुओ की धरोहर हैं। संस्कृत ही नहीं बल्कि और भी बहुत सी चींजे भारत की धरोहर हैं, धरी हुई हैं। इंग्लैंड में एक संस्था ने कहा हैं के संस्कृत भारत और हिन्दुओ की ही धरोहर नहीं हैं बल्कि विश्वं के सबलोगो का संस्कृत भाषा पर अधिकार हैं. जैसे योगा , वेद और साधु संतो के अविष्कारों पर भी पाश्चात्य जगत के लोगो ने अपना अधिकार जमा लिया हैं। राजनैतिक परिस्थियों के कारण धरोहर की परंपरा टूट रही हैं। हिन्दुओ की बहुत सी गतिविधया धरम और आध्यात्मिक से जुडी होती हैं। हिन्दू धरम में भगवान के हज़ारो नाम हैं जिनका विशेष अर्थ होता हैं। लोग इन नामो से जुड़े होते हैं. हिन्दू लोगो के नाम पराया भगवान के बिफ्फिन नामो पर आधारित होते हैं। कुछ नाम नदियों पहाड़ो से जुड़े होते हैं। कुछ नाम प्रकृति , मौसम , आकाश , स्वर्ग ग्रहो पर भी आधारित होते हैं। हिन्दू लोग उटपटांग नाम नहीं रखते। अधिकांश नाम ऐसे होते हैं जो हिन्दुओ के धार्मिक साहित्या में मिलते हैं और उन नामो का अर्थ भी होता हैं। कई नाम जनम कुंडली के अनुसार रखे जाते हैं लेकिन नाम हिन्दू रीती रिवाज अनुसार या परिस्थि के अनुसार होते हैं। भारत में कई ऐसी पुस्तके हैं जिनमे हज़ारो की संख्या में हिन्दू नाम और उनके अर्थ मिलते हैं। आजकल इंटरनेट की सहायता से भी बहुत से हिन्दू नाम मिल जाते हैं। डॉक्टर मधुसूदन जी के लेखो में पराया समृद हिन्दू संस्कृति के दर्शन होते हैं और संस्कृ भाषा के अनगनित शब्द भंडारों का आभास भी कराते हैं ।
सादर चरण स्पर्श,
उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग, अर्थ के विषय में उत्तम ज्ञानवर्धन !
मस्तिष्क में सदा-२ के लिए बैठा देने वाली तकनीकीयों से भरपूर लेख !
सर्वश्री, सत्त्यार्थी जी, डॉ.शर्माजी, गोयल जी,दुर्गाशंकर जी,बिंदल जी,केन्जी;और सुश्री, डॉ.प्रतिभाजी,एवं शकुन्तलाजी।
देववाणी और राष्ट्रवाणी के, सभी शुभेच्छकों को विनम्रता सहित धन्यवाद देता हूँ।
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आलेखों को समझने वाले पाठक भी, हमारी देववाणी की उपेक्षा के कारण, न्यून मात्र रह गए हैं।
यह जानकारी मुझे हैं।
ऐसे विषय पर सुनने के लिए, अनुभव किया मैं ने, कि, जिन संस्थाओं से,संस्कृति को बचानेकी अपेक्षा की जाती है, उन से भी
“कौन आप को सुनेगा?” “और कौन समझ पाएगा? ऐसा बचाव चलता है। अंग्रेज़ी में क्यों नहीं लिखते?
वास्तविकता है, नकारता नहीं हूँ। पर, संस्कृत के विषय को, रोमन अंग्रेज़ी में समझाना “बगुले को थाली में खीर खिलाने जैसा है। उसकी चोंच में कितना समाएगा?
कैसे किया जाए?
बाहर तो हम मार खाते ही है।
अब घर पर भी मार खा रहे हैं।
शेल्डन पॉलॉक कहते हैं, ४०-५० वर्ष पहले, भारत में जिस कोटि के पण्डितों से वार्तालाप करके आनन्द अनुभव करता था,आज वैसे पण्डित ढूंढनेपर भी नहीं मिलते। उनके शब्द वैसे, जैसे वे बोले।
“…But at the time of Indian Independence there were far more scholars, whose names I could recite to you,in the next hour, who had international reputations,who were writing for an international audience on Sanskrit, who produced enduring work, who really knew the language, knew the history, knew the literary history, knew the intellectual history.
I personally do not see that cadre of scholars in India anymore.”
हमारे राष्ट्र नायको नें हमें मारा, तो रोए किसके सामने?
कौन सहायता करेगा?
मैं मानता हूँ: आज “संस्कृत भारती” बहुत बहुत अच्छा काम कर रही है।उनका काम मेरी जानकारी के अनुसार “संभाषण संस्कृत” है। जो अलग अंग को पुष्ट करता है।आवश्यक है ही।
मुझे शेल्डन पॉलॉक का दिशा-निर्देश प्रेरित करता है।
गिलहरी और क्या कर सकती है? पर अथक प्रयास करती रहेगी।
बहुत बहुत धन्यवाद।
मधुसूदन
बहुत ही प्रेरणाप्रद आलेख, बधाई।
गिलहरी छोटी अवश्य है किन्तु उसके ऊपर की तीन रेखाएं उसे महान बनाती हैं! यह रेखाएं श्री राम ने खींची थीं।
संस्कृत गई तो हमारी संस्कृति गई, तो हम गए !!
अंग्रेजी संस्कृत और संस्कृति दोनों का भक्षण कर रही है और हम ताली बजा रहे हैं।
सब लोग अपनी असहायता प्रकट करते हैं कि हम क्या करें क्योंकि इसके बिना नौकरी नहीं मिलती, और सम्मान भी नहीं मिलता – एक पक्के गुलाम देश की पहचान।
मैं , उस गिलहरी की तरह, बच्चों में मातृभाषा प्रेम जागृत करने और सुसंस्कृत बनाने का सतत प्रयास कर रहा हूं – कहानियां सुनाकर।
हम सभी को बच्चों को मातृभाषा मेंं कहानियां सुनाना चाहिये।भारत में बच्चों की कहानियों का भंडार है।
Madhusudan ji ka pratyek lekh pathaneey tatha vicharottejak hone ke karan sangrahaneey bhi hota hai. Videsh men rahte hue achary pravar jis prakaar desh ki seva kar rahe hain use dekh kar bahut prasannata hoti hai. aapki lekhani uttarottar isi prakar pravahmaan rahe yahi bhagwan se prarthana hai.
(Hindi men type karne kee suvidha na hone se roman lipi ka anichchha poorvak prayog karna pad raha hai)
बहुत सुन्दरता से आपने नामों में भारतीय दृष्टि की विशेषताएं स्पष्ट कर दी कि व्यक्ति का नाम केवल ध्वनि वहीं गुण का परिचायक है ..जब कि अन्य स्थानों में वह केवल एक ध्वनि समूह भर रह जाता है जो किसी व्यक्ति का बोध कराता है .
पता नहीं क्यों अब हमारे यहाँ भी . लोग गुण को त्याग कर सिर्फ़ आवाज़ों का अनुसरण करने लगे है ( बबिता,नीना ,टीना आदि ).
अच्छा है लोग सचेत हो जाएँ !
This is an enlightening essay. I am so proud to know the greatness of our most ancient language Sanskrit.
I hope such articles are included in school text books so that students learn the meaning of the words and their names even.
We must work for an encyclopaedia of Sanskrit/ Hindi or good dictionary available to students .
These days I see the fall in the standard of conversation in our native languages .English is killing all the Hindu languages and our films, serials on TVS and news readers are destroying the native languages.
To me this seems to be a conspiracy.
When will this down fall stop?
Great, dear Dr . Madhu Sudan ji.
It is indeed great and most valuable. It’s a high class analyses of words, and looked to me as original thinking. I will call you we will talk how words are made from ” svar” or sound and how sound is made.
Is it possible to convince Hon. Modiji, our Indian government and people to adopt Sanskrit as India’s prime language and Gurukul system of education as our primary system of education that should give moral, ethics, spiritual and life education only which will take India to same heights as she once was?
Very good !
One may Google search same topic in known languages and see which language provides more information about the topic on internet about general and technical knowledge.
How many Sanskrit – praising pundits can communicate in Sanskrit?
https://en.wikipedia.org/wiki/Name
https://www.20000-names.com/male_hindi_names.htm
https://www.20000-names.com/female_hindi_names.htm
https://hi.wiktionary.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%80-%E0%A5%A7
https://hi.wiktionary.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%82_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%80
https://www.englishclub.com/vocabulary/prefixes.htm
https://www.englishclub.com/vocabulary/suffixes.htm
बंधुवर –
अति सुन्दर – साधुवाद
मधुसूदन जी,
आप प्रति’भा’ के धनी तो है ही, ‘भा’रत और ‘भा’षा के संरक्षक भी है, आपको मेरा नमन ।