आशीष रावत
फिल्म पद्मावत को लेकर गत कई महीनों से विवाद चल रहा है, या यूं कहें कि विवाद फैलाया जा रहा है। करणी सेना और कुछ अन्य संगठनों के विरोध के बाद हमारे देश के नेताओं ने इस गर्म तवे पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना शुरू कर दिया। ऐसे तत्वों को रोकने की बजाय कई प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों में फिल्म को बैन करने और उसका विरोध करने की होड़ लग गई है। आने वाले उपचुनाव एवं चुनावों को ध्यान में रखते हुए यह सब खेल खेला जा रहा है। एक खास तबके के वोट बैंक की खातिर आग में घी डालने का काम किया जा रहा है। एक ‘काल्पनिक’ कहानी पर आधारित और अब तक अनदेखी फिल्म इतनी अहम हो गई है कि करणी सेना नामक संगठन ने पूरे देश में बवाल मचा दिया। मजेदार बात यह है कि इसमें कायदे-कानून की चिंता करने की बिल्कुल जरूरत नहीं होती। शिवसेना की राजनीतिक सफलता से प्रेरित होकर अनेक संगठन बने हैं जिनके नाम में सेना शब्द जरूर है, करणी सेना भी उन्हीं में से एक है। दबंग जातियों का शक्ति प्रदर्शन कोई नई चीज नहीं है। राजपूती शान वाले लोग ‘जौहर’ का महिमामंडन कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर परम्परागत रूप से सती प्रथा और बाल विवाह के समर्थक रहे हैं। उनकी नजर में आक्रमणकारी से लड़कर मरने वाली लक्ष्मीबाई से अधिक सम्मान की पात्र आत्महत्या करने वाली पद्मावती हैं। बहरहाल, ये अच्छी बात है कि एक तरह की ऑनर किलिंग या ऑनर सुसाइड की शिकार महिला को भारत माता, गोमाता और गंगा मैया के बराबर का दर्जा दिया जा रहा है। फिल्म सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी बैठे तमाशा देख रहे हैं, राजनीतिक आकाओं के आदेशों का पालन करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है जबकि बुजुर्ग निर्देशक श्याम बेनेगल पूछ रहे हैं कि फिल्मकारों को धमकी देने से वालों से निबटना सरकार की जिम्मेदारी है या नहीं? गौर करने की बात ये है कि यह सभी महिलाओं के सम्मान का नहीं, राजपूत महिलाओं के सम्मान का मसला है और इसमें किसी को कोई बुराई नहीं दिख रही। इस पूरे विमर्श का सुर कुछ ऐसा है कि हमारे पास ताकत है, हम अपनी महिलाओं का सम्मान करा लेंगे, तुम्हारे पास ताकत नहीं है तो तुम चुपचाप झेलो। अगर ऐसी बात है तो संविधान और कानून की क्या जरूरत? हमेशा की तरह कानून अपना काम कर रहा है और कानून तोड़ने वाले अपना। टीवी चैनल इस बहस में उलझे हैं कि पद्मावती थी या नहीं, खिलजी कितना बुरा आदमी था, वह एक राजपूतनी पर बुरी नजर नहीं डाल सकता, हम तब नहीं रोक पाए, लेकिन अब बर्दाश्त नहीं करेंगे (क्योंकि सरकार हमारे साथ है)।
करणी सेना के जिन नेताओं को कल तक कोई नहीं जानता था, जो लोग ये नहीं जानते कि खिलजी बाबर से पहले था या उसके बाद, ये सब लोग अब प्राइम टाइम की शोभा बढ़ा रहे हैं। जिस राज्य की सरकार ने 400 वर्ष बाद राणा प्रताप को हल्दीघाटी की लड़ाई जिता दी हो, वहां के राजपूत बैकडेट से अपनी रानी की इज्जत बचा रहे हैं तो क्या गलत कर रहे हैं? करणी सेना के नेता रातोंरात स्टार बन गए, वे सड़क पर तलवार भांजने की इच्छा रखने वाले लाखों बेरोजगार नौजवानों के लिए कितने प्रेरक होंगे और आगे वे कैसी राजनीति करेंगे यह समझने के लिए बहुत कल्पनाशीलता नहीं चाहिए। करणी सेना की आलोचना, सरकार की आलोचना नहीं होती लेकिन असुरक्षा इस हद तक है कि मुंह खोलने को तैयार नहीं है, खासकर इसलिए कि सरकार ने अपना पक्ष बिल्कुल साफ कर दिया है कि वह ‘राजपूती आन-बान-शान’ की तरफ खड़ी है, न कि रचनात्मक आजादी और कलाकारों के साथ। फिल्म ‘पद्मावत’ पर देश में जो प्रहसन चल रहा है वो एक बार फिर बता रहा है कि हम कितने बीमार समाज में रहते हैं और सरकार इस बीमारी का क्या खूब इलाज कर रही है। कौन जाने, खिलजी ने पद्मावती को आईने में देखा था या नहीं, लेकिन फिल्म पर छिड़े विवाद ने देश की राजनीति, मीडिया और समाज को आईना जरूर दिखाया है। इस देश में भावनाएं सिर्फ उनकी आहत होती हैं जो उन्माद फैला सकें और उत्पात मचा सकें। हर बार की तरह आहत भावनाओं को सहलाने-दुलराने की होड़ लगी है क्योंकि ‘आहत’ लोगों के पास संख्याबल या तोड़फोड़ करने का बाहुबल है। जब मुद्दा ‘राजपूती आन-बान-शान’ का हो, कुछ लोग तो ऐसे बहस कर रहे हैं मानो संविधान में लिखा हो कि राजपूत अन्य लोगों के मुकाबले अधिक सम्मान के हकदार हैं। इस तरह का हंगामा किसी जीती-जागती महिला के बलात्कार पर कभी नहीं हुआ और न होगा। ये बताता है कि फिल्म को मुद्दा बनाकर जातीय वर्चस्व और साम्प्रदायिक विद्वेष की राजनीति करने वालों को कोई राजनीतिक पार्टी नाराज नहीं करेगी बल्कि उनका समर्थन हासिल करना चाहेगी। शुद्ध राजनीतिक लाभ के लिए पद्मावत का विरोध कर रही करणी सेना, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद हिंसा पर उतारू है। फिल्म को देखे बगैर इतिहास से छेड़छाड़ का आरोप कितना सही है और इससे जनता के किस वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुंच रही है, यह साफ नहीं है? हिंसा को रोकने और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान से बचाने के लिए करणी सेना जैसे हिंसक संगठनों पर राज्यों द्वारा प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता? भीड़तंत्र में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के सामने सरकारों के झुकने से यदि ‘कानून का जौहर’ हुआ तो यह लोकतंत्र के इतिहास में सबसे दुखद अध्याय होगा।