गरीबी बढ़ा रहा है पूंजी का केंद्रीयकरण

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संदर्भ- आॅक्सफैम सर्वे में खुलासा, 67 करोड़ गरीबों की आय मात्र 1 फीसदी बढ़ी

प्रमोद भार्गव

विश्व के धनी व अमीर देशों के दावोस में चल रही वार्षिक बैठक से ठीक पहले आॅक्सफैम के सर्वे ने अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई को लेकर सबको चौंका दिया है। दरअसल यह अंतरराष्ट्रीय संगठन गरीबी उन्मूलन के लिए भी काम करता है। इस सर्वेक्षण ने भारत में पिछले साल कमाई के दौरान उत्पन्न हुई गैर-बराबरी की चिंताजनक तस्वीर प्रस्तुत की है। इसका प्रभाव निवेष की लालसा में दावोस पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके साथ गए प्रतिनिधिमंडल पर भी पड़ सकता है। दरअसल हमारे देश में असमानता की खाई इतनी तेजी से बढ़ी है कि दुनिया के नामी अर्थशास्त्री भी आश्चर्यचकित हैं। इस सर्वे से जाहिर हुआ है कि 2017 में होने वाली आमदनी का 73 प्रतिशत धन देश के महज 1 प्रतिशत ऐसे लोगों की तिजोरियों में केंद्रित होता चला गया जो पहले से ही पूंजीपति है। इस विडंबना के चलते देश की जो आधी आबादी यानी 67 करोड़ लोगों की आय में फगत 1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2017 में देश के अमीरों की आय में धन की बढ़ोत्तरी 20.9 लाख करोड़ रुपए दर्ज की गई हैं, जो कि देश के वार्षिक बजट के लगभग बराबर है। इस असमानता के चलते भारत में 2016 में जहां अरबपतियों की संख्या 84 थी, वह बढ़कर 101 हो गई है।

स्विट्जरलैंड के शहर दावोस में विश्व आर्थिक मंच के सम्मेलन के अवसर पर अंतरराष्ट्रीय अधिकारवादी समूह आॅक्सफैम का यह सर्वेक्षण इसलिए चौंकाने वाला है, क्योंकि 2016 की तुलना में इसमें बड़ा इजाफा हुआ है। 2016 में देश के 1 प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल आमदनी का 58 फीसदी हिस्सा गया था, जबकि वैश्विक अनुपात 50 प्रतिशत का था। दुनिया के 10 देशों के 70,000 लोगों पर किए गए इस सर्वेक्षण में इस साल का वैश्विक अनुपात 82 प्रतिशत का है, जिसने गरीबों के प्रति उदार नेता व अर्थशास्त्रियों की चिंता बढ़ा दी है। सर्वेक्षण के अनुसार विश्व स्तर पर हालात और भी चिंताजनक हुए हैं। दुनिया के मात्र एक फीसदी रहीशों के पास 82 फीसदी संपत्ति जमा हो गई है, जबकि 3.7 अरब की आधी गरीब आबादी की दौलत में कोई वृद्धि हुई ही नहीं है। इससे साफ हुआ है कि भारत समेत दुनिया के तमाम देशों में आर्थिक विकास का लाभ चंद पूंजीपतियों के हाथों में केंद्रित होता जा रहा है। जबकि करोड़ों लोग गरीबी से बाहर आने के लिए जूझ रहे हैं। भारतीय वस्त्र उद्योग में कार्यरत एक ग्रामीण मजदूर को यदि इसी उद्योग के शीर्ष अधिकारी के बराबर वेतन पाने के लिए उद्यम करना है तो उसे 941 साल लगेंगे। इसीलिए ‘रिवार्ड वर्क, नाॅट वेल्थ‘ शीर्षक की इस रिपोर्ट में सुझाया गया है कि भारत, अमेरिका और ब्रिटेन के मुख्य कार्यपालन अधिकारियों के वेतन में यदि 60 प्रतिशत की कमी लाई जाए तो यह खाई कुछ कम हो सकती है, लेकिन भारत में जिस तरह से जनप्रतिनिधियों, सरकारी अध्किारियों और सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों के जिस तरह से वेतन बढ़ाए गए हैं, उस परिप्रेक्ष्य में नहीं लगता कि सरकार वेतन घटाने की दिशा में कोई पहल करने की हिम्मत जुटा पाएगी ? दरअसल भारतीय पूंजीपतियों की आय में जो 4.89 लाख करोड़ रुपए की वृद्धि हुई हैं, यह राशि भारत के सभी राज्यों के शिक्षा व स्वास्थ्य बजट की 85 फीसदी की पूर्ति करने लायक है।

उपरोक्त संदर्भ में दावोस पहुंचे नरेंद्र मोदी के समक्ष इस सर्वेक्षण ने कुछ कठिन प्रश्न खड़े किए हैं। दरअसल इस सम्मेलन में निवेष की आशा के साथ दुनिया में बढ़ती आर्थिक और लैंगिक असमानता दूर करने पर भी चर्चा होती है। फिलहाल मोदी ने विश्व के शीर्ष करोबारियों और सीईओ के साथ जो चर्चा की है, उसमें भारत में सरलता से उद्योग लगाने व उत्पादित वस्तु बेचने पर तो चर्चा हुई है, लेकिन अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई पर अंकुष लगाने की कोई बात नहीं हुई है। इसी परिप्रेक्ष्य में जीएसटी जैसे बड़े आर्थिक सुधार को कारोबारी सुगमता का आधार बताया गया। हालांकि प्रधानमंत्री ने दुनिया को जलवायु परिवर्तन के खतरों के प्रति आगाह करते हुए इतना जरूर प्रभावी ढंग से कहा है कि इस खतरे से निपटने के लिए सबको साथ आना पड़ेगा और प्राकृतिक संसाधनों के तर्कसंगत इस्तेमाल पर ध्यान देना होगा। लेकिन इतना कह देने भर से भारत में आर्थिक विसंगति दूर तो नहीं होगी, अलबत्ता इसके दूरगामी परिणाम भारत में अराजक हिंसा बढ़ाने वाले साबित हो सकते है।

दरअसल भारत में सामाजिक स्तर पर देश के विभिन्न जातीय व धर्मिक तबकों में कभी आरक्षण तो कभी स्वाभिमान को ठेस लगने के नाम पर लगातार असंतोष फूट रहा है। इस बढ़ते आक्रोष की अभिव्यक्ति जहां महाराष्ट्र में दलितों में देखने को मिली तो वहीं सवणों में पद्मावती को लेकर हो रहे प्रदर्शनों में दिख रही है। जाट, गुर्जर और मराठों में आरक्षण को लेकर हुए प्रदर्शन भी इसी बेचैनी के प्रमाण हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार को ऐसी दूरदृष्टि से काम लेने की जरूरत है कि उद्योगपतियों के पास पूंजी का जो केंद्रियकरण हो गया है, वह बाहर आए और उसका सभी वर्गों के बीच उचित बंटवारा हो। देश की पूंजी का चंद तिजोरियों में बंद हो जाना इसलिए भी हानिकारक है, क्योंकि इस पूंजी का बड़ा हिस्सा अनुत्पादक रहकर चलायमान अर्थव्यस्था से बाहर हो जाता है। उसका न तो उत्पादन में कोई सहयोग रह जाता है और न ही उससे सकल घरेलु उत्पाद दर को गति मिल पाती है। यह धन करोड़ों की कारें, लाखों की घड़ियां, मोबाइल, पेन और बिटकाॅइन जैसी आवासी मुद्रा में लगा दिया जाता है, जिससे न तो नए रोजगार के संसाधन पैदा होते है और न ही गरीबी मिटती है। शिक्षा, स्वास्थ्य और पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाओं के निजीकरण में इस पूंजी के उपयोग से ऐसे दुष्परिणाम देखने में आ रहे हैं कि देश की जो 67 करोड़ आबादी वह धीरे-धीरे इन बुनियादी जरूरतों से बाहर होती जा रही हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास इस कार्यकाल का यह आखिरी अवसर है। बजट भी उन्हें एक बार और प्रस्तुत करना है। इस लिहाज से उन्हें कोई ऐसा ठोस नीतिगत उपाय तलाशने  की जरूरत है, जिससे बढ़ रही आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और स्वास्थ्य संबंधी विषमताएं दूर हों और भारत समावेषी विकास का अगुआ बने। वैसे भी आक्सफैम ने असमानता की बढ़ती खाई को घटाने के लिए उद्योग कर बढ़ाने और कंपनी प्रमुखों के वेतन की सीमा तय करने के सुझाव दिए हैं, गोया इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। दरअसल किसी भी सम्मेलन या परिचर्चा का औचित्य तभी है, जब उसके अजेंडे में शामिल समस्याओं के सार्थक समाधान सामने आएं। चूंकि इस सम्मेलन के अजेंडे में आर्थिक असमानता दूर करने के उपाय भी शामिल हैं, लिहाजा इस असमानता को हल करने के कोई सूत्र खोज लिए जाते हैं, तभी इसे जरूरी और कारगर माना जाएगा। अन्यथा बड़े उद्योगपतियों, राजनेताओं और शीर्ष अधिकारियों का यह जमघट सैरगाह और मौज-मस्ती से ज्यादा कुछ नहीं रह जाएगा।

 

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