वेदना ने स्पर्श जब पाया तुम्हारा
मेरी तंग उदास गलियों में बिछे
घनान्धकार ने अकस्मात जाना
पूर्णिमा का चाँद इतना सौम्य,
इतना संपन्न क्यूँ है ?
मात्र तुम्हारे आने से मेरा संसार
इतना दीप्तिमान क्यूँ है ?
वेदना ने स्पर्श जब पाया तुम्हारा
क्षुब्ध विषाद गीत और राग बना,
तुम्हारी कही मीठी हर बात मुझे
कभी प्रवचन, और कभी
पावन श्रुति-सी लगी,
कि जैसे ओंठों ने तुम्हारे
कुछ कह कर, कुछ छू कर, बस
मुझसे ही मेरी
अपरोक्ष अनुभूति करा दी !
वेदना ने स्पर्श जब पाया तुम्हारा
तो यह भी सहज था जाना मैंने
अनुतापित अतीत और वर्तमान
जो मेरा कटु सारांश थे तब तक
वास्तव में वह थे केवल
एक प्रलीन मानवी कथा
या कोई विराट झूठ थे बस !
यह कैसा अलौकिक संयोग है, कि
तुम एक अनन्त छंद-सी,प्रेरणास्पद
फूल-सी महकती
कविता बन कर आई
और जाते-जाते तुम मेरे जीवन की
नयी कहानी लिख कर चली गई ..!
कुछ ऐसा ही हुआ
वेदना ने स्पर्श जब पाया तुम्हारा ..!
– विजय निकोर
बीनू जी,
//आप इस क्षेत्र के हस्ताक्षर हैं.. क्या बात है वाह..//
इन शब्दों से मुझको मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार।
सादर,
विजय निकोर
आप आज के छायावादी कवि हैं, जिनको समझना मुश्किल है, पर पढ़ना अच्छा लगता है।कविता का शीर्षक बतादेता है कि यह विजय निकोर की कविता है..आप इस क्षेत्र के हस्ताक्षर हैं.. क्या बात है वाह..