राष्ट्रभक्ति सनातन की मूल वैदिक परंपरा है

भारतीय सांस्कृतिक वैभव और दर्शन की मन्दाकिनी “श्री दक्षिणेश्वर मंदिर”
के दीवारों पर वेद शास्त्रों के सुभाषित अंकित हैं उनमे से एक वैदिक ऋचा
ने मुझे आकर्षित किया;
ये यजुर्वेद का “राष्ट्राभिवर्द्धन मन्त्र” है जो इस प्रकार है —–

आ ब्रह्यन्‌ ब्राह्मणो बह्मवर्चसी जायताम्‌

आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्यः अति
व्याधी महारथो जायताम्‌
दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः
पुरंध्रिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो
युवाअस्य यजमानस्य वीरो जायतां
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम्‌

योगक्षेमो नः कल्पताम्….शुक्ल यजुर्वेद ; अध्याय २२, मन्त्र २२

अर्थ : हे ब्रम्ह, हमारे देश में ब्राह्मण समस्त वेद आदि ग्रंथों से
देदिव्य्मान उत्पन्न हों | क्षत्रिय पराक्रमी और शस्त्र और शास्त्रार्थ
में निपुण और शत्रुओं को अत्यंत पीड़ित करने वाले उत्पन्न हों |गौ दुग्ध
देने वाली और बैल भार ढोने वाला हो| घोडा शीघ्र चलने वाला और स्त्री
बुद्धिमती उत्पन्न हो |प्रत्येक मनुष्य विजय प्राप्ति वाले स्वाभाव वाला
और रथ गामी और सभा प्रवीण हो | इस यज्ञकर्ता के घर विद्या यौवन सम्पन्न
और शत्रुओं को परे फेंकने वाला पुत्र उत्पन्न हो |हमारे देश के मेघ इच्छा
इच्छा पर बरसें और सभी जौ चना और गेहू फलवाले होकर पकें |
और हमारे राष्ट्र के प्रत्येक मनुष्य का योग और क्षेम उसके उपभोग हेतु
पर्याप्त हो |

‘राजृ-दीप्तो’ अर्थात ‘राजृ’ धातु से कर्म में ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय करने से
राष्ट्र शब्द बनता है अर्थात विविध संसाधनों से समृद्ध सांस्कृतिक पहचान
वाला देश ही एक राष्ट्र होता है | अमेरिका एक देश है क्यों की यूरोप की
संस्कृति ने उसे समृद्ध किया न की उसने एक समग्र संस्कृति का विकास किया
था | आज एशिया में राष्ट्र की अभिव्यक्ति सिर्फ भारत के पास है क्यों की
चीन, जापान और कोरिया तक सभी भारत के शैव और बौध संस्कृति से ही सम्पन्न
हुए थे |

देश शब्द की उत्पत्ति “दिश” यानि दिशा या देशांतर से हुआ जिसका अर्थ
भूगोल और सीमाओं से है | देश विभाजनकारी अभिव्यक्ति है जबकि राष्ट्र,
जीवंत, सार्वभौमिक,युगांतकारी और हर विविधताओं को समाहित करने की क्षमता
रखने वाला एक दर्शन है |

|| पश्चिम का साम्राज्यवाद बनाम भारत का राष्ट्रवाद ||

पश्चिम के व्याकरण में राष्ट्र को परिभाषित करने की अभिव्यक्ति ही नहीं
है क्यों की उनकी philosophy (फिला =ज्ञान, सोफिया = प्रेमी) भारत के सहज
दर्शन की गूढता को वैसे ही व्यक्त नहीं कर सकता जैसे अंग्रेजी “त” और “ट”
के अंतर को व्यक्त करने में असमर्थ है | कुल मिलाकर पश्चिम ने अपने
साम्राज्यवाद को ही राष्ट्र का पर्यायवाची मान लिया परन्तु ये सर्वथा गलत
है | साम्राज्यवाद से तात्पर्य है कि वह जन समूह साधारणतः समान भाषा,
इतिहास, धर्म को मानता हो परन्तु भारत तो शताधिक भाषाएँ बोलता है !! भारत
का बाइबिल जैसे इतिहास लेखन में नहीं अपितु उसे कृष्ण की शिक्षाओं में
विश्वास है और भारत इस बात से ज्यादा मतलब नहीं रखता की कृष्ण का जन्म
कहाँ हुआ था !!!
भारत स्मृति से अधिक श्रुति में विश्वास करता है जब की अरब या यूरोप की
संस्कृति इतिहास लेखन पर टिकी है | यदि आज कुरआन या बाइबिल को अरब और
यूरोप से हटा दिया जाय तो उनकी पूरी धार्मिक विरासत ही ख़त्म हो जाएगी
परतु भारत जैसे राष्ट्र की समग्रता तो रामायण और गीता को भी हटा देने पर
भी शैव,शक्त, वैदिक, अद्वैत और शताधिक मतों के रूप में यशस्वी रहेगी |
यही है एक राष्ट्र की अभिव्यक्ति जिसे पश्चिम का एक भाषा, एक धर्म, एक
चर्च के साम्राज्यवादी ढांचे से व्यक्त नहीं किया जा सकता और अलग अलग
विविधताओं को समेटकर राष्ट्र की अभिव्यक्ति में हजारों सालों से यशस्वी
हो रहा है |

यही कारण है की भारत कभी सीमाओं के निर्धारण, इतिहास बोध और भूभागों को
जीतने और बांटने जैसे छोटे लक्ष्यों पर नहीं टिका रहा | हर बार अपनी
सांस्कृतिक पहचान और राष्ट्र की सार्वभौमिकता को चुनौती देने वाले
आक्रान्ताओं को हिन्दुकुश के बाहर खदेड़ कर वापस लौट आये और भारत के
अमरत्व के परम ज्ञान की खोज के लिए एक महायात्रा पर अधर्मियों की कोई
काली छाया नहीं पड़ी |

कौटिल्य के अनुसार धार्मिक जनता और नीतिमान राजा, राष्ट्र के अंतर्गत
मान्य हैं। कौटिल्य के अनेक स्थानों में देश के स्थान पर राष्ट्र शब्द का
प्रयोग इसलिए किया है क्यों की सिर्फ भूगोल से समाज और राष्ट्र का
निर्माण नहीं होता है | जब की पश्चिम की साम्राज्यवाद की परिभाषा भूगोल
केन्द्रित है। राष्ट्र में जिन जिन वस्तुओं का होना अनिवार्य है उनका
उल्लेख करके कौटिल्य ने उन गौणी वृत्तियों वाले अवयवों को भी राष्ट्र
शब्दवाची कहा है। उन वस्तुओं में कृषि, धान्य,उपहार, कर, वाणिज्-लाभ,
नदी-तीर्थादि-लाभ एवं पत्तन आदि लाभ, सब राष्ट्र के लिए आवश्यक बतलाये गए
हैं । राष्ट्र में जिन जिन वस्तुओं का होना आवश्यक है जिन विशेषणों से
विशिष्ट होने से देश राष्ट्र हो सकता है, उनका निर्देश भी कौटिल्य ने
किया है।

|| चाणक्य के समग्र राष्ट्र की संकल्पना ||

जिस देश की रक्षा सीमावर्ती पर्वत, अरण्य, नदी, समुद्र आदि भौगोलिक
साधनों से सुगम हो, वह देश स्वारक्ष होकर राष्ट्र है। अर्थात भारत एक
स्वरक्ष राष्ट्र है क्यों की हिमालय, बंगाल की खाड़ी, अरब सागर और हिन्द
महासागर जैसे प्राकृतिक साधन इसकी रक्षा कर रहे हैं | जिस देश की
सुखपूर्वक जीविका या जीवनयात्रा चल सके,वह स्वाजीव है जैसे अंटार्कटिक
स्वजीव राष्ट्र नहीं है क्यों की उनके भूगोल में सुखपूर्वक जीविका नहीं
हो सकती है। शत्रुद्वेषी सामन्तवर्ग जिसके वशवर्ती हों, वैसे राजा तथा
प्रजा से युक्त देश ‘शक्यसामन्त’ राष्ट्र होता है। इसी तरह वह देश
राष्ट्र है, जो अनिष्ट पंक, पाषाण, ऊषर, विषम, कण्टक, श्रेणी, व्याल,
मृगावटी, आदि से रहित हो, जो कमनीय हो। जो देश कृषि,खनिज द्रव्य, हस्ती,
अरण्य आदि से युक्त, गोवश के लिए अनुकूल,पुरुषों को हितावह, सुरक्षित
गोचर भूमियुक्त, विविध पशुओं से संपन्न हो, यथासमय जिसमें वर्षा हो एवं
जो जल-स्थल के विविध मार्गों से युक्त हो , वह राष्ट्र है।
सारभूत,आश्चर्यपूर्ण, अत्यंत पवित्र तीर्थादि से युक्त, दंड एवं कर आदि
को सहन कर सकने वाला, कर्मशील शिल्पी एवं किसानों से युक्त, बुद्धिमान
गंभीर धार्मिक स्वामी से युक्त, वैश्य-शूद्रादि वर्णों के लोग जिस देश
में पर्याप्त हो, वहां राजभक्त, पवित्र, निष्कपट एवं धार्मिक बन निवास
करते हों, ऐसी जनपद-सम्पत से युक्त देश राष्ट्र है। कामन्दक आदि
नीतिशास्त्रों ने भी इन्हीं बातों का वर्णन अपने ग्रंथों में किया है।

आज राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्र की संकल्पना इसी उपरोक्त दर्शन पर
टिकी हुई है जहाँ इस्लाम और इसाइयत को भी इसी राष्ट्रवाद की महायात्रा
में शामिल होने की बात होती है तो हंगामा होता है | यदि आज भारत के
मुस्लिम और इसाई, मस्जिद या चर्च जाते हुए भी इस बात में विश्वास करें की
वो जिस भारत में जीवन जी रहे हैं उसके प्राचीन गौरव, सहिष्णुता और
सामाजिक साहचर्य ने ही उन्हें इस समाज में उनके धार्मिक स्वरुप को
स्वीकार करते हुए अपना पडोसी मान लिया जबकी अरब जैसे देशों में वहां के
इस्लामिक साम्राज्यवादी, हिन्दू या इसाई को धार्मिक आजादी नहीं देते हैं
तो उन्हें भारत का कृतज्ञ होना चाहिए और स्वयं को एक हिन्दू समाज का
महत्वपूर्ण अंग बनने से रोकना नहीं चाहिए | परन्तु इस्लाम और ईसाइयत
प्रेरित साम्राज्यवाद से प्रभावित भारतीय मुस्लिम और इसाई ऐसा करने की
अन्तःप्रज्ञा का विकास नहीं कर पा रहे हैं क्योंकी वो अपने धर्मों में
निहित एक धर्म,एक भाषा,एक पूजा के संकुचित पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं और
उनके विदेशी आकाओं के लिए ये एक संजीवनी है |

-दक्षिणेश्वर काली मंदिर से शिवेश प्रताप

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