समाज

पौधों को वृक्ष बनने के लिए किसी मार्केटिंग की जरूरत नहीं

मुनव्‍वर राणा साहब लिखते हैं कि –

सो जाते हैं फुटपाथ पे अखबार बिछाकर,
मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते…

ये अशआर पढ़ते हुए हम भूल जाते हैं कि अब हमें उल्‍टे कदमों पर चलना सिखाया जा रहा है और ये प्रयास पूरी सफलता के साथ आगे बढ़ रहा है। जी हां, तनाव का एक भरापूरा बाजार क्रिएट किया जा चुका है, आवश्‍यकताओं की मार्केटिंग में रिसर्च, प्रोडक्‍ट और कंज्‍यूमर तक पहुंचने की ट्रिक्‍स बताई जाने लगी हैं। हर हाल में इस बात से बचा जा रहा है कि हम अपनी जड़ों की ओर ना देख सकें क्‍योंकि क्रिएटेड माहौल के साथ हमें अपनी जड़ों से जितना विमुख किया जा सकेगा, उतना ही मार्केट के ज़रिए हम कैप्‍चर हो सकेंगे यानि उसके Addicted Consumer बन सकेंगे।

मार्केटिंग के इसी घमासान के बीच 21 जून को योग दिवस मनाया जा रहा है, देश से लेकर विदेश तक योग की माया और महिमा फैल रही है।

कितना अजीब लगता है कि अब सरकारों को हमें योग सिखाना पड़ रहा है, योग जो घर-घर में सूर्य प्रणाम और सूर्य को अर्घ्‍य से सूर्यासन तक अपना विस्‍तार पाता था, आज उसी योग के माध्‍यम से शरीर को स्‍वस्‍थ रखने की अपील सरकारों को करनी पड़ रही है। इस 21 जून के आते आते तो योग पर रोजाना लेक्‍चर भी होंगे और संकल्‍प भी लिए जाऐंगे मगर 21 जून के बाद अगले वर्ष की 21 जून तक जिंदगी फिर उसी ढर्रे पर आ जाएगी ज़िंदगी… जड़ों से कटने का इससे बड़ा और वीभत्‍स उदाहरण दूसरा कोई हो सकता है क्‍या।
यह हमें पुरातन कथाओं में सुनाया जाता रहा है कि जो पौधे हमेशा आसमान की ओर ऊर्ध्‍वगति से बढ़ते दिखाई देते हैं उनकी जड़ें उन्‍हें उतना ही अधिक मजबूती के साथ पृथ्‍वी से जोड़े रखती हैं इसीलिए वे अपना वर्तमान और भविष्‍य दोनों ही पृथ्‍वी और आकाश से पोषित करते हैं। तभी पौधों को वृक्ष बनने के लिए किसी मार्केटिंग की जरूरत नहीं पड़ती।

आज दो शोध रिपोर्ट पढ़ीं, एक में कहा गया है कि ”Dirt is Good” और दूसरी में बताया गया कि ”Sleep Therapy” से वजन कम होता है। दोनों ही रिपोर्ट हमें उन जड़ों की याद दिलाती हैं जिसमें धूल में खेलना बच्‍चों का शगल माना जाता था और बच्‍चे धूल में खेल कर ही बड़े हो जाते थे बिना किसी क्रोनिक डिसीज के। विडंबना देखिए कि अब लाखों रुपए शोध पर खर्च कर यह बताया जा रहा है कि बच्‍चे यदि धूल में खेलेंगे तो उन्‍हें एलर्जी, अस्‍थमा, एक्‍जिमा और डायबिटीज जैसे रोग नहीं होंगे।

दूसरी शोध रिपोर्ट कहती है कि अच्‍छी नींद से वजन कम होता है, ये बिल्‍कुल नाक को घुमाकर पकड़ने वाली बात है। अच्‍छी नींद के लिए बहुत आवयश्‍क है शारीरिक मेहनत करना और जब व्‍यक्‍ति शारीरिक तौर पर मेहनत करेगा तो पूरे शरीर की मांसपेशियां थकेंगीं, निश्‍चित ही मानसिक तौर पर भी थकान होगी और नींद अच्‍छी आएगी। नींद अच्‍छी आएगी तो मोटापा हावी नहीं होगा। हास्‍यास्‍पद लगता है कि जब ऐसी रिपोर्ट्स को ”शोधार्थियों की अनुपम खोज” कहा जाता है।

इन दोनों ही शोधकार्यों पर मुनव्‍वर राणा के ये अशआर बिल्‍कुल फिट बैठते हैं कि-

”हंसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते,
बच्चे हैं तो क्यों शौक से मिट्ठी नहीं खाते।

सो जाते हैं फुटपाथ पे अखबार बिछाकर,
मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।।”

बहरहाल, अपनी जड़ों से दूर भागते हम लोग इन शोधकार्यों के बूते अपना जीवन जीने पर इसलिए विवश हुए हैं कि हमने योग और पारंपरिक जीवनशैली से पूरी तरह दूरी बना ली है। अब उस तक वापस लौटने के लिए बाजार का सहारा लेना पड़ रहा है, नींद की गोलियां और फैटबर्निंग टैबलेट्स लेनी पड़ रही हैं। बच्‍चों को अस्‍थमा-डायबिटीज जैसी बीमारियां हमारी ही देन है।

इससे भी ज्‍यादा शर्मनाक बात ये है कि योग करने और स्‍वस्‍थ रहने लिए सरकारों को आगे आना पड़ रहा है। अभी सिर्फ देरी हुई है, दूरी नहीं बनी…इसलिए अब भी समय है कि हम अपनी जड़ों की ओर… अपनी पारंपरिक जीवन शैली की ओर लौट लें, आधुनिकता से जिऐं मगर इसके दास ना बनें तभी तो योग शरीर के साथ मन को भी स्‍वस्‍थ रख पाएगा, वरना बाजार तो हमें कैप्‍चर करने को करोड़ों के वारे-न्‍यारे कर ही रहा है ताकि हम उसके सुरसा जैसे मुंह में समा जाएं।