पित्तरों के प्रति श्रद्धा का प्रतीक श्राद्ध

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परमजीत कौर कलेर

shraddha

इंसान जब पैदा होता है तभी से शुरू हो जाता है  रीति रिवाजों को मनाने का सिलसिला….जो ताउम्र चलता रहता है …. अगर कह लिया जाए कि मौत के बाद भी कुछ पर्व मनाए जाते हैं तो कहना गलत न होगा । जिससे हमारे पूर्वज खुश होकर हमें आशीर्वाद देते हैं आज हम जिस भी मुकाम पर  हैं वो हैं तो सिर्फ अपने पूर्वजों की बदौलत।हिन्दू धर्म के अनुसार तो कोई भी शुभ कार्य करने से पहले हम अपने पूर्वजों या माता पिता का आर्शीवाद लेना नहीं भूलते। मृत्यु  के बाद भी  पितरों का आर्शीवाद बना रहे इसके लिए हम करते हैं श्राद्ध। ऐसा भी माना जाता है कि जो व्यक्ति अपने पितरों का श्राद्ध करता है वो पापों से मुक्त तो होता ही है वहीं वो परमगति को भी प्राप्त करता है। यही नहीं पित्तरगण श्राद्ध से सन्तुष्ट होकर श्राद्ध करने वालों को लम्बी उम्र , धन , सुख और मोक्ष प्रदान करते हैं।ब्रहम पुराण के अनुसार श्राद्ध न करने से पितरों को तो दुख होता ही है साथ ही श्राद्ध न करने वालों को कष्ट का सामना करना पड़ता है। श्राद्ध भी दो प्रकार के होते हैं पिंडदान और ब्राहमण भोजन। ऐसा माना जाता है कि जो लोग मृत्यु के बाद  देव लोक या पित्तर लोक में पहुंचते हैं वो ब्राहमणों की और से उचारण किए गए  मंत्रों के माध्यम से श्राद्ध के स्थान पर आकर ब्राहमणों के जरिए भोजन करते हैं। इस संसार में हम पर किसी का कर्ज है तो वो हैं हमारे माता पिता। क्यों कि माता पिता के बगैर तो हम किसी काम के नहीं। पितरों से अभिप्राय है मृत पूर्वजों से है। जो इस लौकिक संसार से जा चुके माता , पिता, दादा, दादी से है। अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक तर्पण देने का पर्व पितृ पक्ष कहलाता है।

आश्विन मास के पन्द्रह दिन पितृपक्ष के नाम से जाने जाते हैं।इन पन्द्रह दिनों तक लोग अपने पितरों को जल देते हैं और उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं पितरों का कर्ज श्राद्ध से चुकाया जाता है।  मान्यता है कि आश्विन मास के कृष्णपक्ष में यमराज सभी पितरों को अपने यहां छोड़ देते हैं ताकि वो अपनी संतान से विधिपूर्वक भोजन कर सकें।इस माह में जो श्राद्ध नहीं करता उनसे अतृप्त होकर पितर श्राप देकर चले जाते हैं यही नहीं आने वाली पीढ़ियों को भी भारी कष्ट झेलना पड़ता है। जिस तिथि में पूर्वजों का निधन होता है उसी तिथि में पिंडदान किया जाता है, जिससे मृतक आत्माओं को शांति प्राप्त होती है।पिंडदान खीर, खोए या जौं के आटे का किया जा सकता है, जिसमें खीर का पिंडदान सबसे अहम माना जाता है। श्राद्ध के समय घर का मुखिया सूर्य की ओर मुंह करके अपने पितरों को याद करता हुआ तर्पण करता है। तर्पण में फल , फूल , दूब चावल को इस्तेमाल किया जाता है। श्राद्ध को हर कोई करता है हमारे कहने का मतलब है कि अमीर गरीब हर कोई। अमीर लोग तो बढ़िया पकवान बनाकर अपने पूर्वजों को खुश करते है जबकि गरीब भी अपने पूर्वजों को खुश करने के लिए अपनी श्रद्धा के अनुसार श्राद्ध करते हैं। जैसे साधारण खाना बनाकर कुत्ते या कौवों को डाल दिया जाता है या उसे कोठे पर रख दिया जाता है। कौवों और पीपल को पितरों का प्रतीक माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ ही है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए……पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर प्रसन्न तो रहते ही हैं वहीं पितरों का पिंडदान करने वाला लम्बी आयु , यश , सम्मान , सुख साधन के अलावा धन की भी कोई कमी नहीं रहती।

श्राद्ध में पितरों को आशा होती है कि उनके पुत्र पौत्रादि हमें पिंडदान और तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे इसी लिए पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं, इस लिए हर एक को पितृपक्ष में श्राद्ध जरूर करना चाहिए।श्राद्ध के दिनों में कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहिए शादी विवाह तो इन दिनों में बिल्कुल नहीं किए जाते इन दिनों में कोई खरीददारी नहीं की जाती।हमारे धर्म शास्त्रों में भी कई कार्यों पर प्रतिबंध लगाया गया है इन दिनो कुछ खास कार्य ही किए जाने चाहिए… ऐसा माना जाता है कि अगर हमारे पितर हम से प्रसन्न नहीं होंगे तो भगवान भी हम पर खुश नहीं होंगे और हमें कोई फल नहीं मिलेगा। इसलिए पितरों को प्रसन्न रखने के लिए इन दिनों न करने वाले कार्यों से दूरी ही बनाकर रखनी चाहिए। इन दिनों हमें खान पान का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इन दिनो पान नहीं खाना चाहिए। बॉडी मसाज या तेल से मालिश नहीं करना चाहिए। हो सके तो किसी और का खाना भी नहीं खाना चाहिए। अगर हम इन बातों पर गौर नहीं करते तो हमें कई दुख भोगने पड़ सकते हैं।  इन दिनों खाने में चना , मसूर , काला जीरा काले उड़द , काला नमक राई , सरसों भी इस्तेमाल नहीं करनी चाहिए। खाने में इनके उपयोग से परहेज कीजिए।श्राद्ध के दिनों में  हो सके तो ज्यादातर तांबे के बर्तनों का इस्तेमाल करें।पितरों का श्राद्ध कर्म या पिंडदान  करते समय कमल , मालती, जूही पम्पा फूल अर्पित करें। श्राद्धकाल में पितरों के मंत्र का जप करें।इस तरह पितरों के मंत्र जप करने से पितरो समेत देवी देवता भी खुश होंगे।

भारतीय संस्कृति में अपने पूर्वजों को याद करने का सबसे उत्तम पर्व श्राद्ध है। बड़े बुजुर्ग, औरतें आदमी सभी श्रद्धा के इस पर्व को बड़ी ही शिद्दत के साथ मनाते हैं।साल में एक बार अपने पूर्वजों को याद कर लेने से बढ़कर ….और पुन का कार्य क्या हो सकता है।यदि किसी गरीब  को इन दिनों भोजन करा दिया जाए तो इससे बढ़कर और क्या हो सकता है। उसकी आत्मा आपको हजारों दुआएं देगी इस लिए इन दिनों दान का भी विशेष महत्व होता है।इन दिनों दान के साथ साथ , दीपदान भी किया जाता है श्राद्ध शब्द जो जुड़ा है श्रद्धा से ,जब तक मन अपने पितरों के प्रति श्रद्धा नहीं तब तक श्राद्ध कराने का कोई मतलब ही बनता।श्राद्ध करने से पितरगण सन्तुष्ट होते हैं….प्रसन्न होते हैं ….और माना जाता है कि श्राद्ध करने वालों को हमेशा खुशहाल रहने का आशीर्वाद देते हैं। पहला दिन पूर्णिमा और आखिरी दिन अमावस्या का होता है इस तरह पूरे सोलह दिन का पितृपक्ष होता है।        जब तक श्रद्धा नहीं है,श्राद्ध का कोई मतलब नहीं होता है.पितृ पक्ष में पहला दिन पूर्णिमा और अंतिम दिन अमावस्या का होता है,इस तरह सोलह दिन का पितृ पक्ष होता है.इसलिए हर एक को अपनी हैसियत के मुताबिक ….. और  मार्ग में कोई अड़चन न आए ….इसके कल्याण के लिए श्राद्ध करने चाहिए।

आधुनिकता का इस चकाचौंध में श्राद्ध भी मानो दिखावा मात्र बनकर रह गए हैं ……अगर गौर किया जाए पुरानी बातों पर तो इन में भी छिपा है जिन्दगी का गूढ़ रहस्य ….

जीवित श्राद्ध न पूजै कोई

मुए श्राद्ध कराई

कहने का मतलब है कि आज की पीढ़ी जीते जिए अपने पूर्वजों को भले ही न पूछे…. और उन्हें छोड़ देती हैं धक्के खाने के लिए वृद्ध आश्रम में…. मगर लोक लाज के भय से वो उनका श्राद्ध कराना नहीं भूलते। जो बच्चे जीते जिए अपने पूर्वजों की सेवा नहीं करते ऐसे लोगों को श्राद्ध कराने का भी लाभ नहीं मिल सकता।श्राद्ध जिसका अर्थ ही श्रद्धा …. अगर मन में श्रद्धा भाव नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं।ऐसा श्राद्ध निर्थक है …. बेमानी है।यहां एक पुरानी कहावत आज की युवा पीढ़ी पर बिल्कुल उचित  बैठती है ……..

    जियत पिता संग , जंगम जंगा,

                                 मरत पिता पहुंचाए गंगा

                                  जियत पिता न पूछी बात

                                  मरत पिता को दाल और भात

जी हां श्राद्ध कराने का फायदा भी तभी होगा अगर हम पूरा जीवन अपने पितरों को खुश रखें….. और उनकी सेवा करें ….यहीं नहीं उनका आदर सम्मान करते हुए उन्हें अहम स्थान दें। भई विश्वास है …… और जो रीत है ….. उसे परम्परा के अनुसार हर कोई निभाता है। ऐसा भी माना जाता है कि पितरों और देवताओं की योनि ऐसी हैं ….कि वो दूर की बातों को सुन लेते हैं …….दूर से की पूजा और स्तुति को सुनकर ही संतुष्ट हो जाते हैं । यही नहीं गंध और रस से ही उनकी भूख मिट जाती है।जैसे मानव का आहार अन्न है, वैसे पितरों का आहार अन्न का सीर तत्व है।जिस प्रकार गौशाला में बिछुड़ी मां को बछड़ा किसी न किसी तरह ढूंढ लेता है……ठीक उसी प्रकार  पंडितो की और से खाया भोजन, मंत्रों के उच्चारण का लाभ पितरों को पहुंचता है।

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