नेपाल में वामपंथ को किनारे लगाने लगे हैं लोग

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श्रीनिवास आर्य

16 सितंबर 2008 को प्रसिद्ध माओवादी नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ का प्रधानमंत्री के रूप में भारत आगमन कई मायनों में ऐतिहासिक अवसर में तब्दील हुआ। बतौर प्रधानमंत्री प्रचंड पहली बार भारत आ रहे थे। सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख नेता उन्हें देखना भी चाहते थे और वार्तालाप का हिस्सा भी बनना चाहते थे। शरद यादव के तुगलक रोड स्थित आवास पर उनके स्वागत-सत्कार का कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें नीतीश कुमार, वीपी सिंह, इंद्र कुमार गुजराल, मुलायम सिंह यादव, मुरली मनोहर जोशी, शरद पवार, दिग्विजय सिंह, अहमद पटेल, प्रकाश कारत, सीताराम येचुरी, डी राजा समेत तमाम नेता उपस्थित थे। प्रचंड के साथ उनकी पत्नी सीता देवी और उनके विश्वस्त साथी बाबूराम भट्टराई भी थे।

वहां सबसे सारगर्भित संबोधन गुजराल द्वारा दिया गया। कभी लाहौर में अपने छात्र जीवन के दौरान वे स्वयं भी मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित रहे और भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े शायर फैज अहमद फैज के प्रिय छात्रों में भी शामिल थे। गुजराल ने नेपाली क्रांति का अभिनंदन करते हुए कहा, ‘यह बदलाव नहीं, क्रांति है। हमने लेनिन, माओ की क्रांतियों का उल्लेख पुस्तकों द्वारा ही प्राप्त किया है, लेकिन नेपाल की क्रांति को रोज-रोज देखते हुए हम रोमांचित भी हैं और आश्चर्यचकित भी।’ उन्होंने प्रचंड की तुलना फिदेल कास्त्रो और हो-ची-मिन्ह से कर दी। प्रचंड का संबोधन संक्षिप्त, लेकिन अर्थपूर्ण था। उन्होंने बताया कि अपने निष्कासित जीवन के संघर्षपूर्ण 10 वर्ष उन्होंने भारत में ही गुजारे हैं और भारत तथा नेपाल के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंधों की नजाकत से परिचित हैं। वे इन रिश्तों को और ऊंचाइयों की तरफ ले जाना चाहते हैं।
मनमोहन सरकार हालांकि शुरू से ही इस बदलाव को लेकर असहज महसूस करती रही। वह नेपाली कांग्रेस और राजशाही के शासनकाल के दौरान ज्यादा सहजता महसूस करती थी। संदेह और अविश्वास के इसी वातावरण में प्रचंड की पहली विदेश यात्रा का ऐलान हो गया कि वे शंघाई (चीन) में होने वाले किसी समारोह में भाग लेने जाएंगे। इसको लेकर भारत सरकार का शक और तेज हो गया। नेपाली कांग्रेस के नेता और भारत के करीबी माने जाने वाले गिरिजा प्रसाद कोइराला ने प्रचंड के शपथ ग्रहण समारोह से दूरी बनाकर इसे और संदेहास्पद कर दिया था। यद्यपि शेर बहादुर देउबा समारोह में पूरे समय उपस्थित रहे। माओवादी सैनिकों के पुनर्वास और नेपाली सेना के प्रति प्रचंड सरकार का रुख भी नकारात्मक संदेश देने में कामयाब रहा।

माओवादी ‘जन मुक्ति सेना’ को नेपाली सेना का आवश्यक अंग बनाने पर उनका कहना था कि क्रांति के दौरान मुक्ति आंदोलन में इस सेना ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है, जबकि शाही सेना जनता के विरोध को कुचलने में लगी थी। इस प्रकार की परिस्थिति उन सभी देशों में उत्पन्न हुई है जहां सशस्त्र क्रांति के द्वारा सत्ता परिवर्तन हुए हैं।
इतना ही नहीं, सत्ता परिवर्तन को अधिक दिन नहीं हुए थे कि एक सनसनीखेज घटनाक्रम के दौरान प्रचंड ने सेना प्रमुख को हटा दिया। इस फैसले को दिल्ली से काठमांडू तक के प्रतिष्ठानों द्वारा ठीक से स्वीकार नहीं किया गया। कोइराला को राष्ट्रपति पद से दूर रखकर भी नकारात्मक संदेश भेजे गए।
नेपाल के माओवादी समेत कई संगठनों द्वारा भारत-नेपाल संधि पर भी प्रश्न उठाए जाने लगे। कहा गया कि किस प्रकार यह संधि नेपाली स्वाभिमान को चुनौती दे रही है। इन सबके परिणामस्वरूप प्रचंड की चारों तरफ से ऐसी घेरेबंदी हुई कि अंततः उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। उनके उत्तराधिकारी बाबूराम भट्टराई भी अधिक समय तक सत्ता में नहीं रह सके। क्रांतिकारी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के अभाव में यह पार्टी भटकाव तथा विभाजन का शिकार होती चली गई। स्वाभाविक रूप से उसकी लोकप्रियता में कमी आई और पार्टी आगामी चुनावों में सत्ता से दूर होती गई। पिछले चुनावों से दोनों कम्युनिस्ट धड़ों में एकता प्रयास पुनः सफल हुए, जब प्रचंड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी और केपी शर्मा ‘ओली’ की नेपाली कम्यूनिस्ट पार्टी (एमाले) ने मिलकर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) का गठन किया।
चुनाव में इस एकीकृत दल को प्रचंड बहुमत मिला और नेपाली कांग्रेस काफी कमजोर हो गई। लेकिन ओली के दौर में फिर भारत विरोधी रुझान स्पष्ट होने लगे। नेपाल की ओली सरकार चीन से आर्थिक सहयोग के नित नए कार्यक्रम चलाने लगी। नाकेबंदी को लेकर भी नेपाल में भारत विरोधी स्वर अत्यंत मुखर हुए, लेकिन कुल मिलाकर जन-युद्ध के क्रांतिकारी अभियान से निकली क्रांति की लौ मद्धिम पड़ने लगी और ‘नया नेपाल’ बनाने का संकल्प लेकर चलने वाले खुद गलाकाट प्रतियोगिता में शामिल हो गए। राजशाही के पोषक राजाओं की तर्ज पर राजकाज संचालित होता रहा। भ्रष्टाचार और वैभवशाली जीवन शैली को लेकर काडर और जनता में मोहभंग होने लगा। ओली स्वयं को पार्टी और सरकार का मालिक मानकर चल रहे हैं। पार्टी और सरकार का संबंध भी अब लगभग समाप्त हो चला है। नेपाल आज आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार नेपाल में बाहर से आने वाले पैसे में 14% की गिरावट आने जा रही है।

लंबे अरसे बाद नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावाली भारत के दौरे पर हैं। वार्ता यद्यपि सीमा मुद्दे पर केंद्रित है, लेकिन प्रधानमंत्री ओली ने पहले ही भारत पर आरोप मढ़ने शुरू कर दिए हैं कि भारत में कुछ लोग उन्हें पद से हटाने की साजिश में लगे हैं और नेपाल अपनी संप्रभुता, समानता को लेकर कोई समझौता नहीं करेगा। पर नेपाल में ओली द्वारा संसद को भंग किया जाना असंवैधानिक माना जा रहा है। नए संविधान के मुताबिक वे ऐसा कदम नहीं उठा सकते हैं। मई-जून में नए चुनाव की आहट सुनाई पड़ रही है। कम्यूनिस्ट पार्टी में विभाजन का फायदा शेरबहादुर देउबा के नेतृत्व वाली नेपाली कांग्रेस उठाने का प्रयास करेगी और मधेशी संगठन भी क्षेत्रीय अस्मिता का नारा देकर क्षेत्र में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करेंगे, ऐसा राजनीति के जानकारों का मानना है।

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