मूल भारतीय हैं, पूर्वोत्तर के लोग

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-प्रमोद भार्गव-   NORTH EAST INDIA

देश की राजधानी दिल्ली में अरूणाचल प्रदेश के कांग्रेस विधायक निदो पवित्र के बेटे निदो तनियान के विलक्षण नाक-नक्षश पर कसी फब्तियों पर उठा विवाद निदो की निर्मम हत्या पर खत्म हुआ। यह घटना बेहद दुखद और मन-मस्तिष्क को झकझोरने वाली है। अक्सर पूर्वोत्तर के भारतीयों की विशेष शारीरिक बनावट, चेहरे-मोहरे और विचित्र अंदाज में काढ़े गए बालों की शैली को लेकर शेष भारत के लोग उन्हें चिंकी और चीनी कहकर चिढ़ाते व अपनानित करते हैं। दिल्ली के लाजपत नगर में निदो के साथ घटी घटना में उसकी हेयर स्टाइल पर कुछ दुकानदारों ने फब्ती कसी थी। इस कटाक्ष की प्रतिक्रियास्वरूप विवाद इतना गहराया कि स्थानीय दुकानदारों ने निदो की पीट-पीटकर हत्या कर दी। अरूणाचल प्रदेश के लोकसभा सासंद ताकम संजोय ने कहा है कि आरोपियों के विरूद्ध कड़ी कार्रवाई नहीं की गई तो यह माना जाएगा कि पूर्वोत्तर के छोटे राज्यों के लोगों के साथ शेष भारत में भेदभाव बरता जा रहा है। निदो की व्यक्गित जीवन-शैली पर तल्ख टिप्पणी और फिर सांसद का गैर-जिम्मेवार बयान इस तथ्य के प्रतीक हैं कि हम अपनी भौगोलिक स्थिति और इतिहास सम्मत जानकारियों से कितने अनजान हैं। ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि हम अपनी भौगोलिक,सांस्कृतिक व ऐतिहासिक अस्मिता और सीमाई संप्रभुता जोड़ने वाली संस्कृत भाशा और लोक व दंत कथाओं से दूर होते चले जा रहे हैं।
निदो की हत्या के बाद दिल्ली में पूर्वोत्तर के सातों राज्यों के छात्र -छात्राएं व अन्य लोग दोषियों की गिरफ्तारी के लिए धरने पर बैठे हुए थे। इसी धरने पर एक हिन्दी समाचार चैनल ने इस मुद्दे पर टॉक षो भी आयोजित कर डाला। शो में पूर्वोत्तर के कई विधार्थी उद्घोषिका द्वारा सवाल करने पर अपनी पहचान को रामायण और महाभारत के पात्रों से जोड़ रहे थे। एक छात्र ने इतिहास की पाठ्य पुस्तकों पर सवाल खड़ा करते हुए यहां तक कहा कि पूर्वोत्तर के राज्य का भूगोल व इतिहास किसी भी पाठ्य पुस्तक में षामिल नहीं है? जाहिर है, इन बुनियादी प्रश्नों के उत्तर मंच पर मौजूद तीन विशेषज्ञों में से किसी के पास नहीं थे। इस टॉक-शो में उठाए गए अनुत्तरित प्रष्न इस बात का संकेत हैं कि हमें अपने देश की उस ज्ञान परंपरा से जुड़ने की जरूरत है, जिसने इतने बड़े भारतीय भू-भाग को अनेक विविधता के बावजूद जातीय स्वाभिमान एवं सांस्कृतिक एकरूपता से जोड़ा हुआ है। इस परिपेक्ष्य में जरूरी है कि देश में बढ़ रही खंडित मानसिकता को पाटने के लिए हम प्राचीन षास्त्रीय परंपरा के पुनरूद्धार की पहल करें ?
आज पूर्वोत्तर के जिन सात राज्यों को सात बहनों के नाम से हम जानते हैं, वे राज्य पश्चिम बंगाल और असम के विभाजन के फलस्वरूप स्वतंत्र रूप से अस्त्तिव में आए हैं। ये छोटे राज्य मणिपुर, मेघालय अरूणाचल प्रदेश, नागालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम और मिजोरम हैं। प्राग्तिैहासिक काल के पन्नों को खंगालें तो पता चलता है कि भगवान परशुराम और कार्तवीर्य अर्जुन के बीच जो भीषण युद्ध हुआ था, उसके अंतिम आततायी को परशुराम ने अरूणाचल प्रदेश में जाकर मारा था। अंत में यहीं के ‘लोहित क्षेत्र‘ में पहुंचकर ब्रह्मपुत्र नदी में अपना रक्त-रंचित फरसा धोया था। बाद में स्मृतिस्वरूप यहां पांच कुण्ड बनाए गए, जिन्हें समंतपंचका रूधिर कुण्ड कहा जाता है। ये कुण्ड आज भी अस्तित्व में हैं। इस क्षेत्र में यह दंतकथा भी प्रचालित है कि इन्हीं कुण्डों में भृगुकुल भूशण परषुराम ने युद्ध में मारे गए योद्धाओं का तर्पण किया था। परशुराम यही नहीं रूके, उन्होंने शुद्र और इस क्षेत्र की जो आदिम जनजातियां थीं, उनका यज्ञोपवीत संस्कार करके उन्हें ब्रह्मण बनाया और सामूहिक विवाह किए।
महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण ने पूर्व से पश्चिम की सामरिक और सांस्कृतिक यात्रा की। द्वारिका एवं माणिपुर में सैन्य अड्डे स्थापित किए। इसीलिए इस पूरे क्षेत्र की जनजातियां अपने को रामायण और महाभारत काल के नायकों का वंशज मानती हैं। यही नहीं ये अपने पुरखों की यादें भी जीवित रखे हुए हैं। सूर्यदेव को आराध्य मानने वालीं अरूणाचल की 54 जनजातियों में से एक मिजो-मिष्मी जनजाति खुद को भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी रूक्मणी का वंशज मनती हैं। दंतकाथाओं के अनुसार, आज के अरूणाचल क्षेत्र स्थित भीष्मकनगर की राजकुमारी थीं। उनके पिता का नाम भीष्मक एवं भाई का नाम रूक्मंगद था। जब कृश्ण रूक्मणी का अपहारण करने गए तो रूक्मंगद ने उनका विरोध किया। परमवीर योद्धा रूक्मंगद को पराजित करने के लिए कृश्ण को सुदर्शन चलाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस पर रूक्मणि का ह्रदय पसीज उठा और उन्होंने कृष्ण से अनुरोध किया कि वे भाई के प्राण न लें, सिर्फ सबक सिखाकर छोड़ दें। तब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र को रूक्मंगद का आधा मुंडन करने का आदेश दिया। रूक्मंगद का यही अर्द्धमुंडन आज सेना के जवानों की ‘हेयर स्टाइल‘ मानी जाती है। मिजो-मिष्मी जनजाति के पुरूष आज भी अपने बाल इसी तरह से रखते हैं। दिल्ली में निदो नामक जिस युवक के बालों पर नोकझोंक हुई थी, उसके बाल इसी परंपरागत तर्ज के थे। वास्तव में वह भगवान कृष्ण द्वारा निर्मित परंपरा का निर्वाह कर रहा था, जिस कृष्ण की पूजा उत्तर भारत समेत समूचे देश में होती है। यदि वाकई देश के लोग इस लोककथा से परिचित होते तो शायद निदो पर जानलेवा हमला ही नहीं हुआ होता?
मेघालय की खासी जयंतिया जनजाति की आबादी करीब 13 लाख है। यह जनजाति आज भी तीरंदजी में प्रवीण मानी जाती है। किंतु हैरानी यह है कि धनुष-बाण चलाते समय ये अंगूठे का प्रयोग नहीं करते। ये लोग अपने को एकलव्य का वंशज मानते हैं। यह वही एकलव्य है, जिसने द्रोणाचार्य के मागंने पर गुरूदक्षिणा में अपना अंगूठा दे दीया था। इसी तरह नागालैंड के शहर दीमापुर का पुराना नाम हिडिंबापुर था। यहां की बहुसंख्यक आबादी दिमंशा जनजाति की है। यह जाति खुद को भीम की पत्नी हिडिंबा का वंशज मानती है। दीमापुर में आज भी हिडिंबा का वाड़ा है। यहां राजवाड़ी क्षेत्र में स्थित शतंरज की बड़ी- बड़ी गोटियां पर्यटकों के आर्कशण का प्रमुख केंद्र्र हैं। किवदंती है कि इन गोटियों से हिडिंबा और भीम का बाहुबली पुत्र वीर घटोत्कच शतरंज खेलता था।
म्यांमार की सीमा से सटे राज्य माणिपुर के जिले उखरूल का नाम उलूपी-कुल का अपभ्रंश माना जाता है। अर्जुन की एक पत्नी का नाम भी उलूपी था जो इसी क्षेत्र की रहने वाली थी। तांखुल जनजाति के लोग खुद को अर्जुन और उलूपी का वंशज मानते हैं। ये लोग मार्शलआर्ट में माहिर माने जाते हैं। अर्जुन की दूसरी पत्नी चित्रांगदा भी मणिपुर के मैतेयी जाति से थी। यह जाति अब वैष्णव बन चुकी है। असम की बोडो जनजाति खुद को सृष्टि के रचीयता ब्रह्मा का वंशज मानती है। असम के ही पहाड़ी जिले कार्बी आंगलांग में रहने वाली कार्बी जनजाति स्वंय को सुग्रीव का वंशज मानती है। देश के तथाकथित मार्क्सवादी प्रगतिशील इतिहासकार रामायण और महाभारत कालीन पात्रों व नायकों को भले ही मिथक मानते हों,लेकिन यह मिथकियता पूर्वोत्तर राज्यों के रहवासियों को रक्त व धर्म आधारित सांस्कृतिक एकरूपता से जोड़ती है तो यही वह स्थिति है, जिसका व्यापाक प्रचार संर्कीण सोच के लोगों को खंडित मानसिकता से उबार सकता है। हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों, लोक और दंत कथाओं में ज्ञान के ऐसे अनेक स्रोत मिलते हैं,जो हमें सीमांत प्रदेषों में भी मूल भारतीय होने के जातीय गौरव से जोड़ते हैं। लिहाजा जरूरी है कि हम सांस्कृतिक एकरूपता वाली इन कथाओं को पाठ्यपुस्तकों में शामिल करें ? पूर्वोत्तर राज्यों में रक्तजन्य जातीय समरसता के इस मूल-मंत्र से जातीय एकता की उम्मीद की जा सकती है।

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  1. लेख बहुत सटीक है .
    हमें अपने अतीत का आदर करना है . ये पूर्वांचल के हमारे भाई बहिन हों या भारत के किसी भी कोने के , हम को कंधे से कंधा मिलाकर साथ देना होगा .
    आखिर उन की पहचान जरूरी हो गयी है कि हत्यारे कौन थे . आगे जनता केवल दर्शक न रहे . इस तरह की घटनाओं में बीच में आना सीखे , कोइ पुलिस का पचड़ा नहीं होगा डरे नहीं . डरने से राष्ट्रीय एकता कमजोर होती जा रही है . इस पारिवारिक और देश की क्षति की कौन भरपाई करेगा .
    क्षेत्रपाल शर्मा , शांतिपुरम सासनी गेट अलीगढ़ 202001

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