जनता की जनवादी क्रांति से ही भारत को चीन पर बढ़त हासिल हो सकती है।

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श्रीराम तिवारी

विगत दिनों भारत के प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने भुवनेश्वर में स्वदेशी तकनीकी को बढ़ावा देने का ऐलान किया और इस क्षेत्र में चीन की बढ़त को स्वीकार किया।अब यक्ष प्रश्न ये है कि क्या अमेरिकी मंत्रनाओं से चीन आगे बढ़ा है? भारत किन कारणों से पिछड़ा है ? इन सवालों के उत्तर जाने बिना कोई निदान सम्भव नहीं।भारत चीन से या अमेरिका से केवल नीतियों में अंतर के कारण नहीं पिछड़ा है, बल्कि इस् घोर राष्ट्रीय दीनता के प्रमुख कारण ये हैं:-

[१] भयानक शोषण, अशिक्षा ,अन्धविश्वास,सरकारी क्षेत्र की मक्कारी

[२] रिश्वतखोरी ने भारत को इस मुकाम पर ला खड़ा किया है कि उसके बिना पत्ता भी नहीं हिल -डुल सकता।

[३] विदेशी मिशनरियों द्वारा आदिवासियों और उत्तर पूर्व के भारतीयों को राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग करने के कुटिल मंसूबे।

[४]आंतरिक अलगाववाद।एवं पाकिस्तानी हुक्मरानों का कश्मीर के मामले में भारत के साथ स्थाई किस्म का शत्रुतापूर्ण व्यवहार

[५] भारत की आधुनिक पीढी के रूप में मध्यवित्त वर्गीय जनता का राजनीती के प्रति वितृष्णा पूर्ण नजरिया।

[६]आजादी के तत्काल बाद से ही गरीब -अमीर के बीच के फासले में उत्तरोत्तर बृद्धि होती चली गई और जनता के संघठित संघर्षों से यदि थोडा बहुत सुधार हुआ भी है तो उसकी उपलब्धि जातीय आधारित आरक्षण तथा पहुँच वालों के उदर में समा गई।

बाकी जो बचा तो अफसर और सत्ताधारी नेता ले उड़े।आम जनता के हिस्से ठन-ठन गोपाल प्रस्तुत ।इन ६ कारणों के अलावा भी अन्य कारण हो सकते हैं किन्तु बहरहाल इस आलेख की विषय वस्तु मात्र कारणों की खोज करना ही नहीं बल्कि किसी ठोस क्रांतिकारी आवश्यकता को रेखांकित करना है।

भारत के पढ़े लिखे मध्यम वर्ग की आदत है कि पश्चिमी विकसित राष्ट्रों की नक़ल करके गौरवान्वित होना ।ये आदत कोई नई या अनहोनी जैसी चीज नहीं है।वस्तुत एक सह्श्त्र वर्ष की गुलामी की मानसिकता से यही वर्ग नैतिकता विहीन श्रीहीन और पौरूष विहीन हुआ था।इसके रीढ़ विहीन हो जाने का परिणाम ये हुआ कियह वर्ग देश की तमाम विज्ञान सम्मत विरासतों,सामाजिक -आर्थिक-चारित्रिक परम्पराओं और नैतिक मूल्यों को जमीन दोज़ करते हुए सर्व आयातित संसाधनों के साथ-साथ नीतियाँ को भी उन्ही राष्ट्रों से मुफ्त में प्राप्त करने चला,जिनके स्वार्थों ने भारत को न केवल गुलाम बनाया अपितु सदियों तक बुरी तरह लूट खसोट भी की।

चीन में एक भी भिखारी नहीं,एक भी अनिकेत [बेघर]नहीं एक भी शिक्षित बेरोजगार नहीं जबकि चीन की तमाम जनता का ७० फीसदी हिस्सा बूढा हो चला है ,वहां कामगारों से पेंशनर्स की संख्या ज्यादा हो चुकी है फिर भी सरकारी या गैरसरकारी दोनों ही तरह के चीनी कामगारों को पेंशन सुविधा का संवैधानिक अधिकार है। जबकि भारत में सिर्फ सरकारी क्षेत्र के सेवा निवर्त्त्कों – जो की देश की जनता का मात्र २।०५% है -पेंशन दी जा रही है।चूँकि निजी क्षेत्र में ;खास तौर से आई टी सेक्टर और मीडिया क्षेत्र में सीनियर सिटीजन को पेंशन देने का न तो कोई सम्वैधानिक प्रावधान है और न ही इस शोषित युवा वर्ग की कोई संगठित संघर्ष की तैयारी है।आवास सुरक्षा या खाद्द्यान सुरक्षा का तो केवल सपना ही देखा जा रहा है।

आज़ादी के उपरान्त जिन आर्थिक नीतियों और अंतर्राष्ट्रीय नीतियों का भारत ने अनुशरण किया कमोवेश उनमें राष्ट्रीय स्वाभिमान और भारतीय आत्मावलोकन विद्यमान हुआ करता था।आपातकाल के बाद सत्ता में जनता पार्टी के आने से लगा की भारत ने लोकतंत्रात्मकता में एक और पग आगे बढाया है किन्तु दरसल यह एक भावुक तथा अल्पकालीन मृग मरीचिका ही सावित हुआ ।गैर कांग्रेसवाद के नाम पर सिंदीकेटों,जनसंघियों,समाजवादियोंऔर तत्कालीन तमाम गैर कांग्रेसी गैर वामपंथी दलों एवं ग्रुपों ने ’जनता पार्टी’ नामक जो खिचडी पकाई थी वो भारत के तात्कालिक हित साधने में तो कुछ हद तक सफल रही किन्तु गैर कांग्रेसी मानसिकता और निरंतर विपक्ष में रहने की आदत के सिंड्रोम से पीड़ित तथा इंदिराजी की लोकप्रियता से भयाक्रांत जनता पार्टी में उसके अपने धडों में घोर द्वन्द छिड़ जाने से वो तथाकथित पहली गैरकांग्रेसी सरकार असमय ही काल कवलित हो गई थी ।जनता पार्टी के धडों में जिन मुद्दों पर घमासान छिड़ा था उनमें से तीन मुद्दे आज भी भारतीय राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं। [१]राष्ट्रीय स्वयं सेवकों का गैर राजनैतिक संगठन आर एस एस में काम करते हुए या काम कर चुकने के बाद ’राजनीति ’ में केरियेर तलाशना,[२]राजनीति में विचारधारा बनाम जातीयवाद का नासूर।[३]वैदेशिक आर्थिक नीति और घरेलु आर्थिक मोर्चे पर कोरी शाब्दिक लफ्फाजी।

वैदेशिक आर्थिक नीतियों में तब तक कोई खराबी नहीं जब तक कि घरेलु बचतें सुरक्षित रहें,राजकोषीय घाटा सकल राष्ट्रीय आय से ज्यादा न होऔर आयात-निर्यात में उचित संतुलन हो।किन्तु जब राष्ट्रीय हितों की अनदेखी कर अंधाधुन्द निजीकरण ,अंधाधुन्द मशीनीकरण और बाज़ार की ताकतों को सिर्फ और सिर्फ मुनाफाखोरी के लिए लाइसेंस दिए जायेंगे तो आर्थिक नीति को असफल होना ही था।

सोवियत पराभव उपरान्त जब दुनिया एक धुर्वीय होकर रह गई तो अमेरिकी साम्राज्वाद के प्रभाव में अधिसंख्य दुनिया समेत भारत के दक्षिणपंथी अर्थश्स्त्रियों ने आई एम् ऍफ़ और विश्व बैंक से निर्देशित ’नयी आर्थिक नीति ’को भारत के लिए उपयुक्त समझकर चरण बध्ध लागु भी कर दिया।जिन लोगों ने इन प्रतिगामी और विनाशकारी आर्थिक नीतियों की मुक्त कंठ सेपैरवी की थी उन्ही में से एक प्रमुख हैं हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री जी और वे अब भी उन नीतियों को जबरिया देश पर थोपते चले जा रहे हैं,जिनके चलते आज का भारतीय युवालगभग विद्रोह की मुद्रा में आ चूका है।जो नीतियां अमेरिका में फेल हो गईं वे भारत का उद्धार करेंगी यह सिद्धान्त उसे स्वीकार्य नहीं।

हमारे देश केउच्च शिक्षित नौजवानअमेरिका समेत सारी दुनिया के विकसित राष्ट्रों में अपनी योग्यता का झन्डा बुलंद किये हुए हैं।यह क्यों संभव नहीं की वे स्वदेश के दीनता और दारिद्र निवारण में देश का नेत्रत्व करें?

यह तो हर कोई जानता है की भारत ही दुनिया का वो देश है जो सबसे अमीर होते हुए भी सबसे ज्यादा गरीबों की सबसे बड़ी गरीब जनसंख्या- ३० करोड़ को भूंख -कुपोषण -महामारी और घोर यंत्रणा के साथ २१ वीं शताब्दी के दुसरे दशक में भी निर्लज्जता से बनाए रखे है।किसी भी कसबे या महानगर में पूस की रातों में कडकडाती ठण्ड में सेकड़ों वेरोजगारों को फुटपाथों पर भूंख और ठण्ड दोनों को भोगते देखा जा सकता है।यह नजर देखने के लिए इंसानियत और जज्वे की नजर चाहिए।

भारत में एक बिडम्बना है की उपजाऊ जमीन जिनके पास है ;उन्ही बड़े जमींदारों के बच्चे अच्छे स्कूलों में पढने की क्षमता रखते हैं ,इसके आलावा जिनके बापजी-माताजी किसी सरकारी गैरसरकारी संसथान में मुलाजिम हैं या जो राज्यसत्ता के गलियारों तक पहुँच रखते हैं ऐसे लोग ही बेहतर शिक्षा के सोपान तक और परिणामस्वरूप सामाजिक आर्थिक और पारलोकिक आनंद के भोक्ता हो सकते हैं।इन्ही में से कोई एक आर टी आई का गवर्नर ,कोई आर्थिक सलाहकार बनता है फिर सवाल उठता है की मांग और आपूर्ती के बारे में ,गड़बड़ी क्यों है?भारत की ८० करोड़ जनता के पास मोबाइल हैं ,लगभग ४० करोड़ भारतीय गोदामों में भरे पड़े हैं और इनमें से ५० फीसदी ’मेड इन चाइना’ही हैं ,भारत में ऐसी क्या कमी है की आज तक एक भी मोबाइल देश में नहीं बन सका ।आदरणीय प्रधानमंत्री जी की सदिच्छा है की भारत भी चीन जैसा बने! तो क्या दुनिया भर के देशों की आउट डेटेड टेक्नोलाजी देश में लाने से, उनका कबाड़ा महंगे दामों पर खरीदने से,अपने राष्ट्रीय स्थापित उद्द्य्मों को देशी -विदेशी पूंजीपतियों के हाथो बेचने से वो गौरव और राष्ट्रीय स्वाभिमान हासिल हो सकेगा जो चीन ने अपनी जनता की जनवादी क्रांति की बदौलत हासिल किया है?

7 COMMENTS

  1. तिवारी जी, एक विचारणीय लेख के लिए साधुवाद. लेख का तीसरा बिंदु काफी सोचनीय है.
    प्रचुर संभावनाओं के बावजूद भारत की आम आत्मा को सच्ची प्रगति नहीं मिली है. क्योंकि ६५ सालो से नेताओं की नीतियाँ भले ही बदली हो लेकिन नीयत वही लूट-खसोट और स्विस बैंक भरने की रही है.

    • जनाब इकवाल साहिब जी का शुक्रिया,मकर संक्रांति एवं पोंगल की हार्दिक शुभकामनायें.

  2. श्रीराम तिवारी जी को इस सारगर्भित लेख के लिए बधाई.आपने राष्ट्रिय दीनता के जो कारण बताये हैं वे एकदम सही हैऔर हमें इस पर गंभीर चिंतन करना है कि हम इन सबसे निजात कैसे पायें?पर आपसे मेरी असहमति वहां हो जाती है,जहां आप चीन की परिस्थितियों से भारत की तुलना करने लगते हैं.मेरी असहमति वहाँ भी है,जहाँ आपने लिखा है कि ‘आज़ादी के उपरान्त जिन आर्थिक नीतियों और अंतर्राष्ट्रीय नीतियों का भारत ने अनुशरण किया कमोवेश उनमें राष्ट्रीय स्वाभिमान और भारतीय आत्मावलोकन विद्यमान हुआ करता था।”आजादी के बाद की हमारी राष्ट्रिय नीति और आर्थिक विकास के माप दंड से मेरे विचार में ऐसा कुछ नहीं हुआ था.मेरे विचार से तो विस्मिलाह ही गलत हुआ था.वहीं से बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार भी आरम्भ हुआ था.हमारी आरम्भिक विकास की नीतियों के त्रुटि का कारण भी हमारी नक़ल करने की प्रवृति थी.नेहरु जहां एक और पाश्चात्य सभ्यता में पले हुए थे,वहीं सोवियत संघ के साम्यवाद से भी प्रभावित थे.पाश्चात्य सभ्यता और अंग्रेजीके माहौल का यह प्रभाव रहा कि हम अपनी एक राष्ट्र भाषा नहीं बना सके.सोवियत संघ की देन हमारी बड़ी बड़ी सरकारी कम्पनियाँ हैं.आज कोई कुछ भी कहे,पर इन बड़ी बड़ी सरकारी कंपनियों ने देश के विकास को अवरुद्ध ही किया है और भ्रष्टाचार को भी बढाया है.नेहरु और विचार धारा में उनके निकटतम सहयोगी डाक्टर भीम राव आंबेडकर अपने अंग्रेजी ज्ञान और पश्चिम के चकाचौंध में यह भूल गए कि भारत गाँवों का देश है और उसका विकास गांवों की विकास पर निर्भर है.राष्ट्र भाषा के रूप में एक भाषा नहीं चुनने के कारण हममे राष्ट्रीय भावना का विकास ही नहीं हो सका ,जोआगे के किसी भी प्रकार के विकास केलिए मूल तत्व था.गलतियां होती गयीं और हम पतन के गर्त में गिरते गए. १९७७ मेंजनता पार्टी के सत्ता में आने पर लोगों को आशा की एक किरण दिखाई दी थी ,पर आपने सत्य ही कहा है कि वह भी मृग मरीचिका साबित हुई. मैंने अपने एक लेख (नाली के कीड़े प्रवक्ता १मई २०११) में जनता पार्टी के उत्थान और पतन की समीक्षा करने का प्रयत्न किया है.

    • आदरणीय आर सिंह साहब जी को मकर संक्रांति की शुभकामनाएं .मेरे आलेख पर विषद टिप्पणी हेतु साधुवाद.

  3. आदरणीय मधुसुदन जी का होसला आफजाई के लिए शुक्रिया.आपके सुझाव तो मानों ‘गागर में सागर हैं’मेरे आलेख को आपने शिद्दत से पढ़ा,टिप्पणी भी की यह मेरे लिए नितांत उत्प्रेर्नीय है.

  4. तिवारी जी बधाई।
    भारत के पिछडे पन के कारणों की मौलिक खोज की ओर संकेतकारी लेख के लिए।
    कुछ बिन्दुओंपर आपसे अलग विचार रखता हूँ, पर आपके अवलोकन के अधिकांश से सहमति प्रकट करता हूँ।
    हमारे पिछडे पन के कारण अनेक है। आपने गिनाए भी हैं।
    एक अति महत्व पूर्ण कारण है।
    भ्रष्टाचार।(आपने उल्लेख किया ही है)
    ==> एक कौटुम्बिक निवास निर्माण मैं(निर्माण अभियन्ता) यहां यु. एस. ए. में ४५ दिन में कर सकता हूँ।१ वर्ष में ८ निर्माण, के अनुपात में १० वर्ष में ८० घर बन जाते हैं।उतने ही कुटुम्बों को सुविधा। समय कम लगनेसे सस्ते भी होंगे।
    इससे विपरित मेरे भारत में ऐसा क्यों नहीं होता?
    कारण।
    (१) काम को रोक कर (लायसंस, संविदा इ.) में विलम्ब करने में अफसर रिश्वत पा कर कमाई चाहे, तो उस निर्माण को रोकने में ही उसे लाभ होता है।
    (२) फलस्वरूप –निर्माण की गति बहुत धीमी।
    (३) समृद्धी धीमी
    (४) देश की असुविधा
    (५) रिश्वत का पैसा भी निवेशक ग्राहक से ही लेगा।
    परिणाम (६) आवास महँगा।
    (७) और भारत पिछडा।
    === पूरा लेख भर जाए, इतने और भी कारण है।
    पर, इस विषय पर बिना किसी की फाईल लिए विचार रखें जाए। आपने प्रारंभ अच्छा किया।
    फिरसे बधाई-धन्यवाद।

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