भ्रमजाल में फंसी आधुनिकता की धारणा

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-अनिल अनूप 

हमारा समाज संक्रमण के जिस दौर से गुजर रहा है, उसमें हम परम्परा और आधुनिकता के बीच चुनाव के द्वंद्व में फंसे हैं. एक ओर पश्चिमी जीवनशैली का सम्मोहन है तो दूसरी ओर सांस्कृतिक अस्मिता का आग्रह है. अनिश्चय और अनिर्णय कई बार हमसे ऐसे आधारहीन, अवसरवादी, हास्यास्पद और सिद्धांतहीन समझौते करवाते हैं कि लगता है जैसे हमारा विवेक खो गया है. महिलाओं और दलितों के संदर्भ में तो यह सच है ही किंतु प्रेम और विवाह के मामले में भी हमारा रुख विसंगतियों भरा है.

यह मान लिया गया है कि विदेशी पूंजी होगी तभी विकास होगा. विकास को अपने भरोसे, अपने श्रम–कौशल द्वारा, अपने ही संसाधनों के बल पर प्राप्त किया जा सकता है—यह संकल्पना अब लुप्त होती जा रही है. हालांकि इस बात के सही–सही बहुत कम उदाहरण हैं कि जिन देशों ने विकास किया है, उनमें विदेशी पूंजी का कितना बड़ा योगदान रहा है. यहां सिंगापुर जैसे कुछ छोटे देशों को, जिनकी अर्थव्यवस्था सैलानियों के बल पर चलती हैछोड़ा जा सकता है. हम औपनिवेशक दौर की बात भी नहीं कर रहे हैं, जब तीसरी दुनिया के देशों के संसाधनों को, ताकत या कूटनीति के बल पर अपने अधीन कर लिया जाता था. यूरोपीय देशों और अमेरिका, जो आज विकासशील देशों की सूची में हैं, की प्रगति की अगर विवेचना करें तो पता चलेगा कि उसमें उनके उपनिवेशों का बहुत बड़ा योगदान है. औद्योगिक क्रांति के दौर में नए बाजारों और संसाधनों की खोज के लिए यूरोप और अमेरिका की व्यापारी कंपनियां दुनिया के विभिन्न देशों में पहुंचीं. और जहां, जितना भी उनका बस चला, अपना उपनिवेश कायम किया. फिर उनके संसाधनों से तैयार माल उन्हीं को बेचकर सालों–साल मुनाफा बटोरते रहीं. आज वैसी परिस्थितियां नहीं हैं. आर्थिक शोषण के लिए राजनीतिक उपनिवेश बनाना आवश्यक नहीं रह गया है. उपर्युक्त के आधार पर कहा जा सकता है कि विकासशील देशों में से अधिकांश ने अपनी समृद्धि–गाथा, औपनिवेशिक संपदा यानी बाहर की पूंजी के आधार पर लिखी है. अंतर केवल इतना है कि वह पूंजी न तो आमंत्रित थी, न ही स्वयं–स्फूत्र्त भाव से निवेश की गई. वह बलात् कब्जाई गई पूंजी थी, जिसका उपयोग उन लोगों के शोषण के लिए किया जा रहा था, जिनका उसपर नैसर्गिक अधिकार था. इसलिए यह सवाल कि क्या विकास के लिए विदेशी पूंजी अपरिहार्य है, विशेषकर भारत जैसे साधन–संपन्न देशों में—अब भी खड़ा है.

समय के साथ उपनिवेशों में सामाजिक–राजनीतिक चेतना का विकास हुआ. लंबे आंदोलन के बाद वे एक–एक कर स्वतंत्र होने लगे. लेकिन स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जिस परिवर्तन की अपेक्षा वहां के लोगों ने की थी, जो जनसाधारण का आजादी से जुड़ा स्वप्न था, उससे वे निरंतर दूर होते गए. ब्राजील के प्रखर शिक्षाशास्त्री पाऊलो फ्रेरा के अनुसार उत्पीड़ित अपनी मुक्ति उत्पीड़क की भूमिका में आ जाने में देखता है. यह शार्टकट रास्ता है, जिसमें व्यवस्था में आमूल परिवर्तन का लक्ष्य पीछे छूट जाता है. कई बार तो परिवर्तन चक्र ही उल्टा घूमने लगता है. वही हो रहा था. आजाद होते उपनिवेशों में जैसे–जैसे विकास की मांग बढ़ी, अपनी मुक्ति के लिए वे उन्हीं रास्तों का अनुसरण करने लगे, जो उनकी दासता का सबब थे. आपाधापी में वे उन्हीं देशों के आगे मदद के लिए हाथ पसारने लगे, जिन्होंने उन्हें शताब्दियों तक गुलाम बनाए रखा था, तथा जिनके स्वार्थ, सामान्य नैतिकता मैत्री–भाव से कहीं ज्यादा प्रबल थे. इस तथ्य को जानबूझकर नजरंदाज किया गया कि साम्राज्यवाद से मुक्ति का संघर्ष जितना राजनीतिक होता है, उतना ही आर्थिक एवं सांस्कृतिक भी होता है. यह भी कि सांस्कृतिक दासता राजनीतिक परतंत्रता की सदैव पश्चगामी होती है. वह देर से आती और राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद सामान्यतः देर तक बनी रहती है.

औपनिवेशीकरण का दौर वस्तुतः नए साम्राज्यवाद के उदय का दौर था. उसकी डोर पूंजीपति घरानों तथा उनके चहेते बुद्धिजीवियों और नौकरशाहों के अधीन थी. इस विचलन के कुछ कारण ऐतिहासिक भी थे. उपनिवेशों की स्वतंत्रता किसी बड़े संघर्ष के बजाय स्थानीय जनाक्रोश और लोक–जागरण का सुफल थी. उसके पीछे तीव्र वैश्विक घटनाक्रम था, जिसने दुनिया को कई धड़ों में बांट दिया था. स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर उनके मूल में जिन जनांदोलनों और वैचारिक क्रांतियों का योगदान था, उनमें से अधिकांश पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध यूरोपीय देशों में जन्मी थीं. दूसरे शब्दों में औपनिवेशिक देशों को यूरोपीय दासता के विरुद्ध मुख्य औजार सीधे पश्चिम; अथवा वहां की वैचारिक प्रेरणाओं के माध्यम से प्राप्त हुए थे. यही कारण है कि आजाद होते उपनिवेशों के बुद्धिजीवियों में पश्चिम के प्रति खास आकर्षण था, जिसके दबाव में शताब्दियों पुरानी राजनीतिक दासता को बिसरा दिया गया था. पश्चिम के प्रति विशिष्ट आकर्षण का स्वरूप विभिन्न वर्गों के लिए अलग–अलग था. जो लोग पहले से ही पश्चिमी संस्कृति के प्रति आकर्पित थे, वे स्वतंत्र होने के बाद भी उसे अपनी जीवन–शैली के रूप में अपनाए हुए थे. पश्चिमी संस्कृति की विशेषताएं यथा भाषा, पहनावा, जीवन–शैली आदि उनके लिए पराए नहीं रह गए थे. वे इन्हें अपनी विशिष्ट पहचान के रूप में, कई बार तो अपने ही देशवासियों से अलग दिखने के लिए अपनाए रहते थे. यह उनके लिए गर्व का विषय था. इस श्रेणी में मुख्यतः अभिजात लोग सम्मिलित थे, जिन्होंने औपनिवेशिक सत्ता के निकट रहकर पर्याप्त सुख–सुविधाएं भोगी थीं.

दूसरा वर्ग उन प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का था जो अपने देश और समाज के बौद्धिक नेतृत्व का दावा करते थे. किंतु अपनी वैचारिक प्रेरणाओं के लिए जब–तब पश्चिम की ओर झांकते रहते थे. यह आकस्मिक नहीं था. मानवतावादी विचार तो प्रायः सभी धर्मों और संस्कृतियों में आए थे. और भिन्न भौगोलिक स्थितियों के बावजूद उनमें आश्चर्यजनक एकरूपता थी. लेकिन धर्म–संस्कृति को नैतिकता का आश्रय बताने वाले पारंपरिक विचारों की सीमा थी कि वे सामाजिक न्याय एवं मानव–कल्याण को ईश्वर या उसकी समानधर्मा किसी तीसरी शक्ति की देन के रूप में देखते थे. यूरोपीय देशों की प्रौद्योगिकीय क्रांति ने परंपरागत विचार–शैलियों को चुनौती दी थी. उनमें सबसे प्रमुख धर्म–संबंधी अवधारणा थी. ज्ञान–विज्ञान, प्रौद्योगिकी और तार्किकता के कंधों पर सवार वे क्रांतियां धर्म को सीधे रूप में भले ही नुकसान न पहुंचा पाई हों, लेकिन लोगों के सोच को बदलने, बौद्धिक जड़ता को समाप्त करने में उनका बड़ा योगदान था. उसके फलस्वरूप समाज में धर्म और संस्कृति के प्रति वस्तुनिष्ठ चिंतन आरंभ हुआ, जिसने आगे चलकर पूरी दुनिया को प्रभावित किया था. परिणाम यह हुआ कि तीसरी शक्ति को बीच में लाए बगैर ही मानव–कल्याण का स्वप्न देखा जाने लगा. इससे सुखवाद, उपयोगितावाद, व्यवहारवाद जैसी विचारधाराओं का जन्म हुआ, जो संसार को भौतिक इकाई मानती थीं.

जैसा पहले भी कहा जा चुका है, शताब्दियों लंबी दासता के दौरान ब्रिटिश साहित्य और संस्कृति ने दुनिया–भर में अनेक देशों को प्रभावित किया था. उच्च और उच्च–मध्यम वर्ग तो पश्चिमी संस्कृति को अपनी पहचान मान बैठा था. अपने पहनावे और भाषा–विचार में वह पूरी तरह पश्चिमी नागरिक था. वह असल में शासकीय मनोवृत्ति थी, जिसके प्रभाव में अभिजात वर्ग खुद को शेष समाज से ऊपर समझता था. मानता था कि शासन करना उनका नैसर्गिक अधिकार है. इस संकल्पना का तीखा प्रतिकार यूरोपीय साहित्य में उपस्थित था. विभेदकारी शासक संस्कृति के विरोध में वहां शताब्दियों लंबे जनांदोलन भी चले थे, जिन्हें परिवर्तनकामी बुद्धिजीवियों का पूरा–पूरा समर्थन था. लेकिन सांस्कृतिक दासता से अनुकूलित अभिजात मानस विचार से ज्यादा व्यवहार में भरोसा करता था और समाजार्थिक असमानता के चलते जो विशेषाधिकार व्यावहारिक रूप से उसे प्राप्त थे—उन्हें वह किसी भी हालत में छोड़ना नहीं चाहता था. इस वर्ग का हित यथास्थिति को बनाए रखने में था. चूंकि यह वर्ग अपने–अपने देश में प्रभावी भूमिका में था, इसलिए औपनिवेशिक गुलामी से बाहर आने के बावजूद संबंधित देशों में कुछ नहीं बदला था. यही कारण है कि आनेवाले समय में समाजवाद और साम्यवाद जैसी विचारधाराएं, जिन्हें आजाद होते उपनिवेशों ने अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में चुना था, असंतुष्ट वर्गों के नारों में सिमटने लगीं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग सामान्य विवेक को कुंठित करके उसे मुक्त उपभोक्ता में बदल देने के लिए किया जाने लगा. जनमानस आसानी से उसकी ओर झुकने लगा. नई सभ्यता में विकास की अवधारणा इस तथ्य पर निर्भर थी कि नई प्रौद्योगिकी ने अकेले मनुष्य को कितना आत्मनिर्भर और सुखी बनाया है. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी भी है. उसका वास्तविक हित सबको साथ लेकर चलने में है—इस सत्य को उपेक्षित रखा गया.

सांसारिक सुख जिसे अनेक धर्म–दर्शनों में हेय बताया जाता था, मोह–माया, ममता, भ्रम, नश्वर आदि कहकर जिसका तिरस्कार किया जाता था, वह नई विचारधाराओं के केंद्रीय विषय के रूप में उभरा. बैंथम ने ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ कहते हुए उपयोगितावादी दर्शनों की नींव रखी. जिसे प्रौद्योगिकीय क्रांति से उभर रहे बाजारों ने हाथों–हाथ लिया, हालांकि लंबे समय तक समाज उनके वास्तविक लाभों से वंचित ही रहा. बैंथम के सूत्र, ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ में समानता और नैसर्गिक स्वतंत्रता का संदेश स्वतः अंतर्निहित था. उस समय तक भौतिक सुख केवल समाज के अभिजात वर्ग तक पहुंच पाते थे. समाज का निचला वर्ग उच्च वर्गों की सेवा के लिए जीता था. बदले में उसको इतना ही मिल पाता था कि वह शीर्षस्थ वर्गों की सेवा के लिए खुद को किसी न किसी तरह जीवित रख सके. अपने विकास के आरंभ में उपयोगितावाद मध्यवर्ग के हितों का दर्शन था. उस वर्ग का दर्शन था जिसने बिना किसी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के, सामान्य हितों के लिए एकजुट होना सीख लिया था. धीरे–धीरे समाज में उसकी लोकप्रियता बढ़ती गई. कालांतर में यह ऐसे राष्ट्रीय समुदायों का जीवन–दर्शन बना, जिनका लक्ष्य अपने समस्त वर्गों का हित–रक्षण करना था. उपयोगितावादी विचारकों का मानना था कि शासन का आधार मानवी संविदा न होकर उपयोगिता है. राज्य का कर्तव्य है कि वह मनुष्य की सामान्य आवश्यकताओं को पूरा करे. इससे अर्थशास्त्र पर मानवीय दृष्टिकोण से विचार करने की शुरुआत हुई. एडम स्मिथ, रिकार्डो, जेम्स मिल आदि अर्थशास्त्रियों ने मानव हितों को केंद्र में रखकर उत्पादन पर जोर दिया. बैंथम, जान स्टुअर्ट मिल आदि के लिए सुख का अभिप्राय केवल ऐंद्रियक सुख तक सीमित नहीं था. न ही वे बहुसंख्यक नागरिकों के शोषण की कीमत पर अल्पसंख्यक वर्ग के सुख का सरंक्षण चाहते थे. उनका सपना स्वस्थ नागरिक समाज की स्थापना करना था, जिसमें न्याय की व्याप्ति हो और मनुष्य अपनी अधिकतम स्वतंत्रता और सुख का भोग कर सके. ऐसा समाज जिसमें व्यक्ति बगैर किसी दबाव या बाधा के विकास के अवसरों का लाभ उठा सके.

जॉन स्टुअर्ट मिल बैंथम का परिवर्ती था. बैंथम से आगे बढ़ते हुए उसने सुख की नैतिकता का विचार प्रस्तुत किया. ऐसे समाज की परिकल्पना की जिसमें सुख को मिल–बांटकर भोग करने और सभी के लिए न्याय एवं समानाधिकार पर जोर था. मिल का आर्थिक और सामाजिक चिंतन नैतिकता पर केंद्रित था. वह मनुष्य को अधिकतम स्वतंत्रता दिए जाने के पक्ष में था. राज्य का अभिभावकत्व उसे अस्वीकार्य था. वह मानता था कि शासनारूढ़ शक्तियां महत्त्वपूर्ण फैसले करते समय भी स्वार्थ को नहीं भूल पातीं. इस कारण उनके निर्णय अंततः बहुसंख्यक वर्ग के हितों के प्रतिकूल सिद्ध होते हैं. इसलिए वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि शासन जो भी करेगा, खराब करेगा. ऐसी ही धारणा उसकी पूंजीवाद के प्रति थी. वह मानता था कि पूंजीवादी समाज, श्रम के उत्पाद का वितरण श्रम के योगदान के उल्टे अनुपात में करता है. इससे श्रम का लाभ श्रमिक के बजाय, कारखाना मालिक के खाते में चला जाता है. इसलिए उसने आर्थिक उपक्रमों पर व्यक्तिगत नियंत्रण का समर्थन किया था. उसका मानना था कि यदि समाज में नैतिकता होगी, तो वह शीर्ष पर स्वतः स्थापित होती जाएगी. और समाज में नैतिकता के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएं आसानी से पूरी हों. उसको लगे कि राज्य उसके प्रति भी उतना ही ईमानदार है, जितना दूसरे नागरिकों को. यह ‘यथा राजा—तथा प्रजा’ की अवधारणा के ठीक उलट स्थिति थी. यह प्रकारांतर में विकास के लाभों को सर्वजन तक पहुंचाने के लिए जनसहभागिता की अनिवार्य को दर्शाता है. केवल स्वतंत्र और जागरूक समाज ही अपने वांछित लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है.

बैंथम का ‘उपयोगितावाद’ तथा जान स्टुअर्ट मिल का ‘व्यक्ति–स्वातंत्र्य’ दोनों ही मानव–अस्मिता को सुरक्षित रखने वाले विचार थे. मगर वे पूंजीवाद पर नियंत्रण रखने में सफल न हो सके. दरअसल नई विचारधाराओं के अनुकूल समाज को ढालने के लिए जिस शिक्षण–प्रशिक्षण की आवश्कता थी, धर्म और संस्कृति के अनपेक्षित दबावों तथा क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के कारण उस दिशा में अपेक्षित प्रयास न हो सका. इसके विपरीत वर्चस्वकारी शक्तियों ने समाज के उपभोक्ता करण के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम किया. उससे पहले तक आधुनिकता का पैमाना संस्कृति–परिष्करण और वैचारिक मौलिकता से तय होता था. अनुकूल सांस्कृतिक बदलाव अथवा नए विचार के आगमन को आधुनिक मान लिया जाता था. उपभोक्ताकरण के दौरान आधुनिकता के मापदंड बदल दिए गए. बदली मानसिकता में आधुनिक दिखने के लिए केवल नए और महंगे उत्पाद का उपयोग पर्याप्त था. उदारवादी माहौल में बाजार पाठकों के मनोविज्ञान को समझकर नीतियां बनाने लगा था. एक तरह से यह व्यक्ति के भीतर बाजार खोजने अथवा देह को ही उत्पाद बना देने की कोशिश थी. जिसके अनुसार प्रत्येक उपभोक्ता देह को साधन मान लिया गया था, जो विभिन्न वस्तुओं का उपयोग कर, मालिक के लिए मुनाफा कमाती है. व्यक्ति को देह तक सीमित कर देने के आवश्यक था कि मौलिक वैचारिकता को भटका दिया जाए. चूंकि वैचारिक और सांस्कृतिक परिवर्तन धीरे–धीरे चलने वाली प्रक्रियाएं हैं, और वैचारिक परिवर्तन तो अपेक्षा कठिन–साध्य भी होता है, इसलिए नई पीढ़ी को लुभाने के लिए आधुनिकता का मिथक इतना कारगर सिद्ध हुआ कि वस्तु में वास्तविक सुधार न भी हो, पैकेजिंग अथवा रूपाकार में सामान्य परिवर्तन को ही आधुनिक कहा जाने लगा. इसका सीधा लाभ उन बौद्धिक प्रतिष्ठानों को मिला जो येन–केन–प्रकारेण पूंजीवाद को पोसते आए थे; जिनका ध्येय अधिक से अधिक मुनाफा बटोरना था. उल्लेखनीय है कि नए अर्थशास्त्र में बाजार की खोज के लिए दूर जाना आवश्यक नहीं रह गया था. यह स्वीकार लिया गया था कि व्यक्तिमात्र की खपत बढ़ाकर भी बाजार की मदद की जा सकती है.

हम आधुनिकीकरण की सारी सुख-सुविधाएं तो पाना चाहते हैं किंतु इसके मूल्यों- स्वतंत्रता, समता, न्याय, तार्किकता, वैज्ञानिक दृष्टि, व्यक्ति की गरिमा, मानव अधिकार और सेकुलरवाद आदि से हमें परहेज है. बाबा-चेलों का एक ऐसा बाजार फल-फूल रहा है मानो आध्यात्मिकता की आंधी आ गई हो. इस छद्‌म आधुनिकीकरण और छद्‌म धार्मिकता की सांठ-गांठ के चलते अनियंत्रित भोग के लिए पैसे कमाने को ही हमने जीवन का सर्वोच्च मूल्य मान लिया है. आज ऐसी संतुलित जीवन दृष्टि का अभाव है, जो अतिशय वैराग्य और अमर्यादित भोग के बीच का मार्ग बताए, उन मूल्यों को भी प्रश्रय दे जो अर्थ-साध्य नहीं हैं. आज जरूरत पुनर्व्याख्या की उतनी नहीं जितनी नवीन मूल्यों के सृजन की है, जिसकी भट्‌टी में पुरातन और आधुनिक दोनों को अग्नि परीक्षा से गुजरना होगा. हमें परम्परा के मूल्यांकन और पश्चिमी आधुनिकता के आधार मूल्यों को अपनाने के पैमाने बनाने होंगे. तभी हम परम्परा में से श्रेष्ठ, सद् और सार्वभौम का चयन कर, अनावश्यक को छांट पाएंगे. देखना होगा कि विकास का जो पूंजीवादी मॉडल हमने स्वीकारा है, वह परम्परा के प्रतिगामी तत्वों से कोई सांठ-गांठ तो नहीं कर रहा. हमारी संस्कृति ने समायोजन और आत्मसात करने की क्षमता से परिवर्तन के दौर में बचे रहने में अद्‌भुत लचीलापन दिखाया है. भारतीय आधुनिकता की गढ़न में परम्परा और आधुनिकता के लिए कितना-कितना स्थान सुरक्षित किया जाए, यही सबसे बड़ी चुनौती है. इसका सामना हम इस विवेक मंत्र से कर सकते हैं कि आने वाली हर हवा का परीक्षण सत्य और नैतिकता के आधार पर करें, भले ही वह भारत के सुदूर अतीत का प्रतिनिधित्व करती हो या सात समुद्र पार के सपनीले आधुनिक पश्चिम का, साहस के साथ उसे ही अपनाए जो कल्याणकारी हो.

कुछ कारण ऐतिहासिक भी थे. बीसवीं शताब्दी के मध्याह्न तक, विशेषकर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद राजनीतिक शक्तियां हताश पड़ चुकी थीं. इससे पूंजीवाद को मनमाने पांव पसारने का अवसर मिला. नए बाजारवादी दर्शन की कोशिश व्यक्ति के विवेक को कुंठित कर, उसके दिमाग पर कब्जा जमाने की रही है. ताकि वह वही समझे, जो उसको बताया जाए. वह करे, जो उसको करने के लिए कहा जाए. यह न तो ‘उपयोगितावाद’ की सैद्धांतिकी के अनुकूल था, न ही ‘व्यक्ति–स्वातंत्र्य’ की विचारधारा के. क्योंकि उपयोगितावाद जहां वस्तु के सामाजिक मूल्य को महत्त्व देता है, और इसके लिए वह मनुष्य के आंतरिक गुणों को निखारने का समर्थन करता है, वहीं व्यक्ति–स्वातंत्र्य का अर्थ किसी अकेले व्यक्ति की स्वतंत्रता न होकर बहुसंख्यक की स्वतंत्रता में व्यक्ति–मात्र की स्वतंत्रता के लक्ष्य को सुनिश्चित करना है. अपने मूल रूप में उपयोगितावादी दर्शन समानता एवं न्याय का पक्ष लेते हुए सुख पर अभिजात वर्ग के एकाधिकार की भावना पर चोट करता था. सुखवाद उस समय का क्रांतिकारी विचार इसलिए भी बना, क्योंकि वह सुखोपभोग के प्रति जनसाधारण के हेयभाव को अनावश्यक मानता था. बैंथम, जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे उदारवादी चिंतकों का संपूर्ण लेखन मानव–कल्याण को समर्पित था. वे राज्य को नागरिकों का अभिभावक मानने को तैयार न थे. इसलिए वे उद्योगों पर व्यक्तिगत स्वामित्व का समर्थन करते थे. उपयोगितावादी विचारकों की धारणा पूंजीवाद के प्रति भी बहुत अच्छी न थी, लेकिन बाजार के नीति–निर्धारकों के लिए उनके द्वारा भौतिक सुखों का समर्थन करना, उसके प्रति ग्लानिबोध को अनावश्यक मानना ही पर्याप्त था. इसलिए राज्य के साथ मिलकर ‘सुखवाद’ एवं ‘व्यक्ति–स्वातंत्र्य’ के विचारों को खूब प्रचारित किया गया. फिर उनका सहारा लेकर उपभोक्तावाद को अंतहीन भोग और स्पर्धा के रूप में समाज पर थोप दिया गया.

ताजा स्थिति यह है कि विकास के पश्चिमी मॉडल से प्रभावित देश, विदेशी पूंजी को आमंत्रित करने के लिए तरह–तरह के तमाशे करते हुए दिखाई पड़ते हैं. इनमें भारत जैसे देश भी शामिल हैं, जिनकी समृद्ध संस्कृति है. जहां वैचारिक–सांस्कृतिक चिंतन की सुदीर्घ परंपरा है. साथ ही जहां प्राकृतिक संसाधनों का भी प्राचुर्य है. ऐसे देशों में चूंकि परंपरा के दबाव भी असर दिखाते हैं, इसलिए वहां विकास की वर्तमान पूंजीवाद प्रेरित धाराओं को लेकर एक प्रकार की बेचैनी सदैव बनी रहती है. आधुनिकता और संस्कृति के द्वंद्व उन्हें सदैव उद्वेलित रखते हैं, जिससे वे ऊहापोह की स्थिति में रहने को बाध्य होते हैं. भारत में इन दिनों कुछ ऐसा ही हो रहा है. पूरे समाज में विरोधाभास की स्थिति व्याप्त है. हम एक ओर तो उत्पादन के स्तर पर वैश्विक हो जाना चाहते हैं. चाहते हैं कि नई से नई प्रौद्योगिकी हमारे यहां हो. हमारे कारखाने आधुनिकता की मिसाल बनें. इसके लिए हम नवीनतम प्रौद्योगिकी आयात करने को आतुर रहते हैं. जिन क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी आयात महंगा और कठिन लगे, वहां हम विदेशी पूंजी का आवाह्न करते हैं. ईस्ट इंडिया कंपनी नए बाजार और संसाधनों की चाहत में खुद भारत तक चलकर आई थी. हम उससे भी भारी–भरकम कंपनियों को खुद न्योता देकर दुनिया जीतने का भ्रम पाले हुए हैं. ध्येय एक ही है—विकास और केवल विकास. पर क्या सचमुच हम अपने लक्ष्य में सफल हो पाए हैं. क्या हमारी सरकारें विकास के नाम पर ठीक वही कर रही हैं, जैसा लोग चाहते हैं; अथवा जिसकी उन्हें आवश्यकता है? सवाल यह भी है कि क्या हमारा लोकमानस सरकार की विकास–नीति और उसकी दिशा–दशा को समझ पाता है; अथवा वह केवल विकास के विभ्रमों में जीने को बाध्य होता है?

भारत के संबंध में संस्कृति के दबाव भी महत्त्वपूर्ण हैं. पुराने ज्ञान–विज्ञान के शोध के लिए आवाजें उठ रही हैं. कोई बुरी बात नहीं है. आज से बहुत पहले यह हो जाना चाहिए था. कहा जा रहा है कि आज जो भी ज्ञान–विज्ञान है, वह हजारों वर्ष पहले से हमारे यहां मौजूद है, हमारे वेद–शास्त्रों में भरा पड़ा है. अंग्रेज उसे यहां से ले गए और उसपर शोध करके खुद को माला–माल कर लिया! हम वैसा क्यों नहीं कर पाए? जो काम अंग्रेजों सौ–सवा सौ साल में किया, वह हमारे यहां शताब्दियों तक क्यों लटका रहा? ज्ञान–संपदा पर पूरे समाज का समानाधिकार होता है, फिर वे कौन लोग थे जो उसे अपनी बपौती मानकर पीढ़ी–दर–पीढ़ी बैठे रहे? यदि हमने अपने ज्ञान–विज्ञान का समय रहते कुछ नहीं किया तथा उसे अपनों और बाहर वालों से छिपाए रहे, तो जिन लोगों ने उसमें संशोधन–परिवर्धन करके या करे बिना ही उसको समाजोपयोगी बनाया, उन्हें क्यों दोषी माना जाए? और अब यह मालूम होने के बाद कि वह सब निकल जाने के बाद भी हमारे धर्मग्रंथों में बहुत कुछ मौजूद है तो हम उसके शोधन के लिए क्या कर रहे हैं? कितने शोधार्थी हमने इस दिशा में लगाए हैं. इन सवालों पर जो भारतीय समाज की मूल समस्या हैं, हम काम क्यों नहीं कर रहे हैं? ये प्रश्न नए नहीं हैं. इनके उत्तर संस्कृति–सूरमाओं को बहुत पहले से ज्ञात है. भारत में ज्ञान–विज्ञान की समृद्ध परंपरा रही है—यह बात उन विद्वानों ने भी स्वीकार की है, जिनपर हम उसकी चोरी का इल्जाम लगा रहे हैं. और जिस समय कही थी, उस समय हम उनके मुंह से सुनकर दांतों–तले उंगली दबा रहे थे. तो जिस बात पर कभी स्वयं हमें आश्चर्य था, आज उसपर हमारे विद्यार्थी विश्वास करें भी तो कैसे? क्योंकि जो बात हम उन्हें समझाना चाहते हैं, उसके लिए ज्ञान–आधारित समाज का होना अपरिहार्य है. उसके लिए जरूरी है कि मनुष्य का विवेक स्वतंत्र और परिवेश मुक्त हो. जबकि हम आरंभ से बालक को धर्म, जाति और क्षेत्रीयता के आधार पर बांध देते हैं. बालक के ककहरा सीख लेने से हमें उतनी खुशी नहीं मिलती, जितनी छोटी अवस्था में मूर्ति के आगे हाथ जोड़ते देखकर होती है.

भारत कभी ज्ञान–आधारित समाज रहा होगा. उपनिषद, गणित, ज्योतिष आयुर्वेद रसायन आदि क्षेत्रों में इस देश की उपलब्धियां कमाल की रही हैं. लेकिन पिछले आठ–नौ सौ वर्ष से हम ऐसा कुछ ऐसा नहीं कर पाए हैं जिसके आधार पर विश्व–मेधा को चुनौती दे सकें. इस दौर में हमारी सारी चिंतना प्रतिक्रियात्मक रही है. विडंबना यह कि हम कब खुद की उपलब्धियों को बिसराकर दूसरे में ढल गए, कब हमारा समाज संकुचित होकर दायरे में सिमट गया—पता ही नहीं चला. ऐसा कोई साक्ष्य हम नहीं दिखा पा रहे हैं, जिससे हमारे दावे की तस्दीक होती हो. यदा–कदा कुछ अति–उत्साही संस्कृति प्रेमी लोग वेदों में वायुयान जैसे शगूफे जरूर छोड़ देते हैं. मगर पर्याप्त प्रमाण के अभाव में वे कहीं टिक नहीं पाते. परिणामस्वरूप खूब जग–हंसाई होती है. हाल ही में एक लेखक ने सिद्ध करने की कोशिश की है कि रसायनशास्त्री दिमित्री मेंडलीव(1834—1907) को आवर्त्त सारणी में 108 तत्व रखने की प्रेरणा भारत से मिली थी. यह पूर्णतः निराधार कल्पना है. 1869 में जब दिमित्री मेंडलीव ने पहली आवर्त्तसारणी तैयार की, ज्ञात तत्वों की संख्या 57 के आसपास थी. दो वर्ष पश्चात 1871 में उसने संशोधित आवर्त्त सारणी तैयार की. उस समय भी उसकी आवर्त्त सूची में लगभग साठ तत्व थे. आज यह संख्या लगभग 110 है. विद्यार्थी यह सब जानकारी विज्ञान की पुस्तकों में पढ़ता है. उसके लिए झूठ को पकड़ना मुश्किल नहीं है. हमारे युवा इंटरनेट, मोबाइल, वॉट्सअप, ब्लू ट्रूथ अपनी हथेली में दबाए रहते हैं. जानते हैं कि वह सब बाहर से आयातित है. जबकि भारत का परंपरागत ज्ञान कर्मकांडों के बाहर बहुत कम नजर आता है. मौलिक ज्ञान के प्रति अनास्था ऐसी कि हम 16 पृष्ठ की पुस्तिका झोले में डालकर चलने वाले पुरोहित को पंडित का दर्जा दे देते हैं. शायद इसलिए कि हम अपना आत्मविश्वास खो चुके हैं. हमें हर जगह कोई न कोई सहारा, कोई न कोई मध्यस्थ चाहिए, जो हमारी बात रख सके. हम ईश्वर को दयालु, करुणानिधान, अंतर्यामी आदि न जाने क्या–क्या कहते हैं, लेकिन बिना दलाल के उसके सामने जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. विमर्श के अभाव में दिमाग को कुंद कर देने वाली अंधश्रद्धा तो विद्यार्थियों में पैदा की जा सकती है, जिज्ञासु और वैज्ञानिक बोध से संपन्न पीढी तैयार करना संभव नहीं है. अतः अच्छा होगा कि मिथ्यागान से बचकर तथ्यों को सही ढंग से प्रस्तुत किया जाए. जो हमारा है, जिसकी वैश्विक उपयोगिता है, उसको समकालीन बोध के साथ दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया जाए.

एक और सांस्कृतिक श्रेष्ठता का दंभ तो दूसरी ओर दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की स्पर्धा. व्यवस्था ऐसी है कि धर्म किसी न किसी रूप में केंद्रीय भूमिका में बना रहता है. इस समय दुनिया में तीन प्रमुख धर्म हैं—ईसाई(220 करोड़), इस्लाम(180 करोड़) तथा हिंदू(110 करोड़). इनमें ईसाई और इस्लाम दो परस्पर विपरीत धु्रव जैसे हैं. समय के साथ उनका विरोध बढ़ता ही जा रहा है. पश्चिमी देशों में राज्य के कार्यकलाप में धर्म का हस्तक्षेप उचित नहीं माना जाता. भौतिक सुखों के प्रति उनमें किसी भी प्रकार की कुंठा या तिरस्कार भाव नहीं है. वे कॉल्विनवाद के समर्थक हैं, जिसके अनुसार पृथ्वी पर कुछ भी ऐसा नहीं है, जो मनुष्य के भोग के लिए वर्ज्य हो. ज्ञान–विज्ञान ने उन्हें वस्तुनिष्ठ ढंग से सोचने के लिए परिपक्व किया है. पश्चिमी देशों की भोग–लिप्सा की आलोचना की जाती है. बावजूद इसके मानव–अस्मिता जितनी वहां सुरक्षित है, दुनिया के बाकी देशों में नहीं. दूसरे छोर पर मुस्लिम देश हैं, जो धर्म को राज्य की नियामक सत्ता मानते हैं. अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी और सुखवादी दर्शन को वे अपने लिए खतरा मानते हैं. इसलिए उनसे दूर रहने के लिए समय–समय धर्मादेश भी जारी किए जाते हैं. भारत जैसे देश बीच की श्रेणी में आते हैं. जहां एक कदम संस्कृति में, दूसरा आधुनिकता में फंसा रहता है. पश्चिम हमें लालायित करता है, मगर संस्कृति के दबाव बार–बार अतीत की ओर ले जाते हैं. भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं, बावजूद इसके लंबी दासता की स्मृति के कारण वे कहीं न कहीं भय का शिकार रहते हैं. यह डर उनके मन में विधर्मियों के प्रति अविश्वास को जन्म देता है. हिंदुत्व समर्थक चाहते हैं कि हिंदू भी अपने धर्म के प्रति दृढ़ हों. अपने अतीत को पहचानें. मगर इसके लिए जो नीति वे अपनाते हैं वह धार्मिक विद्वेष और कट्टरता को बढ़ावा देने वाली सिद्ध होती है. दूसरी ओर खुद को इस्लाम के अनुयायियों की अपेक्षा आधुनिक सिद्ध करने का दबाव उन्हें यूरोपीय भौतिकवाद के करीब ले जाता है. पीढियां इसी ऊहापोह के बीच जवान होती हैं. भारतीय युवा आधुनिक बने रहकर तकनीक प्रदत्त सभी सुख–सुविधाओं को भोगना चाहते हैं. जबकि संस्कृति के दबाव उन्हें बार–बार पीछे की ओर खींचते हैं. इससे वे न तो पूरी तरह आधुनिक बन पाते हैं, न ही संस्कृति के पोषक. जो सीखते–करते हैं, आधा–अधूरा बना रहता है. अनमन्यस्कता की स्थिति को बाजार न केवल समझता, बल्कि वह इसी को अपने लिए लाभकारी मानता है. आत्मविश्वास से रहित, वैचारिक स्तर पर डावांडोल युवा अपना संस्कृति प्रेम, परंपरा की लीक पीटते रहने में दर्शाते हैं, तो आधुनिकता की उनकी चाहत, तकनीक की शरण में जाने से पूरी होती है. भीड़ की मानसिकता हर क्षेत्र में अनावश्यक होड़ पैदा करती है. उससे उपभोकता वस्तुओं के प्रति ललक तो पैदा होती है, चयन का विवेक नहीं. ऐसे उपभोक्ता मानस की जरूरतों को समझते हुए बाजार तरह–तरह के उत्पाद उतारता रहता है. सरकारें उन्हें तरह–तरह के प्रलोभन देती हैं. वहां विकास चकाचैंध की तरह आता है और दूर से ही गुजर जाता है. उससे प्रभावित आदमी न तो तनकर खड़ा हो पाता है, न ही खुद से दूर भी देख पाता है.

कह सकते हैं कि प्रकृति को उपभोग्य मानने वाली दृष्टि ने ही आधुनिकता को दिशाहीन बनाया है. प्राचीन भारतीय जीवन–शैली प्रकृति के साथ सहजीवन की थी. लोग घर–परिवार के साथ प्रकृति से भी अपनापा रखते थे. धीरे–धीरे उसमें ठहराव आया और समाज में ऐसा वर्ग उमड़ता गया जो मनुष्य–मनुष्य के बीच अंतर करता था. जो स्वयं को विशेषाधिकार संपन्न मानता था. उसने समाज के संसाधनों, नीतियों को अपने स्वार्थ के अनुरूप बदलना जारी रखा. जिससे असमानता फैली. उसमें समाज में एक वर्ग के पास इतना कुछ था कि भोग के लिए जीवन कम पड़ जाता था. दूसरे वर्ग को जीवन बचाने के लिए रोज खुद को दांव पर लगाना पड़ता था. जनसाधारण पर शीर्षस्थ वर्ग की ओर से अनेक निषेध लागू थे, ताकि उसके वैभव–विलास में कोई कमी न रहने पाए. उपयोगितावादी दर्शन उन निषेधों की प्रतिक्रिया में जन्मा था, जो प्राचीन समाजों के वर्गीय विभाजन और सुख–संसाधनों के मुट्ठी–भर लोगों तक सिमट जाने का परिणाम थे. आरंभिक उपयोगितावादी दर्शन प्रकृति को उपभोग्य मानता था. वह मनुष्य को स्वार्थी बना देता था. बाद के उदारवादी विचारकों ने इस कमजोरी को समझा. केवल अपने सुख के लिए संघर्ष करने के विचार को दूसरों के सुख में अपना सुख खोजने की चाहत से भर दिया. लेकिन किसी भी विचार की सफलता जनता के विवेक पर टिकी होती है. समाज अनुशासित तो शासन भी अनुशासित. जनता विवेकवान तो वैचारिक शुद्धता लंबे समय तक बनी रहती है. उसमें समयानुसार सुधार भी होते रहते हैं. इसलिए विरोधी विचार को कुचलने के लिए स्वार्थी शक्तियां जनता के विवेक को निशाना बनाती हैं. एकता को भंग कर उसे तरह–तरह के प्रलोभन देकर भटकाती हैं. धर्म, मुक्ति की कामना, स्वर्गीय आनंद, जाति और वर्ण–भेद ऐसे ही प्रलोभन हैं. इनके कारण अच्छा–खासा विचार अपनी प्रासंगिकता खोकर स्वार्थी लोगों के हाथों का हथियार बनता रहा है.

आधुनिकता की एक कसौटी विकास भी है. सामान्य परिभाषा में विकास एक निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है, जो व्यक्ति, समाज अथवा किसी वस्तु–विशेष की परिवर्तनशीलता को दर्शाती है. उसके समानांतर प्रगति एक सदिश अवधारणा है. वह ऐसे विकास की निरंतरता को दर्शाती है जो मनुष्य और समाज को उच्चतर सुविधाओं और अवसरों की ओर ले जाता है. नागरिकों का सीधा भला समाज और राष्ट्र की बहुआयामी प्रगति में है. बावजूद इसके चुनावों में नेता विकास–विकास चिल्लाते हैं. जबकि विकास के लिए आवश्यक नहीं कि वह हमेशा और संपूर्ण रूप से नागरिक कल्याण को समर्पित हो. किसी भी कारण, चाहे–अनचाहे जो भी बदलाव हों, वे सब विकास के अंतर्गत आते हैं. समाजशास्त्र की भाषा में शरीर में कूबड़ निकल आना भी विकास है और उसका बढ़ते जाना भी. आशय है कि विकास दिशाहीन होता है. वह किसी अनपेक्षित दिशा में भी बढ़ सकता है. पूंजी नियंत्रित समाजों में प्रायोजित प्रक्रिया के तहत सरकार मान लेती है कि पूंजीपति जो अच्छे प्रबंधक होते हैं, वही विकास की राह आसान कर सकते हैं. इसलिए सरकार अपनी योजनाएं पूंजीपतियों के हाथों में सौंपकर निश्चिंत हो जाना चाहती है. कई बार तो योजना–निर्माण का कार्य पूरी तरह पूंजीवादी संस्थाओं पर छोड़ दिया जाता है. वे यह दिखाते हुए कि पूंजीवादी संस्थानों का विकास ही देश और समाज का विकास है, यदि ऊपर के स्तर पर समृद्धि होगी तो स्वाभाविक रूप से निचले वर्गों तक भी आएगी—योजनाओं को पूरी तरह अपने स्वार्थ के अनुकूल ढाल लेते हैं. विकास के अवांछित प्रभावों अथवा दुष्प्रभावों की समीक्षा का कार्य स्वयंसेवी किस्म की संस्थाओं पर छोड़ दिया जाता है. पूंजीपतियों द्वारा दिए गए अनुदान, सहायता आदि पर पलने वाली वे संस्थाएं प्रकट में जनता की हितैषी होने का दावा करती हैं, असल में पूंजीपतियों की हित–साधक सिद्ध होती हैं. जनाक्रोश को नियंत्रित करने में वे कारगर भूमिका निभाती हैं. वे बड़ी चतुराई के साथ विकासनीति की असफलताओं को जनता के ऊपर थोप देती हैं. इसके लिए बढ़ती जनसंख्या, आतंकवाद, जातिवाद, अशिक्षा, गरीबी आदि को जब–जैसा अनुकूल हो, कारण बता दिया जाता है. जबकि असल में अधिकांश समस्याएं बेमेल विकास से, संसाधनों के खास–वर्ग तक सिमट जाने से जन्म लेती हैं. वे उन विकास–नीतियों की असफलताएं होती हैं, जिनमें न्याय और लोकतंत्र के नाम पर घोड़ों और मेमनों को एक ही स्पर्धा में जोतकर लोकतंत्र, न्याय और समानता नाटक किया जाता है. उनका जन्म शासन–प्रशासन की असफलताओं से होता है.

पूंजीपतियों का धर्म केवल मुनाफा होता है. उनका कोई देश भी नहीं होता. जहां मुनाफा हो, वही उनका देश बन जाता है. जबकि राजनीति अपने देश और धरती के नारे लगाने से परवान चढ़ती है. हाल के वर्षों में राजनीति को भी ’न्यूनतम निवेश–अधिकतम लाभ’ वाला व्यवसाय मान लिया गया है, इसलिए पूंजीपतियों से सांट–गांठ रखनेवाले राजनीतिज्ञ बार–बार जनता को विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि बिना विदेशी पूंजी के इस देश का विकास असंभव है. चूंकि विदेशी कंपनी द्वारा भारत में निवेश के लिए किसी भारतीय सहयोगी की तलाश जरूरी है, इसलिए सरकारी अभियान का सीधा लाभ, शिखर के राजनीतिज्ञों से सांट–गांठ रखने वाले पूंजीपति घरानों को होता है. विदेशी पूंजी को आमंत्रित कर चहेते पूंजीपतियों को खुश करने की आपाधापी इतनी अधिक होती है कि उसकी राह के कांटे हटाने के लिए सरकारें जनता के ऊपर भारी–भरकम बोझ डालने से भी नहीं चूकतीं. बड़ी निवेशक कंपनियों के आगे देश को प्रायः समझौता करना पड़ता है. यह सब इतने सलीके और चतुराई के साथ किया जाता है कि जनसाधारण सच को समझ ही नहीं पाता.

बदले में पूंजीपति कंपनियां राजनीति के प्रमुख चेहरों की ब्रांडिंग करती हैं. उसमें सरकारी खर्च पर छवि निर्माण का काम किया जाता है. ब्रांडीकरण आधुनिक बाजारनीति का हिस्सा है. पूंजीपतियों के लिए काम कर रही सरकारें, चाहे–अनचाहे ब्रांडीकरण से बच नहीं पातीं. या यूं कहो कि बाजारवाद में भरोसा बनाए रखने के लिए पूंजीवादी शक्तियां राजनीति का भी ब्रांडीकरण कर देती हैं. पिछले कुछ दशकों में भारतीय राजनीति का भी तेजी से ब्रांडीकरण हुआ है. प्रतिनिधित्व की राजनीति चेहरों की राजनीति में बदल चुकी है, नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल, राहुल गांधी आधुनिक भारतीय राजनीति के जाने–पहचाने ‘आइकन’ हैं, जो जातिवादी राजनीति और मीडिया के गठजोड़ के आधार पर जनमानस में अपनी जगह बनाए हुए हैं. साल–भर पहले तक कांग्रेस ने राहुल की ब्रांडिंग पर जबरदस्त पैसा खर्च किया था. मगर विरोधी मीडिया ने कांग्रेस शासन काल के भ्रष्टाचार को बहाना बनाकर ऐसी ‘डी–माकेंटिंग’ की कि राहुल गांधी नामक ‘ब्रांड’ राजनीति के बाजार में जमने से पहले ही उखड़ने लगा है. आखिर ऐसा क्यों हुआ? व्यक्ति–केंद्रित अथवा स्वार्थ के गठजोड़ की बुराइयां तो किसी से छिपी न थीं! बजाय बुराइयों के समाधान के हम क्यों एक और बुराई की ओर बढ़े जो लोकतंत्र के नाम पर धब्बा है. कारण किसी से छिपे नहीं हैं. राजनीति का ब्रांडीकरण प्रकारांतर में बाजार के ब्रांडीकरण को बाजार के ब्रांडीकरण को स्वीकार्य बनाता है. बाजार में एक ही उत्पाद की जाने–माने ब्रांड के अलावा दर्जनों किस्में मौजूद होती हैं. लेकिन गुमनाम. इसे बाजार का अभिजात चेहरा कह सकते हैं. उसमें जाने–माने ब्रांड को खरीदने की हैसियत आमतौर पर उन्हीं की होती है, जिनकी अपनी कोई हैसियत है. जिनकी बाजार में कोई हैसियत नहीं है, उनकी समाज में भी कोई हैसियत नहीं बन पाती. इसलिए सामाजिक समानता का एक रास्ता बाजार की समानता के रास्ते भी जाता है. वर्तमान परिस्थितियों में उस रास्ते की खोज बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है. हालांकि न्याय और लोकतंत्र के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वह अनिवार्य उद्यम होगा.

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