गंगा…

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-रामसिंह यादव-

गंगा तुम क्या हो?

मानवीय संवेदनाओं से जुड़ी

कैसी कथा हो…

जो चिरकाल से

हमें पाल रही हो?

माई, तुम्हें नहीं पता

कौन आर्य है, कौन द्रविड़,

कौन बौद्ध है, कौन मुसलमां,

कौन सिक्ख है, कौन जैन,

पारसी या ईसाई भी तुम्हें नहीं पता…

शांत, अविचल, धवल,

श्वेत चन्द्र रेखा सी…

अनवरत सभ्यताओं को जन्म देती

माई तुम कौन हो?

कितने इतिहास समेटे हो?

सुना है,,,

यहां के जंगली, धर्महीन साधु

तुम्हें मां कहते थे…

तुम्हारे पानी को अमृत समझते थे…

कहते थे तुममें सारे पाप धुल जाते हैं…

संसार की सबसे विस्तृत जैव श्रृंखला

की तुम पोषक थीं…

योगी शिव ने तो तुम्हें सर्वोच्च शिखर

पर माना था।

पर,

गंगा,

हम नवीन, वैज्ञानिक व धार्मिक मानव

भला इन गाथाओं को सच क्यों माने?

आखिर तुम एक नदी ही तो हो…

निर्जीव, हाइड्रोजन व ऑक्सीजन का संयोग

जो पहाड़ से निकलता है और सागर में समाता है…

हां

और नहीं तो क्या,,,

सर्वविलयक, घुलनशील,

शरीर के सत्तर फीसदी हिस्से की तरह बहने वाली…

तुम भी संसार चक्र की एक इकाई ही तो हो।

लेकिन मां…

तुम्हारे अंदर अद्भुत बैक्टरियोफैज कहां से आए?

जो विषाणुओं और किटाणुओं को देखते ही

आश्चर्यजनक गुणन करके उन्हें खत्म कर देते हैं…

सम्पूर्ण विश्व में सिर्फ तुम ही ऐसी नदी क्यों हो?

कैसे इतना कचरा ढोते हुए भी

तुम कुछ किलोमीटर के प्रवाह से ही

सर्वाधिक ऑक्सीजन पा लेती हो?

मां…

सारे संसार की सबसे उपजाऊ जमीन

तुमने कैसे तैयार की?

तेरी जमीन पर पहुंचकर

सर्वभक्षी मानव अहिंसक क्यों हो जाता है?

मां तुम्हारा कौन सा गुण था

जिसने अब तक तुम्हारी पोषक धरा को महामारियों से बचाया?

विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा बनाने वाली

तुम तो शुरू से अंत तक

साथ कुछ भी नहीं ले जाती…

पर्वतों का अपरदन करके लायी मिट्टी भी

सुंदरवन में छोड़ जाती हो…

जहां हर कण मे एक नया जीवन

जम्हाई लेता है…

धन्य हो मां।

मां…

तुम्हारे पानी में ऐसा क्या था

जो अकबर का उद्दीग्न मन शांत करता था?

उसे धर्मों से दूर ले जाकर आत्मखोज की प्रेरणा देता था…

क्या था ऐसा जो कबीर और तुलसीदास को

अमर बना गया?

सूफी-साधु कैसे तुम्हारे आगोश में दुनिया से विरक्त हो जाते थे?

क्यों अंग्रेज़ तुम्हारे पानी को विलायत ले जाते थे?

तुम्हारे पानी में कुष्ठ क्यों नहीं पनपता,

क्यों कैंसर नहीं होता?

अबूझ गुण बता दो जिससे तुम्हारा पानी कभी खराब नहीं होता?

मां

तुम अध्यात्म की देवी क्यों हो…

जो जंगल संसार को डराते हैं…

वो तुम्हारी धरा में क्यों जीव को बचाते हैं?

कैसे तुम्हारे आंचल में हिंसक जीव भी हमारे साथ खेल लेते थे?

बांधों के बनने से पहले

क्यों तुम्हारे इतिहास में भीषण बाढ़ नहीं है?

क्यों कोई अकाल नहीं है?

लेकिन मां…

कौतूहलवश बाहर से आए आक्रांताओं ने…

तुम्हारे जंगलियों को मार दिया…

जंगलों और उसमें बसने वाले जीवों को निगल लिया…

मानव को जिंदा रखने वाली मां…

तुम तिल-तिल कर, अब प्राण याचना कर रही हो…

टिहरी बांध से बंधकर…

नरौरा में परमाणु कचरा समेटती…

कानपुर के क्रोमियम से जूझती…

मिर्जापुर से लेकर बांग्लादेश तक

आर्सेनिक जैसे न जाने कितने खनिजों के जहर से लड़ती…

हर घाट में बने मंदिरों की गंदगी,,,

और हमारी लाशों को ढोती…

हम मूर्ख मानवों की बनाई

रासायनिक मूर्तियों के प्रवाह से विदीर्ण होती।

घरों से निकलता जहरीला झाग और मल-मूत्र…

खेतों से बहकर आता डीडीटी और पेस्टिसाइड…

गाड़ियां धोते, तेल से भरे बदबू मारते नाले…

फैक्ट्रियों से बहता हमारा रंगीन विकास…

मरी मछलियों से भरा उतराता रसायन…

आह… सब सहती हो।

अब तो तुम्हें भूमि से काटती…

तुम्हारे मूक जानवरों को दबाती…

हमारी लंबी और चौड़ी सड़कें भी दौड़ेंगी…

निगमानंद के प्राण लेने वाले

व्यवसायियों से…

आखिर कब तक जिंदा रह सकोगी मां?

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