उमड़ धुमड़ कर काले बादल,
आ ही जाते हैं।
जैसे शांत मन मे अचानक,
नकारात्मक संवेग कभी भी,
छा ही जाते हैं।
अंतर्मन पर धुंध सी
छाने लगती है,
जो वेदना का धुंआ सा
बन जाती है।
ये ज़हरीला धुंआ भीतर
ही भीतर फैलता है….
धुटन ही धुटन देता है,
बाहर भी घोर तम,
छा ही जाता है।
ये धुंआ बहुत तड़पाता है,
रुलाता है, नींद भी उड़ाता है।
इस गहन गहरी धुंध के ,
रूप जाने कितने हैं!
कभी कोई अपेक्षा
कोई अधूरी उम्मीद या
क्षोभ, ईर्ष्या द्वेष या क्रोध,
सताते हैं तड़पाते हैं।
आसान नहीं है इन्हे पहचानना,
क्योंकि हम औरों के दोष
गिनाते हैं…
पर मै पहचान गई हूँ इन्हे,
सारी नकारात्मकता को,
कविता की नदी मे बहाकर,
शांत और शीतल हो जाती हूँ।
कविता अच्छी क I बीनू जी बधाई और शुभ कामना .
धन्यवाद
धन्यवाद उत्सावर्धक प्रतिक्रियाओं के लियें।
कविता के भाव अच्छे लगे। बधाई।
वि्जय निकोर
अच्छी कविता के लिए बीनू जी को बधाई और शुभ कामना .