कविता

कविता : ये भेद कैसा है

ज़नाज़ा रोक दो सब देख ले मेरे जिस्म के टुकड़े 

बड़े मुश्किल से जुट पाया है ये टुकड़े जो थे बिखरे 

हुआ विस्फोट औ फिर चीख का तांता ही लग गया 

अरे शैतान के हाथों से फिर इंसान मर गया 

अधुरे आधे जिस्मों का तो जैसे ढेर लग गया 

नहीं पहचान पाया कोई किसका कौन हिस्सा है 

कि हर विस्फोट का मौला यही बस बनता किस्सा है 

मिला जो भी उठाते समझ ये तो उनका हिस्सा है 

इन्हें जो मारता लगता तुम्‍हें कोई फरिश्‍ता है 

जरा पहचान अब्दुल है कहां है कौन काशीनाथ 

सभी बिखरे पड़े हैं धुल में बिखरे पड़े हैं साथ 

सभी का खून तो है लाल फिर ये भेद कैसा है 

हमारी एकता की शाल में ये छेद कैसा है 

बस एक अफज़ल की खातिर कितने अफज़ल मार डाले हैं 

सियासत करने वालो के भी मन क्या इतने काले है